विचार: एकता की मिसाल हैं भारतीय भाषाएं, यही राष्ट्र को 'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' बनाती है
भारतीय भाषाओं में मूलभूत एकता भी रही है। तमिल और उर्दू को छोड़कर भारत की लगभग सभी भारतीय भाषाओं का जन्मकाल लगभग समान ही है। विकास के चरण भी प्राय समान ही हैं। साहित्यिक पृष्ठभूमि प्रायः समान है। संत काव्य की समान प्रवृत्ति है। प्रेमाख्यान काव्य की एक जैसी परंपरा है। स्त्री एवं दलित संवेदना एक जैसी है।
सुरेंद्र दुबे। भाषा केवल संवाद का ही माध्यम नहीं है, वरन संस्कृति की वाहक भी है। भारत एक बहुभाषी देश है। पूर्व से पश्चिम तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण राष्ट्र में सहस्रों भाषाएं बोली जाती हैं। भोजपुरी में एक कहावत है- 'कोस कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी' अर्थात दो-दो मील पर पानी में बदलाव आ जाता है और छह-छह मील पर भाषा-बोली बदल जाती है, परंतु पानी के स्वाद-गुण और भाषा के भाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
भारतवर्ष की सभी भाषाएं एक ही परिवार की शाखाएं हैं और इसीलिए उनके भीतर एक सांस्कृतिक भाव की स्रोतस्विनी प्रवाहित है, जो इस राष्ट्र को 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' बनाती है। गुलामी काल में अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति को बल देने के लिए पाश्चात्य भाषा विज्ञानियों ने भाषा परिवार की एक मिथ्या कल्पना पर आधारित अवधारणा प्रस्तुत की।
उन्होंने 'आर्य समस्या' जैसी एक कृत्रिम समस्या को जन्म दिया। इसके मूल में उनकी यह दुरभिसंधि थी कि प्राचीन संस्कृत (छंदस्) की प्राचीनता को प्रश्नांकित करते हुए भारत की भाषाओं को अनेक भाषा-परिवारों से उत्पन्न बताया जाए और इसमें वे सफल भी रहे। यहां तक कि ‘आर्य’ शब्द को जर्मन फासीवाद से भी जोड़कर देखा गया।
भारत में आर्यों के आगमन की कृत्रिम अवधारणा अनुमान, अटकल या प्रतीति के आधार पर रची गई। ऐसा करने वालों के पास इस प्रश्न का कोई सटीक उत्तर नहीं रहा है कि भारत आने के पूर्व इन कथित आर्यों का मूल निवास कहां रहा और वहां से दो दिशाओं में बिखराव का कारण क्या रहा? वैदिक साहित्य में उस मूल स्थान की चर्चा क्यों नहीं है?
वस्तुतः अंग्रेजों को यह स्थापित करना था कि भारत में सभी जन, द्रविड़, आर्य आदि सभी बाहर से आए हैं, अतः हमारे आने में कोई विशेष समस्या नहीं है। यह भूमि ही आप्रवासियों से बनी है। अंग्रेजों और उनके भारतीय मानसपुत्रों ने भी इस कृत्रिम अवधारणा के आधार पर एक अज्ञात 'प्रोटो इंडो यूरोपियन' नाम की भाषा की कल्पना की और संस्कृत को 'इंडो आर्यन' नाम दे दिया।
उन्होंने संस्कृत से लेकर फारसी, ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि भाषाओं को कतिपय शब्द साम्य के आधार पर 'इंडो यूरोपियन' भाषा माना तथा शेष भारतीय भाषाओं को अन्य कल्पित भाषा परिवार से उत्पन्न बताने के लिए 'आर्य-द्रविड़ जैसे षड्यंत्रकारी प्रत्यय को विकसित किया। भाषा परिवार की इसी षड्यंत्रकारी अवधारणा ने कुछ राजनीतिज्ञों को अपनी रोटी सेंकने का अवसर दे दिया है। अगर शब्द साम्य ही 'भारोपीय परिवार' की कल्पना का आधार है तो ऐसे हजारों शब्द हैं, जो आज भी अनेक भारतीय भाषाओं में व्यवहृत होते हैं।
'दिनं’ शब्द संस्कृत, पंजाबी, मराठी (दिवस), गुजराती, नेपाली, बांग्ला, असमिया, उड़िया, डोगरी, बोडो आदि में ज्यों का त्यों प्रयुक्त होता है। 'राष्ट्र’ शब्द संस्कृत, सिंधी, मराठी, कोंकणी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, संथाली आदि में उपस्थित है। 'प्रेम' शब्द संस्कृत, पंजाबी, कश्मीरी, सिंधी, मराठी, गुजराती, कोंकणी, नेपाली, बांग्ला, असमिया, उड़िया, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, मैथिली आदि भाषाओं में जस का तस प्रयोग में आता है। 'देवता' शब्द संस्कृत, पंजाबी, सिंधी, मराठी, गुजराती, नेपाली, उड़िया, तेलुगु (देवत), तमिल (देवतै), मलयालम (देवत), कन्नड़ (देवते), डोगरी, संथाली आदि भाषाओं में या तो ज्यों का त्यों या कतिपय परिवर्तनों के साथ प्रयुक्त होता है।
अगर शब्द साम्य के आधार पर संस्कृत और अवेस्ता या लैटिन एक परिवार की भाषाएं हैं तो तमिल और हिंदी क्यों नहीं? तमिल शब्द चटै (वेणी) हिंदी में चोटी है। तमिल शब्द परै (पक्षी) हिंदी में है। ऐसे सैकड़ों शब्द हैं। वस्तुतः आर्य और द्रविड़ भाषाओं में तात्विक अभेद है।
इसका विकास भारतीय परिवेश में ही हुआ और इन्हीं में भारत की ज्ञान परंपरा और संस्कृति संरक्षित है। वास्तव में भारतीय भाषाओं में संस्कृति और विचारों की एकध्येयता रही है। उस एकध्येयता का सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि हर भारतीय भाषा ने रामायण और महाभारत से प्रेरणा ग्रहण की।
भारतीय भाषाओं में मूलभूत एकता भी रही है। तमिल और उर्दू को छोड़कर भारत की लगभग सभी भारतीय भाषाओं का जन्मकाल लगभग समान ही है। विकास के चरण भी प्राय: समान ही हैं। साहित्यिक पृष्ठभूमि प्रायः समान है। संत काव्य की समान प्रवृत्ति है। प्रेमाख्यान काव्य की एक जैसी परंपरा है। स्त्री एवं दलित संवेदना एक जैसी है।
सभी भारतीय भाषाओं में सहकार और अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। राधाकृष्णन ने ठीक कहा था कि भारतीय साहित्य एक है, जो कई भाषाओं में लिखा जाता है। 'भाषाएं अनेक, भाव एक' की अवधारणा को स्थापित करके ही विकसित भारत की नींव मजबूत की जा सकती है।
इसके लिए परिवारमूलक भाषाभेद की पाश्चात्य अवधारणा को नकारते हुए भारतीय भाषा परिवार की सही और सार्थक अवधारणा को विकसित करने की आवश्यकता है। हिंदी का तमिल, कन्नड़, मराठी या बांग्ला से कोई विरोध नहीं।
भारत की सभी भाषाएं परस्पर पूरक और अंत: क्रियात्मक हैं, इसलिए आज आवश्यकता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा को सशक्त करने के लिए भाषा परिवार की पाश्चात्य षड्यंत्रकारी अवधारणा को तर्क पूर्ण ढंग से निरस्त किया जाए और भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए भारतीय भाषाओं की भूमिका को स्थापित किया जाए।
(लेखक केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष और साहित्यकार हैं)
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