जागरण संपादकीय: चीन पर भरोसा न करे भारत, दोस्ती की अपेक्षा काल्पनिक ही बनी रहेगी
भारत-चीन वार्ता के दौर सीमा पर उल्लंघित नियमों को बहाल करने में कमोबेश मददगार हो सकते है लेकिन भू-राजनीतिक स्तर पर मैत्रीपूर्ण संबंध की संभावना दूर की कौड़ी है। जब तक चीन भारत के महाशक्ति बनने में अड़चनें डालता रहेगाउससे दोस्ती की अपेक्षा काल्पनिक बनी रहेगी।कूटनीतिक बैठकों के समानांतर भारत को अपनी सैन्य तैयारियों और क्षमताओं को उन्नत करते हुए चीन से सतर्क रहने की नीति पर ही चलना होगा।
श्रीराम चौलिया। पांच वर्षों के अंतराल के बाद भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों के बीच उच्चस्तरीय वार्ता के बाद द्विपक्षीय संबंधों में नरमी के संकेत मिले। इस वार्ता में भारत की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन की ओर से विदेश मंत्री वांग यी शामिल हुए।
वार्ता की यह पहल पूर्वी लद्दाख और अक्साई चिन सीमा पर 2020 से चले आ रहे सैन्य टकराव को सुलझाने के पश्चात आरंभ की गई है। उस समझौते के तहत चीन ने विवादित क्षेत्रों से अपनी सेना को पीछे हटाया है, जहां उसने भारतीय सेना को गश्त करने से रोका था। सैन्य निकासी के अलावा चीन ने आश्वासन दिया है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के ‘मूल हितों और प्रमुख सरोकारों को समझते हुए और ईमानदारी एवं सद्भावना के साथ मतभेदों को सुलझाने के लिए तैयार हैं।’
कूटनीतिक सरगर्मियों के मद्देजनर अहम सवाल यही है कि क्या चीन का भारत के प्रति वाकई कोई हृदय परिवर्तन हुआ है और अगर ऐसा हुआ है तो इसका कारण क्या है? बीते 12 वर्षों से चीन पर राज करते हुए तानाशाह राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मंशा पर ध्यान दें तो यह असंभव है कि उन्होंने एशिया और विश्व में चीन के वर्चस्व और विस्तारवाद का सपना रातोंरात त्याग दिया है।
‘प्रमुख देश कूटनीति’ नामक उनकी अवधारणा के अनुसार चीन कभी भी अपने ‘वैध अधिकारों और हितों’ को नहीं छोड़ेगा और पड़ोसी देशों के साथ विवादों में अपनी शक्ति एवं श्रेष्ठता के बलबूते हावी रहेगा। भारत के अलावा एक दर्जन से अधिक देशों के साथ चीन के अनसुलझे क्षेत्रीय विवाद हैं और इन सभी के प्रति शी के शासन में चीन ने दबंग व्यवहार अपनाकर धौंस देना जारी रखा है।
‘ग्रे जोन’ और ‘सलामी स्लाइसिंग’ रणनीतियों का उपयोग करते हुए चीन ने पड़ोसियों पर सैन्य एवं आर्थिक दबाव डालकर यही चेष्टा की है कि कमजोर देशों पर चीन की इच्छा थोपी जाए। उनके अतिराष्ट्रवादी ‘चीनी स्वप्न’ का लक्ष्य एशिया में उस पुराने साम्राज्यवादी युग को पुनः स्थापित करना है, जहां चीन का कथित तौर पर प्रभुत्व था और पड़ोसियों को बीजिंग में सम्राट के सामने झुककर प्रणाम करना पड़ता था।
शी जैसे कट्टर निरंकुश नेता का इतने भव्य एवं महत्वाकांक्षी स्वप्न को भुला देना नामुमकिन है। चीन को केवल महाशक्ति बनाना ही नहीं, बल्कि अमेरिका को पछाड़कर विश्व की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित करने और चीनी मूल्यों पर आधारित नई विश्व व्यवस्था कायम करने जैसे लक्ष्यों को साधने के लिए वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ने वाले। हालांकि उनकी यह राह आसान नहीं।
अमेरिका और उसके सहयोगी देश भी चीन की इस राह में कांटे बिछाने के लिए पुरजोर प्रयास करेंगे। यह कोई संयोग नहीं है कि चीन ने भारत समेत जिन एशियाई देशों के साथ स्थलीय और समुद्री सीमाओं से जुड़े विवाद नहीं निपटाए, उनकी अमेरिका के साथ गलबहियां बढ़ी हैं। असल में चीन को संतुलित करने की दृष्टि से ही इन देशों का झुकाव अमेरिका की ओर बढ़ा है, जिससे चीन और चिढ़ता है।
चीन यह चाहता है कि सीमाओं पर दबाव घटाने के बदले पड़ोसी देश अमेरिका से किनारा करें या अमेरिका के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके लिए मुश्किलें पैदा न करें। इसका अर्थ है कि पड़ोसियों को अपनी विदेश नीति स्वतंत्रता और सामरिक स्वायत्तता को सीमित करना होगा और चीनी प्रभुत्व वाली क्षेत्रीय व्यवस्था को स्वीकार करना होगा। इस प्रकार की शर्त किसी भी स्वाभिमानी देश विशेषकर भारत जैसी उभरती महाशक्ति को कतई स्वीकार्य नहीं हो सकती।
अजीत डोभाल और वांग यी के बीच हालिया वार्ता विवादित ‘सीमा प्रश्न’ पर विशेष प्रतिनिधियों की 23वीं बैठक है और यह सिलसिला बिना किसी अंतिम सहमति के वर्ष 2003 से निरंतर जारी है। इसके अतिरिक्त, ‘सीमा मामलों पर परामर्श और समन्वय के लिए कार्य तंत्र’ की 2012 से अब तक 32 बैठकें हो चुकी हैं।
इनमें भाग लेने वाले भारतीय वार्ताकारों और राजनयिकों का मानना है कि चीन इस विवाद को हमेशा के लिए समाप्त करने का इच्छुक नहीं दिखता और वह भारत की ओर से प्रस्तुत किए गए मानचित्रों की बारीकियों में भी नहीं जाता। चीन लगातार थकाऊ वार्ताओं के माध्यम से संघर्ष को प्रबंधित करने का प्रयास करता है, परंतु अपने क्षेत्रीय दावों को नहीं छोड़ता।
वर्ष 2020 में गलवन घाटी में मुठभेड़ और उसके बाद करीब साठ हजार सैनिकों एवं भारी-भरकम हथियारों की तैनाती चीन को खासी महंगी पड़ी। भारतीय सेना ने जिस मुस्तैदी के साथ जवाबी कार्रवाई की और अतिरिक्त चीनी घुसपैठ के लिए सभी रास्ते बंद कर दिए, उसने शी की चिंताएं बढ़ा दी थीं।
अमेरिका के साथ भारत की सामरिक साझेदारी भी बीते कुछ वर्षों के दौरान जिस प्रकार मजबूत होती गई, उसने भी चीन के माथे पर बल डालने का काम किया। डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिकी सत्ता में वापसी और उनके द्वारा छेड़े जाने वाले संभावित व्यापार युद्ध और सैन्य चुनौती भी शी की आशंका का कारण है-इसलिए और भी, क्योंकि चीन की आर्थिक वृद्धि सुस्त पड़ गई है। ऐसे में, भारत के प्रति नरम रवैये का प्रदर्शन कर शी चीन के लिए थोड़े समय के लिए सामरिक राहत की खोज में होंगे।
देपसांग और देमचोक से चीनी सेना की वापसी शी की नाकामी का परिचायक है, लेकिन यह ध्यान रहे कि उनके जैसे महत्वाकांक्षी तानाशाह आसानी से हार नहीं मानते। चीन भारत को झुकाने का इरादा तब तक मन में रखेगा, जब तक वह आश्वस्त न हो जाए कि भारत अमेरिका के संग मिलकर उसकी घेराबंदी करना नहीं छोड़ता।
चूंकि अमेरिका की मित्रता भारत के उत्थान के लिए अनिवार्य है, इसलिए चीन के साथ भारत की अनबन और प्रतिस्पर्धा में कमी की अपेक्षा अवास्तविक है। भारत-चीन वार्ता के दौर सीमा पर उल्लंघित नियमों को बहाल करने में कमोबेश मददगार हो सकते है, लेकिन भू-राजनीतिक स्तर पर मैत्रीपूर्ण संबंध की संभावना दूर की कौड़ी है। जब तक चीन भारत के महाशक्ति बनने में अड़चनें डालता रहेगा, उससे दोस्ती की अपेक्षा काल्पनिक बनी रहेगी। कूटनीतिक बैठकों के समानांतर भारत को अपनी सैन्य तैयारियों और क्षमताओं को उन्नत करते हुए चीन से सतर्क रहने की नीति पर ही चलना होगा।
(लेखक जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)
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