हरेंद्र प्रताप। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पांच मार्च को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इसमें लोकसभा के संभावित परिसीमन पर चर्चा होगी। उन्होंने आशंका जताई है कि जनसंख्या के आधार पर पर होने वाले 2026 के परिसीमन से तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों का नुकसान होगा।

उन्होंने कहा कि हमने कड़ाई से जनसंख्या नियंत्रण में सफलता प्राप्त की है, लेकिन अब इसका नुकसान भुगतना पड़ रहा है। दक्षिण के अन्य राज्य भी समय-समय पर कहते रहते हैं कि उनकी जनसंख्या विकास दर घटने से उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक योजनाओं में नुकसान उठाना पड़ता है।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने भी उनके सुर में सुर मिलाया है। तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी स्टालिन जैसी आपत्ति जता रहे हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र में सत्तारूढ़ राजग के सहयोगी चंद्रबाबू नायडू भी स्टालिन जैसी आशंका जता चुके हैं। हालांकि ऐसी आशंकाओं के बीच केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वस्त किया है कि दक्षिणी राज्यों को संभावित परिसीमन में ऐसा कोई भेदभाव नहीं झेलना पड़ेगा।

देश में जनसंख्या के अनुरूप जनप्रतिनिधित्व की परंपरा रही है। विगत पांच जनगणना दशकों-1961 से लेकर 2011 तक देश की जनसंख्या वृद्धि दर 175.67 प्रतिशत थी, लेकिन आंध्र में यह 57.45, केरल में 97.62, तमिलनाडु में 114.16 तथा कर्नाटक में 159.01 प्रतिशत रही।

कर्नाटक में आइटी और अन्य क्षेत्रों में हुए विकास के चलते देश भर से आकर लोग वहां बसते चले गए। समय के साथ हुई समृद्धि और अन्य पहलुओं ने भी जनसंख्या वृद्धि पर ब्रेक लगाने में भूमिका निभाई।

परिसीमन की चर्चा करें तो देश में लोकसभा सीटों के परिसीमन हेतु 1953, 1962, 1972 तथा 2002 में परिसीमन आयोग गठित हुए। आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व अब नए परिसीमन आयोग का गठन प्रस्तावित है, क्योंकि 2029 का लोकसभा चुनाव नए परिसीमन के आधार पर होगा।

1953 के परिसीमन हेतु 1951 की जनगणना, 1962 में 1961 की जनगणना, 1972 में 1971 की जनगणना तथा 2002 में 2001 की जनगणना को आधार माना गया था, लेकिन 2029 के परिसीमन के लिए अधिकृत रूप से जनसंख्या का क्या आधार होगा, यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि कोरोना के कारण 2021 की जनगणना नहीं हो पाई है।

फिर भी स्टालिन ने जो सवाल उठाया है, उसे टालना उचित नहीं होगा। परिसीमन को लेकर अगर कोई संदेह है तो उसका प्रभावी समाधान होना ही चाहिए।

वर्ष 1956 में राज्यों का पुनर्गठन और उसके बाद राज्यों की सीमाएं तय हुई थीं। जहां तक दक्षिण के राज्यों और उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी की मांग का सवाल है तो प्रथम परिसीमन के बाद 1957 में हुए लोकसभा चुनाव के समय देश में लोकसभा की कुल 494 सीटें थीं, जिसमें दक्षिण के चार राज्यों की 128 सीटें थीं।

1962 के परिसीमन के बाद 1967 में लोकसभा की सीटें बढ़कर 520 हो गईं, लेकिन इन चार राज्यों की सीटें बढ़ने के बजाय घटकर 126 रह गईं। विशेषकर तमिलनाडु की सीटें 41 से घटकर 39 हो गईं। उस समय भी तमिलनाडु में विरोध हुआ था।

फिर 1972 के परिसीमन के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव के समय लोकसभा की सीटें बढ़कर 542 हुईं और दक्षिण के इन राज्यों की सीटों में मामूली वृद्धि हुई और वे 126 से बढ़कर 129 के आंकड़े पर पहुंच गईं।

दक्षिण की भावना को देखते हुए ही 2002 के परिसीमन में यह नीति बनी कि सीटें तो न बढ़ाई जाएं, लेकिन लोकसभा सीटों में जनसंख्या को इस तरह विभाजित करें कि न्यूनतम और अधिकतम का अंतर 10 प्रतिशत से ज्यादा न हो तथा कम से कम प्रशासनिक इकाई का विभाजन हो।

लोकसभा में प्रखंड और विधानसभा में पंचायत को प्राथमिक इकाई माना गया यानी जनसंख्या, प्रशासनिक इकाई और आवागमन को ध्यान में रखकर नया परिसीमन किया गया। हालांकि आज भी लोकसभा और विधानसभा की सीटों में जनसंख्या का वितरण समान ढंग से लागू नहीं है।

पूर्वोतर और पर्वतीय राज्यों में संख्या का वितरण और मैदानी क्षेत्र तथा घनी आबादी वाले राज्यों के लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या और मतदाताओं की संख्या में काफी अंतर है। अरुणाचल प्रदेश में कुल मतदाता 709697 हैं, लेकिन विधानसभा की सीटें 60 और लोकसभा की 2 सीटें हैं।

आगामी लोकसभा के परिसीमन पर स्टालिन के बयान के बाद तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष ने पीएम मोदी के वक्तव्य का उल्लेख करते हुए कहा कि परिसीमन के समय दक्षिणी राज्यों की भावनाओं का सम्मान किया जाएगा। अमित शाह ने इसकी पुष्टि कर दी। इसे देखते हुए संकीर्ण राजनीतिक कारणों से परिसीमन को लेकर लोगों को भड़काना उचित नहीं।

तमिलनाडु में एक समूह सदैव उत्तर-दक्षिण का विवाद खड़ा करता रहा है। कभी भाषा को लेकर तो कभी आर्य-अनार्य के मुद्दे पर। इन दिनों भाषा के मुद्दे पर भी स्टालिन अनावश्यक आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अब तो वह यह कुतर्क भी दे रहे हैं कि हिंदी उत्तर भारत की अनेक भाषाओं को हजम कर गई।

तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति पर भी विवाद उभारने का प्रयास हो रहा है। भारतीय भाषाओं के सम्मान के साथ ही उनके प्रति उदारता का लाभ सभी लोगों को मिलता है। दक्षिण में हिंदी के विस्तार ने ही स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के राष्ट्रव्यापी अवसर प्रदान किए हैं।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)