कसौटी पर कश्मीरियत
आज कश्मीर बुरे नेतृत्व की जीवित मिसाल बन चुका है। यहां के गलत नेताओं ने अपने तुच्छ फायदों के लिए नौजवानों को हिंसा और नाकामी के रास्ते पर धकेल दिया है
इतिहास हमेशा विवादों से घिरा होता है। इसलिए कश्मीर के इतिहास में जाने से कोई लाभ नहीं है। वैसे भी हर व्यक्ति इतिहास को अपने चश्मे से देखता है, लेकिन इस सबके बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता किभारत विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने स्वेच्छा से इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन यानी विलयपत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके बाद कश्मीर हमेशा के लिए भारत का हिस्सा बन गया। बाद में पाकिस्तान के रवैये के कारण कश्मीर विवाद का विषय बन गया। 1989 के बाद कश्मीर में उग्रवाद ने सिर उठाया और तब से लेकर अभी तक हजारों कश्मीरी गलत रास्ते पर चलकर अपनी जान गंवा चुके हैं। इस दौरान खरबों रुपये बर्बाद हुए हैं और अन्य अनेक नुकसान हुए हैं। किसी को यह सवाल करना चाहिए कि आखिर हिंसा और अशांति से फायदा किसे हुआ। कश्मीर की जनता को या उन गलत नेताओं को जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के घर जलवा दिए?
कश्मीर में बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। जाहिर है कि वे नमाजी और रोजेदार भी हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश इस्लाम की सीख के विपरीत चल रहे हैं। पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन से ऐसे अनेक किस्से मिलते हैं जब उन्होंने लड़ाई का रास्ता न चुनकर अहिंसा का रास्ता चुना। इसका एक बड़ा उदाहरण हुड्डईबिययह की संधि से मिलता है जब पैगंबर साहब ने लड़ाई का रास्ता चुनने के बजाय संधि के लिए हाथ बढाया। इस किस्से को क़ुरान ने खुली जीत बताया। यह तो थी इस्लाम की बात। अगर आधुनिक इतिहास की बात करें तो जर्मनी और जापान में ऐसे दो बड़े उदाहरण दिखते हैं जिन्होंने टकराव का रास्ता छोड़कर अहिंसा का रास्ता चुना।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी सेना ने ओकिनावा द्वीप को अपने कब्जे में लेकर उसे अपनी सेना की छावनी में बदल दिया था। फिर हालात बदले और समय के हिसाब से समझ कायम हुई। आज इस जापानी द्वीप पर एक बड़ी संख्या में अमेरिकी सेना अपने परिवार वालों के साथ रहती है। क्या जापान के लोग अपना आत्मसम्मान बिल्कुल खो चुके थे, जो उन्होंने अमेरिका के विरुद्ध कोई बल प्रदर्शन नहीं किया या फिर संयुक्त राष्ट्र अथवा दुनिया के अन्य मंचों पर आवाज नहीं उठाई? नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं था, बल्कि जापान को ऐसा नेतृत्व मिला जिसने अपनी जनता को टकराव के रास्ते से बचाकर शिक्षा और तरक्की के रास्ते पर चलाया, जिसका परिणाम यह निकला कि आज अमेरिका में सबसे ज्यादा बिकने वाली गाड़ी जापान की टोयोटा है। दुनिया भर में जापानी उत्पाद अपनी गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं। तमाम समस्याओं के बावजूद आज जापान की अर्थव्यवस्था को विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता है।
जापान के संविधान के अनुच्छेद 9 में एक जो सबसे अनोखी बात लिखी है वह यह है कि उन्होंने अपने जंग घोषित करने के अधिकार को हमेशा के लिए छोड़ दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध में एक और देश जिसको सबसे ज्यादा क्षति पहुंची थी वह था जर्मनी। वह दो भागों में बंट गया था-पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी। जिस वजह से 1990 में बर्लिन की दीवार को टूटना पड़ा वह था पश्चिमी जर्मनी का असाधारण विकास की ओर अग्रसर होना। यह असंभव था अगर वहां के नेतृत्व के मन में सबकों मिलाकर आगे ले जाने की चाह न होती। नेतृत्व अगर बुद्धिमत्ता से काम न ले तो कोई भी समाज विकास के पथ पर नहीं चल सकता। पश्चिमी जर्मनी के लोग चाहते तो वे पूर्वी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने भी जापान की तरह शांति और तरक्की का रास्ता चुना। नतीजा यह हुआ कि विभाजन की प्रतीक बर्लिन की दीवार देखते ही देखते ढह गई।
कश्मीर में सही नेतृत्व न होने की वजह से देश का यह हिस्सा अपने तमाम बच्चों को खो चुका है। अगर कश्मीर के नेतृत्व ने शांति की अहमियत को समझा होता तो संभवत: इस इलाके में बनी टोयोटा जैसी गाड़ी दुनिया की सड़कों पर दौड़ रही होती। आज कश्मीर बुरे नेतृत्व की जीवित मिसाल बन चुका है। नेताओं ने अपने तुच्छ फायदों के लिए अनेक नौजवानों को हिंसा और नाकामी के रास्ते पर धकेल दिया है। यह अब कश्मीर के युवाओं के हाथ में है कि वे इतिहास के इन बेशकीमती उदाहरणों से सीख कर अपने जीवन को कामयाबी के रास्ते पर चलाते हैं या गलत राहों का शिकार होते रहते हैं?
हर शुक्रवार को कश्मीर की तमाम मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से इस्लाम की आड़ में नौजवानों को भारत के विरुद्ध भड़काया जाता है। जबकि कुरान कहती है कि जुमा की नमाज के बाद खुदा की इनायत ढूंढ़ने निकल जाओ। कश्मीरियत की बात करने वाले सोचें कि उनके कश्मीर में यह क्या हो रहा है? दुर्भाग्य से दुनिया के तमाम हिस्सों में देखने में आ रहा है कि मस्जिदों के इमाम जुमा के दिन को इस्लाम का राजनीतिकरण करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यह कुरान के विपरीत है। जिस कश्मीरियत की बात आज कश्मीर में होती है उसके प्रतिरूप शेख नूरुद्दीन नूरानी और शाह हमदान हैं, न कि आइएस और हिजबुल मुजाहिदीन जैसी अधर्मी संस्थाएं। इस्लाम में सबसे बड़ी जगह अमन की है, जिसके कारण नूरुद्दीन नूरानी को कश्मीरी पंडितों ने नंद ऋषि का नाम दिया और उनकी कविताएं ऋषि नामा नाम से चर्चित हुईं। आज कश्मीर के मुसलमान दुनिया से अलग-थलग पड़ चुके हैं। वजह है उनके हिंसक तौर-तरीके। आज कश्मीर के नौजवानों के पास एक ऐसा अवसर है जो शायद किसी और के पास न हो। वह है मुस्लिम समाज में एक अनुकरणीय व्यक्ति बन कर दिखाने का, लेकिन यह सिर्फ तब संभव हो सकता है जब वे सही मायने में कुरान और इस्लाम की तालीम पर लौटें।
पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन से एक उदाहरण मिलता है जो मक्की दौर का है। जब वहां के हालात बिल्कुल हाथ से निकलते जा रहे थे और उनके साथियों की जान खतरे में थी। तब पैगंबर साहब ने अपने 11 साथियों के एक जत्थे को अबबयसिंनिया (आज के इथोपिया) के लिए रवाना किया और यह कह कर किया कि वहां का राजा सही इंसान है, जबकि वह एक ईसाई देश था। इस किस्से से मुस्लिम विद्वान यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अगर एक व्यक्ति को अपने धर्म को सिर्फ अपने बंद कमरे में मानने की भी आजादी मिली हुई है तो वहां के प्रशासक के विरुद्ध किसी भी प्रकार का विरोध करना खुदा की नजर में अस्वीकृत है। कश्मीरियों के लिए अब सोचने की बात यह है कि ऐसा क्या है जो सालों से चल रही उनकी मुहिम को सफलता की जगह असफलता ही हाथ लगी है। दरअसल इसका उत्तर भी पैगंबर साहब के एक कथन से मिलता है, खुदा शांति पर जो देता करता है वह हिंसा पर नहीं देता।
(स्वतंत्र टिप्पणीकार रामिश सिद्दीकी चर्चित पुस्तक-द ट्रू फेस अॅाफ इस्लाम के लेखक हैं)
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