रामिश सिद्दीकी

संयुक्त राष्ट्र की 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट ने रोहिंग्या मुसलमानों को विश्व के सबसे पीड़ित अल्पसंख्यक बताया है। ये ऐसे लोग हैैं जिनका कोई देश नहीं। रोहिंग्या शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1799 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया था। उन्हें अराकानीस भी कहा जाता है। अंग्र्रेज जब भारतीय उपमहाद्वीप पर काबिज थे उस समय उन्होंने बंगाल के लोगों को म्यांमार यानी तत्कालीन बर्मा के कम आबादी वाले उपजाऊ क्षेत्र अराकान जिसे आज रखाइन नाम से जाना जाता है, जाकर बसने और खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया। तत्कालीन अंग्र्रेज सरकार के अनुसार 1872 में उनकी संख्या लगभग 58,000 थी जो 1911 में बढ़कर 1,78,000 हो गई। आज एक अनुमान के अनुसार म्यांमार में करीब दस लाख रोहिंग्या मुसलमान हैैं जिनमें से तमाम पलायन करने को विवश हुए हैैं। 1948 में म्यांमार की आजादी के बाद से ही वहां यह आवाज उठी कि रोहिंग्या मुसलमानों को देश का नागरिक माना जाए, किंतु पिछले सात दशकों में म्यांमार में जिसने भी शासन किया उसने उन्हें अपने देश का नागरिक मानने से गुरेज ही किया। इसके चलते रोहिंग्या समुदाय का वहां से पलायन शुरू हुआ और वे भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और विश्व के अन्य देशों में जाना शुरू हो गए। 1980 के दशक के प्रारंभ में जब म्यांमार सरकार ने नागरिक कानून पारित कर रोहिंग्या मुसलमानों को बंगाली नागरिक करार देते हुए उन्हें म्यांमार की नागरिकता देने से मना कर दिया तो उनके उत्पीड़न का सिलसिला तेज हो गया। म्यांमार में सिर्फ रोहिंग्या मुसलमान ही नहीं हैं। वहां लगभग 150 वर्ष पहले चीन से आए मुसलमान भी रहते हैं जिन्हें पंथय मुस्लिम कहा जाता है। यह मूलत: एक व्यापारी समाज है। उसने म्यांमार में खासी तरक्की की हैै और अपने शिक्षा स्थानों और धार्मिक स्थलों का भी निर्माण किया है। वर्षों से म्यांमार में रह रहे पंथय समुदाय को कभी असुरक्षा का अहसास नहीं हुआ, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से रखाइन इलाके में निरंतर बिगड़ते माहौल की वजह से उन पर भी असर पड़ा है। पंथय मुस्लिम इसका जिम्मेदार रोहिंग्या मुसलमानों को मानते हैं। एक ही देश में रह रहे एक ही धर्म को मानने वाले दो समुदायों के बीच में ऐसी सोच का फर्क क्यों? पंथय मुसलमानों का मानना है कि रोहिंग्या समुदाय के कुछ लोगों द्वारा हिंसा के रास्ते पर चल निकलने के कारण उन्हें भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
म्यांमार में दशकों से चल रहे नागरिकता विवाद ने हिंसक मोड़ तब लिया जब रखाइन में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों में से कुछ ने अराकान रोहिंग्या मुक्ति सेना यानी एआरएसए बनाकर म्यांमार सेना के विरुद्ध हथियार उठा लिए। आज दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों ने म्यांमार सरकार के विरुद्ध आवाज उठा रखी है, लेकिन यही संगठन तब मौन हो जाते हैैं जब वहां की सेना के ठिकानों पर एआरएसए के हथियारबंद दस्ते हमले करते हैैं। एआरएसए के संबंध कई जेहादी आतंकी संगठनों से माने जाते हैैं और शायद यही कारण है कि म्यांमार से पलायन कर रहे रोहिंग्या मुसलमानों को मलेशिया और इंडोनेशिया भी शरण देने के लिए तैयार नहीं। कोई भी धर्म या किसी देश का कानून मानवता का संहार करना नहीं सिखाता। इसी तरह कोई भी धर्म यह भी नहीं सिखाता कि जिस देश में आप रह रहे हैं वहां के शासक अगरआपकी बात न सुनें तो आप उसकी सेना पर ही हमला बोल दें।
इस्लाम के इतिहास में प्रवासियों का जो सबसे पहला किस्सा पढ़ने को मिलता है वह हजरत मुहम्मद साहब के समय का है। एक समय मक्का शहर में हजरत मुहम्मद साहब और उनके साथियों का रहना दूभर हो गया था। ऐसे हालात में उन्होंने अपने कुछ साथियों को इथियोपिया जाने का निर्देश दिया जो उस समय एक ईसाई देश था। हजरत मुहम्मद साहब के साथी जब वहां गए तो उन्होंने वहां के शासक के आगे कभी कोई मांग नहीं रखी, बल्कि शांतिपूर्वक अपना जीवनयापन करने लगे। जब एक पड़ोसी देश ने इथियोपिया पर आक्रमण किया तब हजरत मुहम्मद साहब के इन साथियों ने दुआ मांगी कि खुदा इथियोपिया की सेना को कामयाबी दे। जब वह कामयाब हो गई तो उन्होंने सामूहिक जश्न मनाया।
देश-विदेश के मुस्लिम नेताओं ने रोहिंग्या की समस्या को इस्लामिक समस्या का रूप दे दिया है। वे यह आवाज उठा रहे हैैं कि रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो हो रहा है उससे संपूर्ण मुस्लिम जगत चिंतित है। ऐसी आवाज उठाने वालों में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। इंसानों की मदद करना मानवता की बड़ी ख़ूबी है, लेकिन हर समस्या पर मजहबी लेवल लगा देना इंसानी मूल्यों के खिलाफ है। रोहिंग्या मुसलमानों का पलायन मानवीय समस्या है न कि मजहबी। आज दुनिया में दो विचारधाराएं दिखती हैं। एक वह जो हर चीज को मजहबी रंग में देखती है और दूसरी वह जो हर बात को मानवता के नजरिये से देखती है। इन दो विचारधाराओं के बीच का अंतर सीरियाई शरणार्थियों के मामले में भी देखने को मिलता है। एक तरफ वे मुस्लिम देश हैं जो इन शरणार्थियों को मुस्लिम होने के कारण अपने यहां शरण दे रहे हैं और दूसरी तरफ यूरोप के वे अनेक देश जो मुस्लिम देश नहीं हैं और फिर भी सीरियाई शरणार्थियों को शरण दे रहे हैैं। वे उन्हें मुस्लिम होने के कारण नहीं, बल्कि इंसानियत के नाते शरण दे रहे हैैं।
भारत में म्यांमार से आए रोहिंग्या मुस्लिम बड़ी संख्या में रह रहे हैं। इनमें से कुछ बहुत पहले आए थे और कुछ हाल के समय में आए हैैं। हैरानी की बात यह है कि उनका गैर कानूनी ढंग से भारत में आना लगा रहा और फिर भी किसी ने उनके प्रवेश को रोकने की जरूरत नहीं समझी और आज जब सरकार उन्हें निकालना चाहती है तो कई लोग विरोध में खड़े हो गए हैैं और कुछ तो सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गए हैैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ भी है, यह अधिकार भारत सरकार का है कि वह किसे अपने यहां शरण दे और किसे नहीं? अभी हालात ऐसे नहीं दिखते कि रोहिंग्या मुसलमानों को कहीं भेजा जा सके, क्योंकि उन्हें कोई देश लेने को तैयार नहीं। म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों के पलायन की समस्या एक मानवीय समस्या है जिसे सभी देशों को मिलकर सुलझाना चाहिए। इस समस्या के समाधान के लिए यह भी जरूरी है कि रोहिंग्या मुसलमान हिंसा के रास्ते पर चलना छोड़ें। उन्हें यह देखना होगा कि जबसे उन्होंने हथियार उठाए हैैं तबसे उनकी समस्या बढ़ी है और वे सभी देशों और यहां तक कि मुस्लिम देशों के लिए भी अवांछित हो गए हैैं।
[ लेखक इस्लामी मामलों के जानकार हैैं ]