विकास सारस्वत। मंदिर-मस्जिद मामलों से जुड़े उपासना स्थल अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार है। उसे प्रतीक्षा है इस अधिनियम पर केंद्र सरकार के जवाब की। केंद्र के जवाब से पहले कांग्रेस ने अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं के विरोध में कहा कि इस कानून में कोई बदलाव ठीक नहीं होगा।

इसके पहले संभल प्रकरण के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पर मंदिर-मस्जिद मुद्दों के उठाए जाने को अनावश्यक बताया था। इन मुद्दों के हिंदुओं की नेतागीरी का माध्यम बनने पर चिंता व्यक्त करते हुए संघ प्रमुख ने कहा था कि तिरस्कार और शत्रुता के लिए हर रोज नए प्रकरण निकालना ठीक नहीं है।

देश की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के पुनरुत्थान में संघ का योगदान अतुलनीय है और सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन होने के नाते संघ प्रमुख की अपील बहुत मायने रखती है। संगठन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अलावा भारतीय चित्त के मूल विचार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को फिर से राजनीतिक मुख्यधारा में प्रस्थापित करने का श्रेय संघ को ही जाता है।

जिस हिंदुत्व को संघ अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा मानता है, वह सर्वसमावेशी समाज, उदारवाद और विश्व कल्याण की कल्पना पर आधारित है। संघ प्रमुख का आग्रह इन्हीं मूल्यों को रेखांकित करता है। समाज के विभिन्न वर्गों और अपने वैचारिक विरोधियों तक से निरंतर संवाद बनाए रखने वाले भागवत अपने मत पर कितने गंभीर हैं, यह इससे पता चलता है कि उन्होंने दूसरी बार मंदिर-मस्जिद मुद्दों को छोड़ने का आग्रह किया, परंतु यह अपील कितनी प्रभावी होगी, यह दो बातों पर निर्भर होगा।

पहली यह कि हिंदू पुनर्जागरण में मंदिरों की पुनर्प्राप्ति का कितना महत्व है। दूसरी यह कि क्या हिंदू पुनर्जागरण संघ और उसके सहयोगी संगठनों का उठाया हुआ बीड़ा मात्र है या फिर संघ परिवार सभ्यतागत चेतना को ढूंढ़ते-टटोलते हिंदू समाज की अभिव्यक्ति है? राम मंदिर के निर्णायक संघर्ष को संघ ने ही नेतृत्व दिया और संघ शक्ति एवं अनुशासन ने ही उसे सफल बनाया, पर अंततोगत्वा आंदोलन की जमीन व्यापक हिंदू समाज की वेदना पर ही आधारित थी।

आज जब राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की पहली वर्षगांठ मनाई जा रही है, तब धर्मस्थलों की पुनर्प्राप्ति का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि जब-जब किसी समाज ने आक्रमणकारी मजहब की दासता से मुक्ति पाई है, तब-तब उसने कब्जाए गए अपने पूजास्थलों की पुनर्प्राप्ति को केंद्र में रखा है। स्पेन में रिकोनक्विस्टा यानी कैथोलिक पुनर्विजय के बाद कार्डोबा, टोलेडो, अर्चेज, सेगोविया, एविला, जरागोजा और सविल समेत कई शहरों में चर्चों को तोड़कर बनाई गईं सैकड़ों मस्जिदों को फिर से चर्च बनाया गया।

कुछ स्थानों पर तो मिसाल बनाने के लिए यह पुनर्निर्माण स्वयं मुसलमानों से कराया गया और लूटकर ले जाए गए घंटों को वापस चर्चों में लगाया गया। इसी तरह ग्रीस, यूक्रेन, हंगरी, बुल्गारिया और रोमानिया में भी उस्मानी साम्राज्य के दौरान कब्जाए गए चर्चों को सल्तनत के पतन के बाद मस्जिदों को फिर चर्च का रूप दिया गया। यूरोप में ईसाई मत के विस्तार को चुनौती के दौरान भी जब-जब मूर्तिपूजकों को मौका मिला, उन्होंने अपने पूजास्थल वापस पाने पर जोर दिया।

शारलमेन से युद्ध करते सैक्सन कबीलों और रोमन कैथोलिक चर्च से जूझती लिथुआनियाई ग्रैंड डची ने जब तक संभव हुआ, अपने पूजास्थलों के लिए लड़ाई जारी रखी। भारत में भी हिंदुओं ने मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों को एक बार नहीं, बल्कि कई बार उसी स्थान पर फिर से बनाया।

अपनी पुस्तक ‘फ्लाइट आफ डेटीज एंड रीबर्थ आफ टेंपल्स’ में इतिहासकार मीनाक्षी जैन ने कश्मीर से मदुरई और मुल्तान से लेकर असम, बंगाल तक ऐसे दर्जनों मंदिरों का उदाहरण दिया है, जहां हिंदू राजाओं और आमजन ने बलिदान देकर मंदिरों की पुनर्स्थापना की। स्पष्ट है कि भारत समेत दुनिया भर में संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के केंद्र में पूजास्थल ही रहे हैं। यह इसलिए सहज स्वाभाविक भाव है, क्योंकि सभ्यता, संस्कृति और अस्तित्व की प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण पहचान पूजास्थल ही हैं।

ऐसे में यदि भारत उपनिवेशवादी मानस से मुक्त होकर, संवैधानिक सत्ता से सीमित राष्ट्र राज्य की सीमाओं से परे वास्तव में सभ्यतागत जागृति की ओर चल निकला है तो मंदिरों की पुनर्प्राप्ति गंभीर मुद्दा बनी रहेगी। संघ प्रमुख या अन्य प्रभावी व्यक्तित्वों का सदाशयी आग्रह इस चेष्टा को कुछ समय के लिए ही रोक सकता है, परंतु यह मांग उठती रहेगी।

संघ को समझना होगा कि सकारात्मक हिंदुत्व की प्रबलता मजहबी विस्तारवाद से संघर्ष के बिना स्थापित नहीं हो सकती। मूर्तिभंजक इस्लामी कट्टरता कितनी समसामयिक है, इसका प्रमाण काशी और संभल में अभी-अभी मिला है, जहां महज 30-40 वर्ष पूर्व मंदिरों पर कब्जे और पूजा रोक देने की बात उजागर हुई। उल्लेखनीय है कि संभल और काशी में पुरातात्विक सर्वे से हिंदू दावों की पुरजोर पुष्टि हुई है।

काशी, मथुरा, संभल या भोजशाला ही नहीं, भारत में हजारों मंदिरों के विध्वंस के साक्ष्य स्वयं मुस्लिम दस्तावेजों या मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा स्थापित शिलालेखों से ही मिल जाते हैं। एक समय हिंदू संतों ने मुसलमानों के समक्ष अयोध्या, मथुरा और काशी के बदले बाकी सभी दावे छोड़ने का प्रस्ताव रखा था, परंतु मुस्लिम पक्ष की हठ ने यह उचित मांग ठुकरा कर मंदिरों की पुनर्प्राप्ति को और विस्तृत अभियान बना दिया।

यह सत्य है कि हजारों मंदिरों की वापसी संभव नहीं और यह भी सत्य है कि मुस्लिम पक्ष इन स्थानों पर कब्जा आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं है। हिंदू पक्ष की व्यथा और वेदना का बड़ा कारण यह भी है कि मंदिर विध्वंस को हर स्तर पर नकारा गया है।

ऐसे में इन विवादों का स्थायी समाधान तभी संभव है, जब आस्था और अस्मिता के चुनिंदा केंद्रों का चयनकर उन्हें उचित प्रक्रिया का पालन कर हिंदुओं को सौंपने का मार्ग प्रशस्त किया जाए और अन्य स्थलों पर शिलालेखों द्वारा मंदिर विध्वंस को दर्ज कराया जाए। इसी के साथ इतिहास की पुस्तकों और शासकीय अभिलेखों में भी मूर्तिभंजन और मंदिर विध्वंस को पूरी ईमानदारी के साथ बताया जाए।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)