[हृदयनारायण दीक्षित]। हिंदू-मुस्लिम सहअस्तित्व की समस्या बड़ी पुरानी और विकट है। इतनी कि गांधी जी तक इसके आगे हार गए। सांप्रदायिक दुराग्रह के कारण ही भारत विभाजन हुआ। विभाजन की त्रासदी के घाव पुराने होकर भी ताजे हैं। अब दुष्प्रचार हो रहा है कि मुसलमान भयाक्रांत हैं। इस बीच गुरुवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भगवत और भारतीय इमाम परिषद के अध्यक्ष डा. इमाम उमर अहमद इलियासी के बीच मुलाकात हुई। इलियासी इस भेंट से संतुष्ट और प्रसन्न रहे। संघ प्रमुख एक मदरसे में भी गए। उनका स्वागत वंदे मातरम् से हुआ।

भागवत दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाइ कुरैशी, एएमयू के पूर्व कुलपति जमीरुद्दीन शाह के अलावा शाहिद सिद्दीकी, सईद शेरवानी आदि महानुभावों से मिले हैं। तथ्य यही है कि हिंदुओं और मुस्लिमों के पूर्वज एक हैं। इतिहास एक, संस्कृति एक और राष्ट्र एक है। केवल मजहबी विश्वास भिन्न हैं। संविधान ने भी किसी संप्रदाय को पृथक घटक नहीं माना। उद्देशिका में ‘हम भारत के लोग’ लिखा है, तो भारत के लोगों से भारत का भय काल्पनिक है। इसीलिए परस्पर संवाद की भूमिका है। राष्ट्रीय समृद्धि के लिए संवाद आवश्यक है।

संवाद सभी वाद-विवाद का समाधान है। सतत संवाद से समाज की गतिशीलता बढ़ती है। भारत में संवाद की प्राचीन परंपरा रही है। ऋग्वेद में यम-यमी संवाद सहित तमाम संवादों के उल्लेख हैं। महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद है। उपनिषद आचार्य-शिष्य संवादों से भरे हैं। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के आरंभ में ‘आनवीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति चार विद्याएं बताई हैं। आनवीक्षिकी, सांख्य, योग और लोकायत दर्शन हैं। त्रयी वेद हैं। वार्ता लोकहितकारी है। वार्ता धान्य, पशु, स्वर्ण और ताम्र आदि खनिज पदार्थ देने वाली है।’ प्राचीन काल में संवाद की अनेक संस्थाएं थीं। वैदिक साहित्य में सभा और समिति के विवरण हैं। विद्वानों की गोष्ठियां संवाद का प्रमुख अवसर होती थीं। शास्त्रार्थ वस्तुतः संवाद थे। बौद्ध विद्वानों से शंकराचार्य के संवाद चर्चित हैं। यहां धर्म चर्चा का खुला परिवेश था। आस्था के प्रश्नों पर भी बहस थी।

संवाद के उद्देश्य सुस्पष्ट थे। पहला उद्देश्य सत्य का अनुसंधान और दूसरा उद्देश्य लोक मंगल था। संवाद का व्यवस्थित न्यायशास्त्र था। चरक संहिता में संवाद अनुशासन के सूत्र हैं। कहा गया है कि वक्ता जो बात सिद्ध करना चाहता है, उसे प्रतिज्ञा कहते हैं। वह प्रतिज्ञा को दृष्टांत आदि से सिद्ध करता है। इसे स्थापना कहा गया है। इसके विरोध में विपक्षी की प्रतिज्ञा प्रतिस्थापना है। संवाद के अंतिम निर्णय को सिद्धांत कहा गया है। स्थापना, प्रतिस्थापना और सिद्धांत ये तीन पारिभाषिक शब्द हैं।

जर्मन दार्शनिक हीगल ने द्वंद्ववाद के लिए थीसिस, एंटीथीसिस और सिंथेसिस शब्द प्रयोग किए हैं। इन्हें वाद, विवाद और संवाद कह सकते हैं। ज्ञान प्राप्ति के उपकरण चार ‘हेतु’ माने गए हैं। ये प्रत्यक्ष, अनुमान, ऋषिवचन और उपमान हैं। यहां सत्य की परिभाषा है कि यथार्थ ही सत्य है। सत्य सामूहिक होता है और झूठ व्यक्तिगत। प्रत्यक्ष ज्ञान दो तरह का होता है। सुख-दुख आदि का ज्ञान मन से तो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का ज्ञान इंद्रियों से होता है। संवाद के ये सूत्र उपयोगी हैं।

अल्पसंख्यकवाद सांप्रदायिक राजनीति का तुष्टीकरण है। अंतरराष्ट्रीय अर्थ में भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है। युद्ध आदि कारणों से किसी राज्य क्षेत्र के निवासियों की सहमति के बिना राज्य क्षेत्र में परिवर्तन होते हैं। ऐसे समुदायों की अस्मिता की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय चार्टर और राष्ट्रीय संविधानों में रक्षोपाय किए गए, लेकिन मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में अल्पसंख्यकों पर कोई उपबंध नहीं है। भारत में युद्ध आदि कारणों से विवश जनसमूह नहीं हैं।

तब भी संविधान निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों के लिए विशेष रक्षोपाय किए, मगर मजहबी अल्पसंख्यकवाद की राजनीति ने अलगाववाद बढ़ाया। संविधान सभा ने अल्पसंख्यकों की सुविधा के लिए अल्पसंख्यक अधिकार समिति बनाई थी। सरदार पटेल इसके सभापति थे। समिति की रिपोर्ट पर अगस्त 1947 और 1949 में बहस हुई। पीसी देशमुख ने कहा, ‘इतिहास में अल्पसंख्यक से क्रूरतापूर्ण शब्द कोई नहीं है। अल्पसंख्यकवाद के कारण देश बंट गया।’ आयंगर ने कहा, ‘मैं अल्पसंख्यक शब्द ही नहीं पसंद करता।’

संविधान सभा के उपाध्यक्ष एचसी मुखर्जी ने कहा कि हम एक राष्ट्र चाहते हैं और मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक मान्यता नहीं दे सकते। तजम्मुल हुसैन ने कहा, 'हम अल्पसंख्यक नहीं हैं। यह शब्द अंग्रेजों का है। वह चले गए। अब इस शब्द को डिक्शनरी से हटा देना चाहिए।' पं. नेहरू ने पंथ आधारित अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वर्गीकरण को गलत बताते हुए कहा कि हिंदू-मुस्लिम सहअस्तित्व के लिए अल्पसंख्यकवाद की राजनीति की समाप्ति जरूरी है।

संविधान में अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा नहीं है, मगर तुष्टीकरण की राजनीति ने इसे केंद्र में ला दिया। इसी कारण पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। तुष्टीकरण की इसी राजनीति से गंगा-जमुनी तहजीब शब्द निकला, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो एक है। आखिर संविधान से परे किसी संप्रदाय के तुष्टीकरण का क्या औचित्य है। मुस्लिम समुदाय के शिक्षित महानुभावों को इस पर विचार करना चाहिए। बार-बार भयग्रस्त बताना निरर्थक है। इसका एकमात्र विकल्प संवाद ही है।

सरसंघचालक के मुस्लिम दिग्गजों से संवाद में गौ संवर्धन पर चर्चा हुई। यह विषय राज्य के नीति निदेशक तत्वों में शामिल है। गो संरक्षण भारतीय संस्कृति में राष्ट्रीय कर्तव्य है। कई राज्यों ने गोवध निषेध कानून बनाए हैं। गोहत्या पर एक वर्ग के विचार दुराग्रही हैं, जो सुनियोजित लगते हैं।

ऐसे दुराग्रह मूर्ति पूजा को लेकर भी हैं, जिनके भग्नावशेष ध्वस्त मंदिरों के रूप में दिखते हैं। क्या ऐसे दुराग्रहों को भी संवाद से बदला जा सकता है? संवाद के मार्ग की उपयोगिता पर संदेह करना व्यर्थ है। सरसंघचालक का संवाद भी आशा का संचार करने वाला है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)