प्रो. मक्खन लाल। रत में पिछले तीस वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक अयोध्या का मामला रहा है। इसने जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है। यहां तक कि यह क्रमिक सरकारों के भाग्य का फैसला भी कर रहा है। इसमें शामिल मुद्दा काफी हद तक स्पष्ट है। हिंदुओं का कहना है कि बाबरी मस्जिद जिस स्थान पर थी वह भगवान राम की जन्मभूमि है और मस्जिद बाबर के आदेश से 1528 में मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनाई गई। इस दावे के विरोधियों का कहना है कि इसके लिए कोई सुबूत नहीं है। जाहिर है अयोध्या का मुद्दा सिर्फ एक साधारण मंदिर या मस्जिद का मामला नहीं रहा है, बल्कि एक पवित्र स्थल, पावन क्षेत्र, सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत के संदर्भ में भी एक बड़ा मुद्दा है।

इसीलिए मध्यस्थता से इस मुद्दे को सुलझाते समय उसे अधिक व्यापक संदर्भ में संबोधित किया जाना चाहिए। अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान को चिन्हित करने के लिए समय-समय पर वहां मंदिर का निर्माण और पुनर्निर्माण किया जाता रहा। वहां अंतिम बार 11वीं शताब्दी में एक गढ़वाल राजा द्वारा मंदिर निर्मित किया गया था। कहा जाता है कि उस मंदिर को मुगल शासक बाबर के सेनापति ने 1528 में अपने अभियान के दौरान नष्ट कर दिया और वहां एक मस्जिद बनाई थी। 

हिंदू तब से इस स्थान को वापस प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वे भगवान राम के जन्म स्थान को चिन्हित करते हुए भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण कर सकें। जहां एक ओर लोगों और धर्मगुरुओं के बीच दावों- प्रतिदावों के बीच अदालती मामलों की सुनवाई जारी रही वहीं दूसरी ओर इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और राजनीतिक नेताओं के दावों की वैधता को लेकर बहस जारी रही। इसने सभी को बिना किसी रोक-टोक के दावों को गलत साबित करने और खारिज करने का अवसर दिया। विरासत के मुद्दे पर कई साल पहले वेनेजुएला के बारक्यूसिमेतो शहर में विश्व पुरातत्व कांग्रेस (डब्ल्यूएसी) में पारित प्रस्ताव एक उल्लेखनीय दस्तावेज है। 

प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘विश्व पुरातत्व कांग्रेस स्वीकार करता है कि पवित्र स्थलों की पहचान और संरक्षण दुनिया के सभी लोगों के लिए प्रमुख चिंता का विषय है। इसके लिए विश्व पुरातत्व कांग्रेस के तत्वावधान में एक बैठक आयोजित की जानी चाहिए ताकि विरासत से संबंधित मुद्दों का पता लगाया जा सके। साथ ही पवित्र स्थलों, पवित्र स्थानों, पवित्र क्षेत्रों आदि पर वास्तविक सहमति बनाई जा सके।’ इस संदर्भ में विश्व पुरातत्व शृंखला (वन वर्ल्ड आर्कियोलॉजी सीरीज) में कई महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए जो स्पष्ट रूप से पुरातत्वविदों, इतिहासकारों और दुनिया के लोगों के लिए भी मानदंड तय करते हैं। उस शृंखला के संपादक प्रो. पीटर अक्को एक पुस्तक ‘सेक्रेड प्लेसेस, सेक्रेड स्पेसेस’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘डब्ल्यूएसी का संबंध हमेशा अतीत के दस्तावेजीकरण और उसे प्रस्तुत करने से ही नहीं रहा है, बल्कि इससे भी अधिक यह पता लगाना रहा है कि लोगों के अतीत कैसे रहे और यह भी कि परिवर्तन क्यों और कैसे हुए तथा जो समाज, संस्कृति और परंपराएं आज मौजूद हैं उसे कैसे प्रभावित किया।’ 

पवित्र स्थल, पवित्र क्षेत्र इत्यादि लोगों के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस बात को इतिहासकारों, मानववैज्ञानिकों और समाजविज्ञानियों तथा अन्य सभी को ध्यान में रखना होगा। हमें यह स्वीकारना होगा कि किसी विशेष काल और परिस्थितियों की वजह से पवित्र स्थान, पवित्र क्षेत्र आदि की उत्पत्ति और पहचान होती है और मानव समाज में उसकी यह पहचान चिरस्थायी हो जाती है। ऐसे सभी स्थान और क्षेत्र लोगों के जीवन में विशेष महत्व रखते हैं। ऐसे पवित्र स्थलों और क्षेत्रों के महत्व को नकारना या कमतर करना बेमानी होगा।

सभी मानव समुदायों ने अतीत और वर्तमान में पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों, पहाड़ों, नदियों को विशेष महत्व दिया है और इस महत्व को स्थाई और परिलक्षित करने के लिए स्मारकों/संरचनाओं का निर्माण किया या कभी-कभी नहीं भी किया। ऐसे सभी स्थानों को जानने के लिए पुरातत्व या लिखित इतिहास ही एकमात्र साधन नहीं हैं, स्थानीय परंपराएं, आस्था और लोगों की मान्यताएं और प्रथाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। कोई स्थान या पृथ्वी क्षेत्र, नदी, समुद्र, पहाड़ आदि इसलिए पवित्र हैं, क्योंकि मनुष्य इन्हें पवित्र मानते हैं। पृथ्वी के बारे में, पहाड़ों के बारे में, पवित्र स्थानों के बारे में और पुरातात्विक स्थलों के बारे में जानने के विभिन्न तरीके हैं। कुछ तरीके वैज्ञानिक हैं तो कुछ पारंपरिक या पौराणिक और कुछ आध्यात्मिक हैं। 

जानने का एक तरीका दूसरे की वैधता को नकारता नहीं है। यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक ज्ञान और प्रभाव को स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन साथ ही साथ पारंपरिक स्वदेशी तरीकों को जानने की वैधता को भी मान्यता दी जानी चाहिए। अतीत के अध्ययन के लिए कोई सरल नुस्खा नहीं है। यह मानना कि पुरातत्व और लिखित साक्ष्य ही अतीत को जानने का एकमात्र साधन हैं, न केवल अनुचित है, बल्कि कई साक्षर और गैर-साक्षर सभ्यताओं और संस्कृतियों की जटिलताओं की अनदेखी भी है।

किसी भी समाज को और उसके लोगों को अतीत से दूर ले जाने का अर्थ है उन्हें अपनी परंपराओं और उनके विश्वासों से दूर करना और इस प्रकार उनके वर्तमान तथा भविष्य को उनके नियंत्रण से परे रखना। पवित्र स्थलों और क्षेत्रों के स्वामित्व का सवाल अन्य लोगों या अन्य धार्मिक मान्यताओं को मानने वालों के द्वारा घुसपैठ के संदर्भ में भी उठता है। 

भूमि के एक टुकड़े के नुकसान को सिर्फ एक भौतिक नुकसान के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि एक आध्यात्मिक, पारंपरिक और सांस्कृतिक अभाव के रूप में भी देखा जाता है। साथ ही प्रभावित लोगों को उनकी परंपरा, संस्कृति और धर्म से वंचित किए जाने के रूप में भी देखा जाता है। अयोध्या विवाद के संदर्भ में कई लोग यह तर्क देते रहे हैं कि वैज्ञानिक और आर्थिक विकास को संस्कृति और धर्म सहित अन्य सभी चीजों पर वरीयता दी जानी चाहिए। इस संदर्भ में हम सब माक्र्सवादी दृष्टिकोण से बहुत अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन पिछले कई दशकों के अध्ययन यह दिखाते हैं कि ‘यह धारणा कि विश्व संस्कृति का सृजन केवल प्रौद्योगिकी में सुधार और विज्ञान की सार्वभौमिक शिक्षा के माध्यम से ही बनाया जा सकता है पूर्णत: अविवेकी है।

विज्ञान आगे बढ़ सकता है, लेकिन हम सभी अपनी संस्कृतियों के अतीत के साथ आगे बढ़ते हैं और यह हमारे विचारों तथा अनुभवों का संचय है। यह हमारी शिक्षा और दैनिक जीवन के माध्यम से प्रेषित होता है, जो हमारे विचारों को अर्थ और कार्यों को पैटर्न एवं उद्देश्य देता है। ऐसा नहीं है कि हम अतीत में रहते हैं, लेकिन हम इसके द्वारा परिभाषित होते हैं। विज्ञान अपने स्वयं के इतिहास को भूल सकता है, लेकिन एक समाज ऐसा नहीं कर सकता।

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(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक हैं)