विचार: जस्टिस यशवंत वर्मा हाजिर हों!
कैश कांड की जानकारी गोपनीयता और संवेदनशीलता के घूंघट में उच्चाधिकारियों न्यायाधीशों के बीच घूमती रही। अदालत के गलियारों में धुंआ धूल और धुंध...खामोशी का षड्यंत्र गहराता रहा अटकलों का बाजार गर्माता गया। कुछ पत्रकारों ने पर्दा हटाना शुरू किया तो पहले जज साहब को न्यायिक कार्य न करने के निर्देश और फिर इलाहाबाद वापस जाने के आदेश जारी हुए।
अरविंद जैन। वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ महाभियोग (1788-1795) की बहस में सांसद और वकील एडमंड बर्क ने कहा था- सत्य, न्याय और इंसाफ के लिए कानून के मार्ग पर जो राष्ट्र चलता है, वही महान है। बेहद गंभीर आरोपों और पर्याप्त साक्ष्यों के बावजूद ब्रिटिश संसद ने हेस्टिंग्स को बेकसूर माना और कंपनी ने उन्हें 4,000 पौंड सालाना पेंशन भी दी। शायद सत्ता अपने लाडले सपूतों के बचाव में ऐसे ही न्याय के नाटक-नौटंकी करती रही है।
14 मार्च, 2025 को दिल्ली के एक बंगले के स्टोर रूम में आधी रात आग लगने से धुंआ उठने लगा। आग में जलते नोटों के ताप से कांच की बोतलें टूटने और शराब बहने से आग और भड़क उठी। आग में शराब ने घी से भी अधिक खतरनाक काम किया। बंगला दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को आवंटित था।
दमकल, पुलिस आई, आग बुझाई, वीडियो बनाई और जले-अधजले या बचे करोड़ों रुपये और शराब की बोतलों को यूं का यूं छोड़ चली गई। कोई पंचनामा (एफआइआर) या बरामदगी नहीं की गई। घटना के समय जस्टिस वर्मा और उनकी पत्नी भोपाल में थे। अगले दिन आए तो घटनास्थल पर शेष-अशेष कुछ न था। विश्वासपात्र सचिव और अन्य सेवकों ने सब साफ-सफाई कर दी। मीडिया में हफ्ते भर तक कोई खबर नहीं।
कैश कांड की जानकारी गोपनीयता और संवेदनशीलता के घूंघट में उच्चाधिकारियों, न्यायाधीशों के बीच घूमती रही। अदालत के गलियारों में धुंआ, धूल और धुंध...खामोशी का षड्यंत्र गहराता रहा, अटकलों का बाजार गर्माता गया। कुछ पत्रकारों ने पर्दा हटाना शुरू किया तो पहले जज साहब को न्यायिक कार्य न करने के निर्देश और फिर इलाहाबाद वापस जाने के आदेश जारी हुए। कैश कांड की जांच के लिए तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की गई।
समिति की रिपोर्ट आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने जस्टिस यशवंत वर्मा पर महाभियोग चलाने की सिफारिश करके गेंद संसद के पाले में लुढ़का दी और खुद सेवानिवृत्त हो गए। न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अधिकांश दस्तावेज (जांच रिपोर्ट के अलावा) सार्वजनिक करने पड़े। न जाने कैसे जांच रिपोर्ट बाद में लीक हो गई। जांच समिति में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति अनु शिवरमन शामिल थे।
फिलहाल महाभियोग की पेचीदा प्रक्रिया चलाने या न चलाने के मुद्दे पर वाद-विवाद, सहमति-असहमति की राजनीति के इर्द-गिर्द ही वरिष्ठ वकीलों द्वारा सार्वजनिक रूप से कानूनी तर्क-वितर्क रचे जा रहे हैं। कानून मंत्री सभी दलों के बीच आम सहमति बनाने में प्रयासरत हैं। एक ओर न्यायपालिका में आमजन की आस्था बचाए रखने के लिए और संसद को इस मामले पर बहस करने, वोट देने और अभियोग सिद्ध करने की दु:साध्य जटिलता से बचाने के लिए यह सलाह दी जा रही कि जस्टिस वर्मा इस्तीफा दे दें, ताकि न्यायपालिका और संसद का धर्मसंकट से बचाव हो सके। दूसरी ओर उपलब्ध तथ्यों पर गंभीर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सांसदों में वकील और वकीलों में सांसद के रूप में जाने-पहचाने चेहरे रोज नया रास्ता तलाश-तराश रहे हैं।
कुछ विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि यह भ्रष्टाचार का मामला ही नहीं, पर यथार्थ यह भी है कि न्याय मंदिरों के विशाल प्रांगण में भी भ्रष्टाचार के विष-वृक्ष अप्रत्याशित रूप से फलते-फूलते रहे हैं। यौन शोषण से लेकर आर्थिक धांधली तक के आरोपों में अकसर लीपापोती होती रही और अधिक हुआ तो न्यायाधीशों से इस्तीफा लेकर बाइज्जत मुक्त कर दिया गया। विचारणीय है कि कूड़े को कालीन तले छिपा कर न्यायिक संस्थाओं की छवि को कब तक विश्वसनीय रखा जा सकता है?
इस्तीफा के बारे में सोचते ही न्यायाधीश शामित मुखर्जी सामने आ खड़े होते हैं, जिन पर आपराधिक मामला अभी तक लंबित है। इससे इन्कार नहीं कि शायद कोई न कोई दल जस्टिस वर्मा को भी वैसे ही बचा ले, जैसे कांग्रेस ने वाकआउट करके जस्टिस रामास्वामी को बचाया था। कांग्रेस जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने की भी मांग कर रही है। राजनीति के अपराधीकरण के मौजूदा दौर में अनुमान लगाना मुश्किल है कि अंतिम क्षणों में क्या फैसला लिया या नहीं लिया जाएगा।
संदेह और सवालों का घेरा बढ़ रहा है। यदि कथित करोड़ों रुपये वर्मा जी के नहीं थे तो किसके थे? अगर यह उनके विरुद्ध कोई षड्यंत्र है तो ऐसा कौन है, जो रकम और शराब स्टोर रूम में प्लांट कर-करा सकता है और इसके पीछे क्या मकसद हो सकता है? खुद न्यायाधीश महोदय ने कोई उचित कार्यवाही या शिकायत क्यों नहीं की? बिना किसी विरोध-प्रतिरोध वापस अपने घर (इलाहाबाद) कैसे चले गए? आज तक अग्निकांड में जला-अधजला एक भी नोट बरामद नहीं हुआ। क्या अस्थियां सत्ता के संगम में प्रवाहित कर दी गईं या व्यवस्था के किसी गंदे नाले में? कानून और न्याय व्यवस्था में आस्था बचाए रखने के लिए जांच तो करनी-करानी ही पड़ती है। इसे ‘सत्यमेव जयते’ कहो या ‘यतो धर्मा स्ततो जय’!
जस्टिस वर्मा के विरुद्ध संसद के जुलाई सत्र में महाभियोग आ सकता है, पर इसमें अनेक ‘किंतु-परंतु’ हैं। महाभियोग के लिए राज्यसभा के 50 या लोकसभा के सौ सांसदों का हस्ताक्षरित प्रस्ताव अनिवार्य है। जजे’ज इंक्वायरी एक्ट, 1968 की धारा-3 के अनुसार संसदीय समिति को स्वतंत्र जांच करनी होगी, तीन न्यायाधीशों की जांच रिपोर्ट से काम नहीं चलेगा। महाभियोग प्रस्ताव दोनों सदनों में मौजूद सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पास होना चाहिए।
रामास्वामी के महाभियोग के समय उनका बचाव नेता एवं वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल (प्रधान, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने किया था। न्यायपालिका एवं विधायिका के बीच वर्चस्व के शीतयुद्ध में विवेकहीन बिखराव घटता-बढ़ता रहता है। देखना है लोकतंत्र के प्रहरी राष्ट्रहित में क्या निर्णय लेते हैं। ‘रिमोट कंट्रोल’ से संचालित आवारा पूंजी के अभेद्य चक्रव्यूह में अनेक यशवंतों की भूमिका रहती है। यदि वक्त रहते न्याय एवं कानून व्यवस्था की देखभाल नहीं की गई तो स्थितियां बेकाबू और भयावह हो सकती हैं।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं)
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