संदीप घोष। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में वापसी को लेकर भारत में उत्साह है। इस उत्साह की वजह ट्रंप के प्रति कोई विशेष लगाव न होकर उनके पूर्ववर्ती बाइडन प्रशासन से जुड़ा असंतोष है। बाइडन प्रशासन का रवैया भारत सरकार और विशेष रूप से उसके मुखिया नरेन्द्र मोदी को लेकर बेरुखी भरा रहा।

हालांकि ट्रंप को लेकर उत्साह के माहौल को भी कुछ लोग जल्दबाजी भरा बता रहे हैं, क्योंकि प्रत्येक देश अपने हितों के अनुरूप ही काम करता है और अमेरिका को तो इस मामले में महारत हासिल है। अमेरिका को लेकर एक कहावत बहुत आम है कि अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक है, लेकिन उसका दोस्त होना और भी खतरनाक हो सकता है।

ऐसे में भला ट्रंप सरकार क्यों किसी से अलग होगी? किसी भी सूरत में ‘अमेरिका फर्स्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ यानी मागा जैसे अपने चुनावी नारों के साथ ही उन्हें अपनी शुरुआत करनी होगी। अप्रवासियों को बाहर निकालने की शुरुआत के साथ ट्रंप ने अपने तेवर भी जाहिर कर दिए हैं।

लोग भले ही ट्रंप को अलहदा और अप्रत्याशित व्यक्ति कहें, लेकिन उनकी बातें सीधी एवं सपाट होती हैं। वह जैसे दिखते हैं, कमोबेश वैसे ही हैं। उनके मामले में अनावश्यक अनुमान लगाने की जरूरत नहीं। दूसरे नेता कूटनीति और इधर-उधर की बातों में उलझाए रखते हैं, जिससे अटकलबाजियों को बल मिलता है।

ट्रंप के मामले में ऐसा नहीं है। यह स्पष्ट है कि अमेरिकी उद्योगों एवं अर्थव्यवस्था का कायाकल्प ट्रंप की शीर्ष प्राथमिकता है। उनकी अभी तक की घोषणाओं से इसकी पुष्टि भी होती है। चूंकि ट्रंप मूल रूप से एक कारोबारी हैं और वह भी परंपरा से इतर शैली वाले तो अपने एजेंडे पर आगे बढ़ने में वह पूरी तत्परता दिखाएंगे।

अमेरिकी हितों के लिए ट्रंप व्यापारिक साझेदार देशों के साथ कड़ी सौदेबाजी से कतई नहीं हिचकेंगे। इस मामले में भारत को भी उनसे किसी प्रकार की रियायत की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पीएम मोदी के साथ उनकी कितनी ही आत्मीयता क्यों न हो, लेकिन शायद ही वह भारत को ढील दें।

भारत को इससे कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए। विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिकी बनने की आकांक्षा रखने वाला देश किसी की कृपा के भरोसे नहीं रह सकता। हमें वह मुकाम अपने दम पर हासिल करना होगा। अगर इस परिदृश्य में कुछ मुश्किलें सामने आती हैं तो हमें उन्हें अवसर के रूप में देखना होगा।

उचित यह होगा कि सरकार एवं हमारा उद्योग जगत अपनी जुगलबंदी से घरेलू क्षमताओं के विकास के साथ ही अपनी प्रतिस्पर्धा क्षमता बढ़ाने का प्रयास करें। जापान और कोरिया से लेकर चीन ने भी इसी राह पर अपने विकास की संभावनाओं को भुनाया है। नि:संदेह इस राह में कुछ लेन-देन का पहलू भी जुड़ा होगा, जिसके लिए सुविचारित वार्ता रणनीति आवश्यक होगी। मोदी सरकार ने डब्ल्यूटीओ से लेकर जी-20 और ब्रिक्स जैसे मंचों पर अपनी इस क्षमता का बखूबी प्रदर्शन किया है।

एक पेचीदा मुद्दा वीजा और आव्रजन का हो सकता है। मोदी सरकार के लिए घरेलू मोर्चे पर यह मुद्दा बड़ा संवेदनशील हो सकता है, क्योंकि इस कड़वी सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि तमाम भारतीय अमेरिका जाकर बसना चाहते हैं। शुरुआती तौर पर भले ही एच1बी वीजा और अस्थायी वर्क परमिट को लेकर कुछ अड़चनें बढ़ें, लेकिन समय के साथ इस मुद्दे के सुलझने के आसार हैं, क्योंकि खुद ट्रंप कह चुके हैं कि अमेरिका को योग्य विदेशी कर्मियों की आवश्यकता है।

वास्तविक समस्या उन भारतीय मूल के लोगों के मामले में आएगी, जो कनाडा या अन्य देश के जरिये अमेरिका गए या वैध दस्तावेजों के बिना भी वहां टिके हुए हैं। इनमें से कुछ को अमेरिका से तत्काल बेदखल होना पड़ सकता है, क्योंकि ट्रंप को अपने समर्थकों के समक्ष यह साबित करना है कि वह उनसे किए गए वादों पर अमल करने में लगे हैं।

इस मामले में भारत सरकार दोहरे मापदंड नहीं अपना सकती, क्योंकि हम खुद इसी तरह की समस्याओं से दो-चार हैं। भारत अपने यहां अवैध रूप से रह रहे लोगों को वापस भेजने के साथ ही जहां-तहां खुली उन सीमाओं को सील करने पर अमेरिका से समर्थन मांग सकता है, जो घुसपैठ और ड्रग तस्करी जैसी गतिविधियों का जरिया बनी हुई हैं।

दुनिया में भू-राजनीति के समीकरण परस्पर हितों से आकार लेते हैं। ऐसे में भारत के लिए ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों का मंच सबसे उपयुक्त दांव हो सकता है। इसका दायरा दक्षिण एशिया से परे प्रशांत क्षेत्र के क्वाड सदस्यों और पश्चिम एशिया तक जाता है। यहां चीन की काट में भारत की रणनीतिक महत्ता भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

जहां तक रूस के साथ संबंधों की बात है तो ट्रंप सरकार में इसे लेकर कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। रूसी राष्ट्रपति के साथ टकराव भरा रवैया रखने वाले बाइडन के उलट पुतिन के प्रति ट्रंप का रवैया व्यावहारिक है। यूक्रेन संकट सुलझने के बाद वाशिंगटन और मास्को के बीच संबंधों में नरमी आ सकती है। ट्रंप के अभी तक के दृष्टिकोण से यही लगता है कि वह यूक्रेन संकट का शीघ्र समाधान करना चाहेंगे।

कुल मिलाकर ट्रंप सरकार में भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के व्यापक रूप से सहज होने के ही अधिक आसार हैं। पिछले कुछ समय से संबंधों में तनाव किसी से छिपा नहीं। ट्रंप के अभियान में अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ का उल्लेख भारतीयों के एक बड़े वर्ग में गूंजने लगा था।

बांग्लादेश के घटनाक्रम को भारत में उसी चश्मे से देखा गया। बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद वहां अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचारों और उनके दमन को लेकर जहां बाइडन प्रशासन ने चुप्पी साध रखी थी, वहीं ट्रंप की दो-टूक चेतावनी आश्वस्त करने वाली रही।

अमेरिकी कूटनीतिक प्रतिष्ठान की शह पर मीडिया के कुछ हिस्सों से लेकर इंटरनेट मीडिया में आई टिप्पणियों ने भी संदेह पैदा करने का काम किया। भारतीय दक्षिणपंथी खेमे को ट्रंप के शपथ ग्रहण में ईसाई पादरियों की उपस्थिति को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए। अब हमें परिपक्व द्विपक्षीय रिश्तों की उम्मीद करनी चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)