विचार: महाभियोग पर अपनी नाकामी देखे संसद, कुछ राजनीतिक दलों का रवैया निराशाजनक
लोकसभा में भले ही रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश साथी जजों ने उनके साथ बेंच में बैठने से इन्कार कर दिया। अंतत 14 मई 1993 को रामास्वामी ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के साथ उन्होंने यह भी कहा ‘लोकसभा में मेरे खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव गिर जाने से मेरे दृष्टिकोण की ही पुष्टि हुई है।
सुरेंद्र किशोर। इस समय एक बड़ा सवाल यही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने के लिए जिस महाभियोग प्रस्ताव की चर्चा है, क्या उसे तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सकेगा? अतीत के उदाहरण देखें तो संदिग्ध आचरण वाले न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग के मामलों में राजनीतिक दलों का रवैया ढीला-ढाला ही रहा है। नतीजतन न्यायपालिका में शुचिता सुनिश्चित करने में समस्या बनी हुई है।
अब तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि संसद ने किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पास करके उन्हें पद से हटाया हो। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को हटाने का यही एक संवैधानिक तरीका है। संसद में पहला महाभियोग प्रस्ताव कांग्रेस सरकार के दौरान 1993 में आया था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी का था। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप जांच में सही पाए गए थे। इसके बावजूद सत्तारूढ़ कांग्रेस ने पहले ही तय कर लिया था कि रामास्वामी को बचा लेना है।
माकपा सांसद सोमनाथ चटर्जी द्वारा प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव पर लोकसभा में 10 मई, 1993 को सात घंटे तक बहस चली। रामास्वामी के वकील कपिल सिब्बल ने सदन में छह घंटे तक आरोपों पर जवाब दिया। उन्होंने मुख्यतः यह बात कही कि खरीदारी का काम जस्टिस रामास्वामी ने नहीं, बल्कि संबंधित समिति ने किया था। इस चर्चा का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण हुआ था। 11 मई को फिर इस पर नौ घंटे बहस चली।
चटर्जी ने चर्चा का जवाब दिया। जब-जब कपिल सिब्बल ने रामास्वामी के बचाव में कोई तर्क पेश किया तो कांग्रेसी सदस्यों ने उत्साह के साथ मेजें थपथपाईं। विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज टोका-टोकी के बीच कपिल सिब्बल का पक्ष लेते रहे। ये किस बात के सुबूत थे? प्रस्ताव अगले दिन 11 मई को गिर गया, क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान मौजूदगी के बावजूद मतदान में हिस्सा नहीं लिया था। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा। कांग्रेस ने व्हिप भी जारी नहीं किया था। पार्टी की ओर से कहा गया कि चूंकि संसद अभी न्यायपालिका की भूमिका में है, इसलिए न्यायपालिका को व्हिप नहीं जारी किया जा सकता। यह बहाना ही था। कांग्रेस को आशंका थी कि महाभियोग पारित होने से दक्षिण में मतदाता पार्टी से नाराज हो जाते।
लोकसभा में भले ही रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश साथी जजों ने उनके साथ बेंच में बैठने से इन्कार कर दिया। अंतत: 14 मई, 1993 को रामास्वामी ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे के साथ उन्होंने यह भी कहा, ‘लोकसभा में मेरे खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव गिर जाने से मेरे दृष्टिकोण की ही पुष्टि हुई है। साथ ही भविष्य में निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा निंदा और उनके बेतुके हमले से निर्भीक और स्वतंत्र विचारों वाले न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा संभव हुई है।’
रामास्वामी पर आरोप बहुत गंभीर थे, जिससे महाभियोग की नौबत आ गई थी? नवंबर 1987 से अक्टूबर 1989 के बीच पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में रामास्वामी ने अपने आवास और कार्यालय के लिए सरकारी निधि से 50 लाख रुपये के गलीचे और फर्नीचर खरीदे। यह काम निविदा आमंत्रित किए बिना और नकली तथा बोगस रसीदों के आधार पर किया गया। वास्तव में ये सामान खरीदे ही नहीं गए थे। खर्च की यह राशि भी तय सीमा से काफी अधिक थी। रामास्वामी ने अपने 22 महीने के कार्यकाल के दौरान चंडीगढ़ में गैर-सरकारी फोन काल के लिए आवासीय फोन के बिल के 9 लाख 10 हजार रुपये का भुगतान कोर्ट के पैसे से कराया। चेन्नई स्थित अपने आवास के फोन के बिल का भी हाई कोर्ट से भुगतान कराया। वह बिल 76 हजार 150 रुपये का था। इसके अलावा, उन पर अन्य गंभीर आरोप भी थे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रामास्वामी को एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा था। उन्हें आतंकियों से जुड़े मुकदमे निपटाने का संवेदनशील काम सौंपा गया था। वह इस दायित्व के साथ न्याय नहीं कर पाए। उनके दौर में टाडा के अभियुक्त निरंतर रूप से जमानत हासिल करते रहे। फरवरी, 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा, वामपंथी दलों और भाजपा के 108 सांसदों ने मधु दंडवते के नेतृत्व में लोकसभा में रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग का नोटिस दिया। तत्कालीन स्पीकर रवि राय ने संवैधानिक दायित्व के अनुरूप इसकी सत्यता जांचने के लिए 12 मार्च, 1991 को तीन जजों की समिति बना दी।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पीवी सावंत के नेतृत्व में गठित इस समिति के सामने रामास्वामी ने पक्ष रखने से इन्कार कर दिया। समिति में जस्टिस सावंत के अलावा बंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे पीपी देसाई और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ओ. चिनप्पा रेड्डी भी थे। सावंत समिति ने अपनी जांच रपट में लिखा, ‘जस्टिस रामास्वामी ने अपने पद का जानबूझकर दुरुपयोग किया। सरकारी पैसों का कई तरह से निजी उपयोग करने के नाते वे नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं। उन्होंने न्यायाधीश की ऊंची पदवी पर धब्बा लगाने के साथ न्यायपालिका में जनता के विश्वास को मिटाकर रख दिया। उन्होंने जो अपराध किए, वे ऐसे हैं कि उनका पद पर बने रहना न्यायपालिका के और सार्वजनिक हित में नहीं होगा।’ विडंबना यह रही कि ऐसे रामास्वामी का कांग्रेस ने बचाव किया।
रामास्वामी के विरुद्ध महाभियोग का समर्थन करने वालों की यह थोथी दलील थी कि प्रस्ताव पारित होने से न्यायपालिका में भय पैदा होता, जबकि इससे लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों में बढ़ रहे भ्रष्टाचार पर भी भविष्य में अंकुश लगाने में आसानी होती। संसद में प्रस्ताव गिरने से न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी पड़ गई। इसके बाद भी कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव आए, पर वे निर्णायक पड़ाव पार नहीं कर पाए। संसद की ऐसी ‘विफलताएं’ अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने का कारक बन रही हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट के अनेक न्यायाधीश समय-समय पर न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर चिंता जाहिर करते रहे हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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