विमल मिश्र। जयंत नार्लीकर मुश्किल से 10 वर्ष के रहे होंगे। पिता विष्णु वासुदेव नार्लीकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा कायम काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। घर में देश की जानी-मानी विभूतियों का अनवरत तांता लगा ही रहता था। ऐसे में एक दिन डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (भारत के पूर्व राष्ट्रपति) का भोजन के लिए घर आना हुआ, जो उन दिनों विश्वविद्यालय के कुलपति थे। बालक जयंत ने आदि शंकराचार्य के दसः श्लोकी स्तोत्र से सस्वर गायन से उन्हें विस्मय विमुग्ध कर दिया।

विदुषी माता सुमति की संस्कृत शिक्षा से देश के सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में आचार्य नरेंद्र देव के हाथों ‘गीता पुरस्कार’ जीतने वाले यही जयंत नार्लीकर खगोल भौतिक विज्ञानी के रूप में विश्व के सबसे प्रसिद्ध कैंब्रिज विश्वविद्यालय से एस्ट्रोफिजिक्स में नामी टायसन पदक एवं एस-सीडी उपाधि हासिल करने के साथ गुरुत्वाकर्षण के विश्व प्रसिद्ध ‘हायल-नार्लीकर सिद्धांत’ के प्रतिपादक भी बने।

कौन जानता था कि आगे चलकर वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के ढेर लगाने के साथ वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ और साहित्यिक उपलब्धि के लिए शिखर ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार के भी विजेता होंगे और ऐसे पहले विज्ञानी भी बनेंगे, जिन्हें एक मशहूर साहित्यिक सम्मेलन की अध्यक्षता का गौरव भी हासिल होगा। डा. जयंत नार्लीकर के आकस्मिक निधन से देश अपने एक बड़े सपूत से वंचित हो गया है।

डा. जयंत नार्लीकर को सामान्य देशवासी अंग्रेजी, हिंदी और मराठी में कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से रचे गए उनके विपुल विज्ञान साहित्य के लिए भी भुला नहीं पाएंगे। अपने लिखे के दम पर नार्लीकर ने भारत के सर्वश्रेष्ठ विज्ञान कथा और विज्ञान से जुड़े लेखक के रूप में भी अपने नाम का शुमार करवाया। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के खतरों की तो सुनी होगी, पर ‘ग्लोबल कूलिंग’! उनकी ‘दि आइस एज कमेथ’ की शुरुआत ही भारतीय वैज्ञानिक प्रो. वसंत चिटणीस की भविष्यवाणी से होती है कि ‘लघु हिम युग’ भारत को तबाह करने, बस आने ही वाला है।

‘बनारस माइनस दस, कोलकाता माइनस तीन, दिल्ली माइनस बारह और श्रीनगर माइनस बीस- देख लेना, दस साल के भीतर मुंबई में बर्फ पड़ेगी’- वे कहानी के जर्नलिस्ट नायक राजीव शाह से शर्त बदते हैं। ... और यह नौबत पांच साल के भीतर आ जाती है। गर्म देश भारत बर्फ की गहरी चादर के नीचे ढक जाता है। उनकी ‘रिटर्न आफ वामन’ की कहानी भौतिक शास्त्री, कंप्यूटर विज्ञानी और पुरातत्ववेत्ता - इन तीन लोगों के गिर्द घूमती है, जो एक खास तरह का क्यूब खोलने के बाद उसमें पाते हैं एक सुपर कंप्यूटर बनाने का राज। ‘वायरस’ में बताया गया है कि किस तरह एक कंप्यूटर वायरस दुनिया की सरकारों का सिरदर्द बन जाता है। उनकी एक अन्य रचना टाइम मशीन पर है, जिसमें लोग समय को मात देते नजर आते हैं।

नार्लीकर ने सैद्धांतिकी, भौतिकशास्त्र, खगोल-भौतिकी और विश्व-रचनाशास्त्र पर ढेरों ग्रंथ और शोध निबंध लिखे हैं, पर आम पाठकों तक उन्हें पहुंचाया है उनकी चुटीली विज्ञान कथाओं ने ही। उनके लेखन के मुरीद आज इस बात पर आश्चर्य करेंगे कि इसकी शुरुआत उन्होंने ‘घोस्ट रायटिंग’ से की होगी। उद्देश्य था बस एक, साइंस कम्युनिकेटर के रूप में आम भारतीयों की विज्ञान विषय से दोस्ती कराना, जो सिर्फ आसान शिल्प और भाषा में ही हो सकता था।

इसका चाव उनमें जगाया कैंब्रिज में उनके मेंटार और सुपरवाइजर साइंटिस्ट फ्रेड हायल ने। मराठी विज्ञान परिषद साइंस फिक्शन कांपिटिशन उन दिनों होने को था। नार्लीकर ने इसमें प्रविष्टि तो भेजी, पर इस डर से कि विज्ञानी के रूप में उनकी ख्याति कहीं पक्षपात का कारण न बन जाए। अपना पेन नेम रखा नारायण विनायक जगताप और हैंडराइटिंग पहचान न लिए जाने के डर से कहानी लिखवाई अपनी पत्नी मंगला से। कहानी को मिले पहले पुरस्कार ने उन्हें साइंस फिक्शन लिखने का विश्वास मिला और भारतीय पाठकों को मिला एक उत्कृष्ट विज्ञान लेखक। टीवी पर आने वाला उनका हिंदी धारावाहिक ‘कास्मोस’ बहुत लोकप्रिय हुआ।

उनकी किताबों में कइयों को पुरस्कार मिले। पर इनमें सर्वश्रेष्ठ साहित्य अकादमी पुरस्कार अभी मिलना बाकी था, जो उन्हें मिला बनारस, कैंब्रिज विश्वविद्यालय, मुंबई और पुणे शहर में गुजारे उनके जिंदगी के सफर का बयान करती उनकी पुस्तक ‘नगरों की मेरी दुनिया’ पर, जो नार्लीकर के जीवन से जुड़ी किताब है। शायद वे अकेले वैज्ञानिक थे, जिन्हें महाराष्ट्र के बड़े साहित्यिक कार्यक्रम अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की जिम्मेदारी सौंपी गई।

डा. जयंत नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई, 1938 के दिन कोल्हापुर में हुआ। उनके गांव के घर के पिछवाड़े में आम का पेड़ हुआ करता था, जिसके फल नारियल जितने बड़े हुआ करते थे, संभवतः इसीलिए नाम मिला नार्लीकर। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बीएससी करने के बाद नार्लीकर इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए, जहां गणित में डिग्री लेने के साथ उन्होंने एस्ट्रोफिजिक्स और एस्ट्रोलाजी में दक्षता प्राप्त की।

ब्रह्मांड के स्थिर अवस्था सिद्धांत के विशेषज्ञ बने, और आइंस्टीन के आपेक्षिकता सिद्धांत और माक सिद्धांत को मिलाते हुए अपने वरिष्ठ मार्गदर्शक फ्रेड हायल के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण के विश्वप्रसिद्ध ‘हायल-नार्लीकर सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया, जिसे आज तक खगोल-भौतिकी के हर ग्रंथ में उद्धृत किया जाता है।

अपनी स्कूली पढ़ाई हिंदी माध्यम से पूरी करने वाले नार्लीकर को हिंदी से बहुत प्रेम था। वे स्कूली शिक्षा में मातृभाषा के स्थान पर अंग्रेजी के प्रयोग को गलत मानते थे। उनका कहना था कि आकलन पर जोर देने के लिए शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए और अंग्रेजी को सिर्फ दूसरी भाषा के तौर पर सिखाया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)