प्रणय कुमार। संकट काल में ही किसी राष्ट्र, समाज और व्यक्ति के वास्तविक चरित्र का परिचय मिलता है। भारतीय सेना एवं नेतृत्व ने जिस साहस से पाकिस्तान के दुःसाहस एवं आतंकी कुकृत्यों का प्रत्युत्तर दिया, वह न केवल सराहनीय, बल्कि गर्वित करने वाला भी है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले में निर्दोष लोगों के मारे जाने से देश का आम जनमानस क्षुब्ध था। उसमें प्रतिशोध का भाव था।

दुनिया जानती है कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व के ठीक बाद से ही आतंकवाद का पोषक देश रहा है। भारत ने उसे सबक सिखाने के लिए ही उस पर ऐसा करारा प्रहार किया कि वह बिलबिला कर रह गया। उसने हमारे निर्दोष पर्यटकों को मारा, भारत ने उसके आतंकी ठिकानों को उसके घर में घुसकर ध्वस्त किया। यह तो समय की वह मांग थी, जो हर हाल में पूरी होनी चाहिए थी। हमारी सरकार और सेना ने इसे पूरा किया, जबकि हम जानते हैं कि मुंबई हमले के बाद हमने कैसे कुछ न करने को ही अपनी नीति अपनाई और उसके नतीजे में दब्बू कहलाए।

इसके चलते ही पाकिस्तान का दुःसाहस और बढ़ा। शौर्य के अप्रतिम सैन्य अभियान ऑपरेशन सिंदूर में अपने आतंकी अड्डों के तबाह होने से बौखलाए पाकिस्तान ने जब भारत पर ड्रोन हमले शुरू किए तो भारतीय सेना ने उसे बताना शुरू किया कि अब उसकी खैर नहीं। ऐसे ही समय कथित नकली शांतिप्रेमियों एवं उदारवादियों का एक समूह सक्रिय हो उठा। वह शांति का राग अलापने लगा और ‘से नो टू वार’ की दुहाई देने लगा। वह हमास सरीखी दुष्ट पाकिस्तानी सेना को सबक सिखाने की जरूरत जताने के बजाय भारत को तनाव कम करने की नसीहतें देने में जुट गया। उसे अचानक युद्ध से होने वाली तबाही याद आने लगी।

जो पहलगाम हमले को लेकर भारत सरकार को कुछ बड़ा-कड़ा कदम उठाने के लिए कह रहे थे, वही अचानक संयम की सीख देने लगे। उन्हें पहलगाम के पीड़ित भूलकर पाकिस्तान के आम नागरिक याद आने लगे। ऐसे लोगों की संवेदनाएं सेलेक्टिव क्यों होती हैं? यह स्मरण रहे कि अतीत में भारत ने विदेशी आक्रांताओं अथवा परायों से उतना नुकसान नहीं उठाया, जितना अपनों की किंकर्तव्यविमूढ़ता और विपरीत हालात का डटकर सामना न करने की प्रवृत्ति से। क्या यह सत्य नहीं कि अंग्रेजों ने भारत के विरुद्ध ऐसी कोई लड़ाई नहीं जीती, जिसमें भारतीय सिपाही सम्मिलित नहीं थे?

उन सिपाहियों की तो फिर भी कोई मजबूरी रही होगी, पर आज के हमारे ढोंगी लिबरल तबके के सामने तो कोई मजबूरी नहीं थी। आखिर उसने देशहित को सर्वोपरि क्यों नहीं रखा? सामने खड़े शैतान प्रवृत्ति के दुश्मन को सबक सिखाने के समय शांति की बातें करना एक तरह से सेना का मनोबल कमजोर करना नहीं तो और क्या है?

ऐसे तत्वों की समस्या यही है कि जैसे ही आतंकिस्तान यानी पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की कड़ी प्रतिक्रिया आती है, तो इन्हें सूक्तियां और शायरी याद आने लगती हैं। इन सुविधावादी लिबरल तत्वों और छद्म शांतिप्रेमियों को कोई समझाए कि वे जिस कथित स्वतंत्रता, उदारता, पंथनिरपेक्षता की डफली बजाते रहते हैं, उसकी छूट भारत में ही है, पाकिस्तान में नहीं। ऐसे कथित लिबरल और मौकापरस्त तत्वों को याद रखा जाना चाहिए और उन्हें बेनकाब करने के साथ उनसे आगे सावधान भी रहना चाहिए।

स्मरण रहे कि युद्ध में जय बोलने वालों का भी अपना महत्व होता है। आम भारतीय इसे भलीभांति समझते हैं। इसीलिए वे संकट के समय सेना, सरकार और नेतृत्व का मनोबल बढ़ाना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। उन्हें विश्वास रहता है कि सेना और सरकार सभी चुनौतियों से निपटने में सक्षम होगी। इसे हमारी सेना ने साबित भी करके दिखाया। उसने पाकिस्तान के सचमुच पसीने छुड़ा दिए और इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं। उसके ध्वस्त एयरबेस सारी कहानी खुद ही कह रहे हैं।

हर राष्ट्र के जीवन में छोटे-बड़े युद्ध आते-जाते हैं। युद्ध से बचने या पलायन करने वाले राष्ट्र का न तो वर्तमान होता है, न भविष्य। भारतीयों को यह अच्छे से ज्ञात होना चाहिए कि भारत बुद्ध का देश भी है और युद्ध का भी। हम शक्ति के उपासक हैं, क्योंकि साहस मनुष्य के सभी गुणों का वाहक होता है। महाभारत और रामायण वीरता के भी ग्रंथ हैं। गीता का तो एक बड़ा संदेश युद्ध से पलायनोन्मुखी पार्थ को स्वत्व, स्वाभिमान और स्वधर्म की रक्षा के लिए प्रेरित करना है।

श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे लोकनायक हैं। उन्होंने युद्ध में भीरुता नहीं दिखाई, दुष्टों का संहार किया और सज्जनों की रक्षा की। इसीलिए वे हमारे आदर्श हैं। जब राष्ट्र युद्धरत हो, शत्रु द्वार पर खड़ा हो, हमें मिटाने पर तत्पर हो, तब शांति और मानवता की एकतरफा दुहाई देना और “से नो टू वार” जैसे अभियान चलाना संशय, अविश्वास का वातावरण निर्मित करना है। धर्म और अधर्म के संघर्ष की निर्णायक घड़ी में पलायनवादी विचार केवल आत्मघाती ही होते हैं।

हमें पता होना चाहिए कि दुनिया में ऐसे कई समाजों का नामोनिशान मिट गया। जागृत राष्ट्र युद्ध से भागता नहीं, अपितु आवश्यकता पड़ने पर अपने पुरुषार्थ से राष्ट्र का भाग्यलेख लिखता है। शांति की कामना करना और युद्ध से बचने की सलाह देना बुरा नहीं, परंतु इसका अंतिम निर्णय सेना, सरकार और नेतृत्व पर छोड़ना चाहिए, न कि मानवतावादी होने का मुखौटा लगाकर उस पर परोक्ष दबाव बनाना चाहिए। युद्ध सरीखे हालात में शांति की मशाल उठाना अपने विनाश को निमंत्रण देना है।

(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)