डॉ. एके वर्मा

अदालतों द्वारा तीन तलाक को खत्म करने, निजता को मौलिक अधिकार बनाने, डेरा सच्चा सौदा के दुष्कर्मी बाबा को कारावास की सजा देने और मुंबई बम धमाकों के आरोपियों को सजा सुनाने के मामले से जुड़े कई निर्णयों को जनता ने सराहा है, लेकिन गुरमीत सिंह को सलाखों के पीछे देखने के लिए पीड़िता को 15 वर्ष और मुंबई बम-धमाकों के अभियुक्तों की सजा के लिए देश को 24 वर्ष इंतजार करना पड़ा। असंख्य मुकदमों में अंतिम निर्णय बहुत देर से आते हैं। आज जब अनेक संवैधानिक संस्थाओं में गिरावट आ रही है तब भी जनता का विश्वास अदालतों पर बना हुआ है। इसका मतलब यह नहीं कि अदालतों में सब कुछ ठीक-ठाक है। आज अदालतों की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार के अतिरिक्त लंबी, खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया और फैसलों में होने वाली देरी है। इससे सबसे ज्यादा गरीब और किसान प्रभावित होते हैं जिन्हें गांव से शहर आने में समय, श्रम और पैसा गंवाना पड़ता है। आज भी अदालतों का दृश्य अंग्रेजों के जमाने के मुकाबले कुछ ज्यादा नहीं बदला, बल्कि कुछ और बिगड़ गया है जहां वादी-प्रतिवादी न्याय पाने के लिए अदालतों की ओर हसरत भरी निगाहों से देखते रहते हैं। न्याय की गुहार लगाने वालों का ऐसा बुरा हाल क्यों है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
लगभग 2.70 करोड़ मुकदमे न्यायालयों में लंबित हैं जिनमें लगभग 60 हजार सर्वोच्च न्यायालय में, 38 लाख उच्च-न्यायालयों में और 2.30 करोड़ जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में विचाराधीन हैं। अप्रैल 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने इस बात को लेकर भावुक हो गए थे कि केंद्र सरकार न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां करने और उनकी संख्या बढ़ाने के लिए कुछ नहीं कर रही है। उनके अनुसार उच्च-न्यायालयों में 434 न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। जेल में अभियुक्तों को रखने की जगह कम पड़ रही है और केवल इलाहाबाद उच्च-न्यायालय में ही 10 लाख मुकदमे लंबित हैं। न्यायमूर्ति ठाकुर के अनुसार देश में हर वर्ष अदालतों में पांच करोड़ मुकदमे दर्ज होते हैं और केवल दो करोड़ ही निपट पाते हैं। 1987 में विधि आयोग ने 40 हजार न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सिफारिश की थी और तब से देश की जनसंख्या में 25 करोड़ आबादी और बढ़ गई है। इससे अदालतों पर बोझ पहले से भी ज्यादा बढ़ा है, लिहाजा उनके द्वारा मुकदमों का निपटारा भी देर से होता है। इन बातों में दम है और सरकार एवं न्यायपालिका को मिलकर इसे ठीक करना होगा, लेकिन देश भर में जिला, अधीनस्थ न्यायालयों में रिक्त 4,166 पदों पर भर्ती की जिम्मेदारी तो स्वयं उच्च-न्यायालयों की है जिनके प्रतिवेदन पर राज्यपाल किसी राज्य में जिला-न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों में नियुक्तियां करते हैं। फिर उनमें देरी क्यों? बहरहाल क्या इन नियुक्तियों मात्र से ही समस्या का समाधान हो जाएगा? या कुछ और भी मुद्दे हैं जिन्हें ठीक करना पड़ेगा? पहली समस्या न्यायिक प्रशासन की है। निचली अदालतों में न्यायिक प्रशासन को दुरुस्त करने की बहुत आवश्यकता है।
न्यायालयों का रख-रखाव, उसके संसाधन, वादी-प्रतिवादियों को न्यायालय परिसर में वांछित सुविधाएं और अधिवक्ताओं पर नियंत्रण आदि अनेक ऐसी जरूरतें हैं जिनके लिए प्रत्येक जिले में एक अभिकरण होना चाहिए जिससे अदालतों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें और न्यायालय परिसर और आसपास की जगह को अराजकता से बचाया जा सके। इससे अदालतों की दक्षता पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। संसद को कानून बना कर ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। दूसरी समस्या दीवानी और फौजदारी मुकदमों की प्रक्रिया से संबंधित है। अनेक ऐसे मुकदमे हैं जहां न्याय तब मिलता है जब अभियुक्त सजा की अवधि लगभग काट चुका होता है या दीवानी मामलों में जब निर्णय अप्रासंगिक हो जाता है जैसे दिल्ली हाईकोर्ट ने 2014 में 85 वर्ष के वृद्ध को 32 वर्ष की मुकदमेबाजी के बाद तलाक की इजाजत दी। जमीन संबंधी अनेक दीवानी मुकदमों में दूसरी या कभी तीसरी पीढ़ी को अंतिम निर्णय मिलता है। कुछ कमियां कानून में भी हैं जिनका दुरुपयोग होता है। हालांकि ‘कोड-ऑफ-सिविल-प्रोसीजर’ में 1999 में संशोधन करके केवल तीन बार ‘तारीख’ देने की व्यवस्था की गई, लेकिन 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘सलेम-अधिवक्ता-बार-एसोसिएशन’ मामले में इसकी यह व्याख्या की कि इससे न्यायालय द्वारा तीन से अधिक तारीख देने के अधिकार पर अंकुश नहीं लगता। फिर तो राज्यों के उच्च-न्यायालयों ने तारीख देने के अपने अप्रतिबंधित अधिकार का भरपूर प्रयोग किया। तारीख देते समय न्यायाधीश इस बात का ध्यान नहीं रखते कि अगली तारीख को उनका कितना व्यस्त कार्यक्रम है, न इस बात का कि इससे गरीब वादी या प्रतिवादी को कितनी असुविधा होगी? क्यों न तारीख लेने वाले से इतना कड़ा दंडात्मक ‘हर्जाना’ लिया जाता कि मुकदमे को लंबा खींचने की प्रवृत्ति पर विराम लग सके? सिंगापुर का उदाहरण लिया जा सकता है जहां न्यायालय में लगने वाले दिनों के हिसाब से वादी या प्रतिवादी से ‘टैक्स’ लिया जाता है जिससे कम दिनों में ही मुकदमा निपट सके। मुकदमों के निपटान में देरी से विदेशी निवेशक भी कतराते हैं कि वे व्यापार करें कि मुकदमा लड़ें? अधिवक्ताओं का दृष्टिकोण भी मुकदमों में देरी के लिए उत्तरदायी है। एक अध्ययन के अनुसार 81.6 प्रतिशत वकील और 18.4 प्रतिशत न्यायाधीश देरी के लिए जिम्मेदार हैं, लगभग 60 प्रतिशत मुकदमों में वकील 4 से 10 बार तारीख लेते हैं। सिविल प्रोसीजर कोड की संशोधित धारा 35बी (भाग-1) के अनुसार अदालतें तारीख लेने पर कोई भी धनराशि हर्जाने के रूप में ले सकती हैं पर दिल्ली उच्च-न्यायालय ने केवल 2 प्रतिशत मुकदमों में ही ऐसा हर्जाना लगाया और तीन बार से ज्यादा तारीख लेने पर केवल 20 प्रतिशत मुकदमों में ही हर्जाना वसूल किया। कुछ अधिवक्ता एक से ज्यादा जिलों में खुद को अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत करा लेते हैं और अपने व्यावसायिक हितों के कारण तारीख पर तारीख लेते रहते हैं। अनेक अवसरों पर न्यायालय परिसर में अधिवक्ता कानून को भी अपने हाथ में लेने की कोशिश करते हैं। कहां है ‘बार कौंसिल ऑफ इंडिया?
कुछ ‘फास्ट-ट्रैक’ अदालतें महिलाओं से संबंधित मुकदमों के लिए बनाई जरूर गई हैं, पर छोटी-मोटी वजहों से 92 प्रतिशत मुकदमों में ‘ट्रायल’ भी नहीं हो पाया है। अदालतों में भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जिसमें ‘अदालती अवमानना’ के डर से कोई नहीं बोलता। इसलिए उसका समाधान स्वयं न्यायपालिका को ही ढूंढना होगा। इससे समाज में स्व-नियुक्त समानांतर न्यायिक संस्थाएं-संगठन और खाप-पंचायतें पनप रहीं हैं। क्या यह संकेत नहीं कि लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा डगमगा रहा है? जरूरत है कि न्याय को सुलभ, सस्ता और न्यायिक-प्रक्रिया को जनोन्मुखी बनाने के लिए कानूनों के साथ-साथ न्यायपालिका में संगठनात्मक, प्रक्रियात्मक, प्रशासनिक तथा सांस्कृतिक बदलाव किया जाए जिससे जनता को अदालतों में होने वाले उत्पीड़न से बचाया जा सके।
[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]