जागरण संपादकीय: परिसीमन में साधना होगा संतुलन, दक्षिण के राज्य कर रहे विरोध
नए परिसीमन में यह सुनिश्चित करना होगा कि बढ़ती जनसंख्या से लेकर विकास के प्रति गंभीरता का भी बराबर ख्याल रखा जाए। दक्षिणी राज्यों को आशंका सता रही है कि जनसंख्या नियंत्रण के उनके प्रयासों को नए परिसीमन को पलीता लग सकता है। इसी कारण इन राज्यों में विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे हैं। उत्तर-दक्षिण विभाजन की बहस के अलावा संभावित परिसीमन में और भी चुनौतियां हैं।
आदित्य सिन्हा। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में प्रतिनिधित्व का पैमाना अभी तक 1971 की जनगणना पर ही अटका हुआ है। इसके पीछे यही तर्क रहा कि जनसंख्या नियंत्रण में सफल रहे राज्यों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के स्तर पर संभावित नुकसान से बचाना।
हालांकि यह समयसीमा 2026 में समाप्त हो रही है और अब नए सिरे से परिसीमन प्रस्तावित है। इसे लेकर बहस भी शुरू हो गई है। दक्षिणी राज्यों को आशंका सता रही है कि जनसंख्या नियंत्रण के उनके प्रयासों को नए परिसीमन को पलीता लग सकता है। इसी कारण इन राज्यों में विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे हैं।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक प्रकार से इस अभियान की कमान भी संभाल रखी है। दक्षिण के अन्य राज्य भी उत्तर भारत के वर्चस्व को लेकर सशंकित होने के कारण उनके सुर में सुर मिला रहे हैं। ऐसे स्वरों को शांत करने के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वासन भी दिया है कि परिसीमन में दक्षिणी राज्यों के हितों पर कोई आघात नहीं होने दिया जाएगा।
भारतीय संविधान ने एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया की संकल्पना की थी, जिसमें प्रत्येक सांसद कमोबेश बराबर लोगों का प्रतिनिधित्व करे। संविधान के अनुच्छेद 81, 82 और 170(3) में यही व्यवस्था की गई है कि समय-समय पर सीटों का नए सिरे से परिसीमन किया जाए जिसमें जनसंख्या परिवर्तन के रुझान को अपेक्षित रूप से समायोजित किया जा सके। इस समय भारत का चुनावी मानचित्र 1971 की जनगणना पर अटका हुआ है, जब उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु की जनसंख्या में उतना अंतर नहीं था, जितना आज है।
उत्तर प्रदेश की जनसंख्या अभी 24 करोड़ से अधिक है जो तमिलनाडु से लगभग दोगुनी है, लेकिन उसकी लोकसभा सीटें अभी भी 1971 के स्तर पर ही हैं। क्या यह उचित है? यदि परिसीमन के लिए मौजूदा जनसंख्या पैमाना बनी तो तय है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में लोकसभा सीटें खासी बढ़ेंगी।
जबकि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में सीटें अपेक्षाकृत घटेंगी। स्वाभाविक है कि दक्षिणी राज्यों के लिए यह घाटे का सौदा होगा। उन्हें लगेगा कि बेहतर गवर्नेंस के बावजूद उन्हें दंडित किया जा रहा है? दशकों से उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन से जुड़े प्रयासों में भारी निवेश किया है, जिसने जनसंख्या वृद्धि को थामा है।
इसी बीच कई उत्तरी राज्यों में जन्मदर ऊंची बनी हुई है। इसके बावजूद उनकी राजनीतिक शक्ति बढ़ जाएगी। फिर सवाल उठेगा कि क्या लोकतंत्र में अक्षमताओं को पुरस्कृत किया जाता है? वैसे भी क्षेत्रीय क्षत्रप परिसीमन के मुद्दे को संघीय ढांचे के लिए अपने संघर्ष के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। तमिलनाडु और केरल की दलील है कि प्रतिनिधित्व की कसौटी केवल जनसंख्या न होकर विकास संबंधी उपलब्धियां और आर्थिक योगदान भी होनी चाहिए।
हैरानी की बात यह है कि इस समय ऐसी आवाजें शांत हैं, जो रह-रहकर ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का राग अलापती रहती हैं। साफ है कि ‘जितनी आबादी, उतना हक’ वाला उनका नारा भी सुविधावादी राजनीति से जुड़ा है।
उत्तर-दक्षिण विभाजन की बहस के अलावा संभावित परिसीमन की राह में और भी चुनौतियां हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है एससी-एसटी के लिए निर्धारित सीटों का समायोजन। उनके प्रतिनिधित्व में जनसांख्यिकीय बदलाव झलकना ही चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल है। ध्यान रखना होगा कि इस कवायद में राजनीतिक समीकरण न बिगड़ें।
एक और चुनौती शहरी-ग्रामीण असंतुलन के स्तर पर होगी। तेजी से हुए शहरीकरण से दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे शहरों में जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ गई है, लेकिन संसद में उनका प्रतिनिधित्व नहीं बदला है। क्या अपने आर्थिक महत्व के चलते शहरी केंद्रों को अधिक सीटें नहीं मिलनी चाहिए या ग्रामीण प्रतिनिधित्व को संरक्षण प्रदान कर सुनिश्चित किया जाए कि राजनीतिक गलियारों में उनकी आवाज कमजोर नहीं पड़ेगी?
शहरों में भारी पैमाने पर हुए पलायन ने स्थिति और जटिल बना दी है। कई शहरों में विस्थापित श्रमिकों की बड़ी आबादी है। ये श्रमिक काम तो शहरों में करते हैं, मगर इनमें से अधिकांश के वोट मूल स्थानों पर होते हैं। ऐसे में परिसीमन कुल आबादी के आधार पर हो या पंजीकृत मतदाताओं की संख्या पर, यह पहलू भी विभिन्न क्षेत्रों के बीच शक्ति संतुलन साधने में अहम भूमिका निभाएगा।
परिसीमन के परिदृश्य पर संभावित समाधानों एक सुझाव यही दिया जा रहा है कि अगले 30 वर्षों के लिए पुरानी व्यवस्था को ही यथावत कायम रखा जाए, ताकि जनसंख्या नियंत्रण में सफल रहे राज्यों को कोई खामियाजा न भुगतना पड़े। हालांकि इससे वह विसंगित कायम रह जाएगी, जहां कुछ सांसद अपने अन्य साथियों की तुलना में कहीं बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते रहेंगे।
एक समाधान यह भी हो सकता है कि लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ा दी जाए। इससे किसी क्षेत्र में सीटों की संख्या में कटौती किए बिना जनसंख्या को सही प्रतिनिधित्व भी मिल जाएगा। इससे किसी क्षेत्र में असंतोष भी नहीं भड़केगा। कुछ विशेषज्ञ जीडीपी योगदान, साक्षरता दर और गवर्नेंस सक्षमता जैसे कारकों को भी परिसीमन में महत्व देने की पैरवी कर रहे हैं। हालांकि यह काफी जटिल होगा और संभव है कि उत्तरी राज्यों में राजनीतिक वर्ग इसका विरोध करे।
परिसीमन संवेदनशील मुद्दा है, जिसे सुलझाने के लिए समग्र दृष्टिकोण चाहिए। इसमें सुनिश्चित करना होगा कि सभी राज्य और प्रमुख हितधारक सक्रिय सहभागिता के साथ किसी स्वीकार्य समझौते पर सहमत हों, जिसमें प्रतिनिधित्व, गवर्नेंस और क्षेत्रीय हितों का संतुलन साधा जा सके।
ऐसा संतुलन, जिसमें बढ़ती आबादी से लेकर विकास के प्रति गंभीरता का बराबर ख्याल रखा जाए। उसमें कोई स्वयं को राजनीतिक हाशिये पर न देखे और समान लोकतांत्रिक सहभागिता संभव हो सके। इस मुद्दे को संजीदगी से संभालना होगा, क्योंकि परिसीमन लोकतांत्रिक शुचिता बढ़ाने के साथ ही प्रत्येक मत के महत्व और संघीय सिद्धांतों के प्रति सम्मान का भी प्रतीक होगा।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)














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