उमेश चतुर्वेदी। हर शासक का असल मूल्यांकन इतिहास करता है। मोदी सरकार का भी करेगा। लोकतांत्रिक भारत की सत्ता के केंद्र अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बने हुए हैं, तो इसकी वजह उनकी कई उपलब्धियां भी हैं। मोदी के शासन की सफलताओं में से एक है देश से वामपंथी उग्रवाद का लगभग सफाया।

मोदी सरकार माओवादी आतंक के खात्मे के लक्ष्य पर शुरू से ही काम करती रही है, लेकिन अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद इसमें तेजी आई है। इसका असर अब दिखने लगा है। माओवादियों के पांव उखड़ रहे हैं, वे सरेंडर करके सामाजिक मुख्यधारा में लौट रहे हैं, लेकिन सियासी जुबान में माओवाद की गूंज सुनाई देती रहती है। पहले नक्सली कहे जाने वाले माओवादी भी अभी पूरी तौर पर पस्त नहीं हुए हैं। उनसे वैचारिक स्तर पर भी लड़ने की जरूरत है।

1925 में विरोधी वैचारिक छोर पर खड़े दो संगठनों का जन्म हुआ। राष्ट्रवाद के ध्येय के साथ विजयदशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ तो लगभग तीन माह बाद दिसंबर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। सौ वर्षों की यात्रा में कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर होता गया, जबकि संगठन और विचार के स्तर पर संघ विराट वृक्ष बन चुका है। आजादी के बाद ही आंध्र प्रदेश में हथियारबंद कथित कम्युनिस्ट क्रांति शुरू हो गई थी, लेकिन इसे गति 1970 के दशक की शुरुआत में बंगाल के नक्सलबाड़ी से मिली। चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग का कहना था कि सत्ता बारूद से निकलती है। 

नक्सल आंदोलन ने दो तरह से अपना प्रभाव बढ़ाया। शैक्षिक संस्थानों और वैचारिक प्रतिष्ठानों में इस वैचारिकी ने बौद्धिक जड़ें जमाईं तो दूसरी तरफ खेतों और जंगलों में खूनी क्रांति का सपना पूरा करने के लिए नौजवान हाथों ने हथियार थाम लिए। धीरे-धीरे वैचारिक प्रतिष्ठानों में इस विचार का वैचारिक प्रभाव तो बढ़ा ही, जंगलों, पिछड़े और आदिवासी इलाकों में हथियारबंद संगठनों का असर बढ़ा। 

हथियारबंद आंदोलन की पहले जो नक्सलवादी पहचान थी, उसे माओवादी के रूप में जाना जाने लगा। जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में हथियारबंद आंदोलन जहां खूंखार होता गया, वहीं उसे वैचारिक कवच वैचारिक प्रतिष्ठानों के बौद्धिकों से मिलने लगा। वैचारिक प्रतिष्ठानों में माओवाद समर्थक लोग तत्कालीन सत्ता का विरोध करते हुए भी सत्ता प्रतिष्ठानों के आदरणीय बने रहे, जबकि हथियारबंद दस्तों ने सत्ता के खिलाफ खूनी संघर्ष जारी रखा। एक दौर में छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से पर उनका असर हो गया।

मोदी सरकार के सत्ता संभालते वक्त देश के लगभग एक चौथाई जिलों में लाल आतंक कायम था। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2013 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या 126 थी। अप्रैल के आंकड़ों के अनुसार अब महज 18 जिलों में ही माओवाद का प्रभाव है। माओवाद कितना दुस्साहसी है, इसका अंदाजा दो घटनाओं से लगाया जा सकता है। 

माओवादियों ने 2010 में छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को विस्फोट से उड़ाकर तत्कालीन सत्ता को चुनौती दे डाली थी। इसके तीन साल बाद छत्तीसगढ़ की ही दरभा घाटी में माओवादियों ने घात लगाकर राज्य कांग्रेस के करीब-करीब पूरे नेतृत्व का सफाया कर दिया था। ताड़मेटला की घटना से क्रुद्ध मनमोहन सरकार ने जंगलों में छिपे माओवादियों पर हवाई कार्रवाई की तैयारी कर ली थी, पर शहरों के वैचारिक प्रतिष्ठानों में काबिज उसके वैचारिक दस्तों के प्रबल विरोध के चलते उसे पीछे हटना पड़ा था। चाहे हथियारबंद माओवादी दस्ते हों या शहरी प्रतिष्ठानों की माओवाद समर्थक वैचारिकी, दोनों के निशाने पर संघ और भाजपा रहे हैं।

2014 के आम चुनाव के लिए भाजपा ने जो चुनाव घोषणापत्र जारी किया, उसमें माओवादी हिंसा को खत्म करने का भी लक्ष्य तय किया गया था। माओवादी हिंसा के चलते आदिवासी क्षेत्रों में विकास की गति धीमी पड़ी। इन क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ने में हथियारबंद दस्तों का प्रतिरोध बड़ी बाधा रहा। माओवादी अक्सर स्कूलों, पंचायत भवनों, रेलवे स्टेशनों, रेलवे लाइनों आदि को निशाना बनाते रहे हैं। 

मोदी सरकार ने माओवाद के खात्मे के लिए दो मोर्चों पर एक साथ काम शुरू किया। हथियार उठाने वालों के लिए जहां गोली का जवाब गोली से देने की नीति अपनाई, वहीं माओवादियों के सरेंडर और उनके सामाजिक पुनरुत्थान पर जोर दिया। पिछड़े इलाकों में सड़कें और रेलवे लाइन पहुंचाई गईं। मोदी सरकार ने प्रभावित इलाकों में स्कूल बनाने और विकास योजनाओं को गति देने पर जोर दिया। सरकारी नीतियों को लागू करने और माओवादी हथियारबंद दस्तों के खिलाफ कार्रवाई में हाल में काफी तेजी आई है।

एक तरफ जहां माओवादी हिंसा पर लगाम लग रही है, वहीं सियासी वैचारिकी में माओवाद का विस्तार होता दिख रहा है। राहुल गांधी एक बार यह कह चुके हैं कि वह भारतीय राज्य से लड़ रहे हैं। यही भाषा माओवादियों की भी है। जिस कांग्रेस के छत्तीसगढ़ नेतृत्व का माओवाद ने खात्मा कर दिया था, उसी कांग्रेस के नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ‘नक्सल आंदोलन’ को सामाजिक आंदोलन बता रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की वापसी कहीं दिख नहीं रही, लेकिन कुछ मामलों में उनकी और कांग्रेस की भाषा एक सी रहती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)