1950 में भारत ने जब अपना पहला गणतंत्र दिवस मनाया तब उस समय भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ जो व्यक्ति हमारे देश के मुख्य अतिथि बने वह विश्व में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया के प्रथम राष्ट्रपति सुकर्णो थे। उसके बाद यह एक परंपरा-सी बन गई कि जब-जब भारत का गणतंत्र दिवस आया तब-तब हमारे बीच में मुख्य अतिथि बनकर किसी न किसी देश के मुखिया आए। शुरुआत से ही 26 जनवरी का दिन भारत की विदेशी कूटनीति का हिस्सा बन गया। प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी के दिन दिल्ली के लुटियंस जोन में स्थित राजपथ पर तीनों सेनाओं के जवान अपने-अपने जौहर दिखाते हैं, लेकिन शुरुआत के पांच साल यह परेड दिल्ली के अलग-अलग स्थानों पर की जाती थी, जैसे-कभी लाल किला तो कभी इर्विन स्टेडियम। वर्ष 1955 में पहली बार यह राजपथ पर हुई और उस दिन से आज तक राजपथ ही उस अनोखे नजारे का साक्षी बनता आया है। कई पाठकों को जानकर हैरानी होगी कि 1955 में जब पहली बार यह परेड राजपथ पर आयोजित हुई तो उस वर्ष भारत के मुख्य अतिथि और कोई नहीं, बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान के जनरल मलिक गुलाम मुहम्मद थे।
इस साल हमारे देश ने यह न्योता संयुक्त अरब अमीरात के क्राउन प्रिंस और उनकी सेना के उपाध्यक्ष शेख मुहम्मद बिन जाएद अल नहयां को भेजा था, जो कि उन्होंने मंजूर कर लिया। यह पहला अवसर नहीं है जब अरब खाड़ी के किसी देश के नेता ने इस न्यौते को स्वीकार किया हो। इससे पहले डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने वर्ष 2006 में यह न्योता सऊदी अरब के पूर्व शासक अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज अल साऊद को दिया था, जिसे ग्रहण कर वह हमारे गणतंत्र दिवस का हिस्सा बने थे। पिछले दो सालों में हमें यह थोड़ा अलग इसलिए लगने लगा, क्योंकि भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति पर मुख्य ध्यान देना शुरू किया या यूं कहें कि देश की जनता का ध्यान खींचना शुरू कर दिया। भारत के प्रधानमंत्रियों ने हमेशा विदेशी दौरे किए, पर नरेंद्र मोदी ने जब न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया तो उन्होंने भारत की विदेश नीति में एक नया आयाम जोड़ दिया। चाहे अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया या फिर ब्रिटेन, वह विदेशों में रहने वाले भारतीयों को संबोधित करने का कोई मौका नहीं चूके। इसके पीछे एक बड़ी सोच भारत के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाने की रही जहां विश्व के अन्य देश भारत को अगली उभरती विश्व शक्ति के रूप में पहचानना शुरू करें। भारत ने गत दो वर्षों में एक्ट मिडिल-ईस्ट (मध्य-पूर्व जिसे पश्चिम एशिया के नाम से भी जाना जाता है) की नीति पर बड़ी मेहनत की है, जिसका सफल परिणाम आने वाले वर्षों में दिखेगा। चाहे वह अरब खाड़ी के देशों से पूंजी निवेश लाने की बात हो या फिर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति। भारत की एक्ट मिडिल-ईस्ट नीति की कूटनीति में हमें बड़ी सफलता हाल ही में देखने को मिली जब सऊदी अरब ने भारत के हज कोटे में बढ़ोतरी कर भारत से जाने वाले हज यात्रियों की संख्या को बढ़ा कर 170520 कर दिया, जो कि विश्व के किसी भी देश की संख्या से ज्यादा है। यह इसलिए भी सराहनीय है, क्योंकि यह कदम 30 साल बाद सऊदी अरब ने वर्तमान सरकार के आग्रह के बाद उठाया। एक्ट मिडिल-ईस्ट नीति में एक सबसे महत्वपूर्ण कदम तब होगा जब भारत ओआइसी का पर्यवेक्षक सदस्य बने। ओआइसी वह संस्था है, जो कि संयुक्त राष्ट्र के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी संस्था मानी जाती है। 57 मुस्लिम देश इसके सदस्य हैं। इस संस्था का पूरा नाम इस्लामिक सहयोग संस्था है। हम समझते हैं कि जब रूस और थाईलैंड जैसे देश जहां मुस्लिम संख्या न के बराबर है उसके पर्यवेक्षक सदस्य बन सकते हैं तो भारत की दावेदारी तो सबसे मजबूत है जहां इंडोनेशिया के बाद विश्व में सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं। 2007 में इसका महत्व समझते हुए बुश सरकार ने अमेरिका का विशेष प्रतिनिधि ओआइसी के लिए नियुक्त किया और यह पद कुछ दिनों पहले तक चल रही ओबामा सरकार ने भी कायम रखा। 2006 में जब सऊदी शासक अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज अल सऊद 26 जनवरी के दिन भारत के मुख्य अतिथि बन कर आए थे उस समय उन्होंने भी भारत की तरफ से यह बात ओआइसी में रखने के लिए पेशकश की थी, पर पाकिस्तान की तरफ से कड़े विरोध की वजह से यह बात आगे नहीं बढ़ी।
आज माहौल ऐसा बन चुका है कि अगर भारत औपचारिक तौर पर ओआइसी की सदस्यता के लिए अपना नाम प्रस्तावित करे तो उसे समर्थन मिलेगा, परंतु साथ ही इसके लिए एक मजबूत कूटनीतिक तैयारी करने की भी जरूरत है। संयुक्त अरब अमीरात के क्राउन प्रिंस शेख मुहम्मद के समक्ष यह बात रखी जानी चाहिए कि वह इस मुद्दे पर भारत का समर्थन करें। आज न सिर्फ भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं, बल्कि इतिहास में अरब देशों के बाद विश्व में सबसे ज्यादा इस्लामिक साहित्य पर अगर कहीं काम हुआ तो वह देश भारत ही है। आज मिस्न की राजधानी के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा इस्लामिक शिक्षालय भी भारत में ही है, जो कि उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे देवबंद में स्थित है, जिसका नाम दारुल उलूम है। इसी दारुल उलूम ने न सिर्फ अरब देशों, बल्कि विश्व को बड़े-बड़े इस्लामिक विद्वान भी दिए हैं। पाकिस्तान के पास अगर भारत का विरोध करने के लिए कुछ बचा है तो वह है उसके द्वारा चलाया हुआ एक झूठा छद्म युद्ध। आज अगर ओआइसी के पर्यवेक्षक सदस्य बनने का अधिकार सबसे ज्यादा किसी देश का है तो वह भारत है। आज संयुक्त अरब अमीरात में सबसे ज्यादा संख्या भारतीयों की है। वहां सबसे अधिक निवेश भी भारतीयों का ही है। साल में सबसे ज्यादा सैलानी उन्हें भारत से मिलते हैं, लेकिन हाल ही में जब संयुक्त अरब अमीरात ने अपने वीजा ऑन एराइवल वाले देशों की सूची में बढ़ोतरी की तो उसमें भारत का नहीं चीन का नाम जोड़ा गया। ऐसी दोहरी नीति क्यों? भारत को क्राउन प्रिंस के साथ द्विपक्षीय वार्ता में इस मुद्दे पर भी बात करनी चाहिए। विदेश नीति सिर्फ विदेशी निवेश लाने का नाम नहीं है, बल्कि इसका बड़ा पहलू यह भी है कि आपके नागरिक को विश्व पटल पर सम्मान की नजर से देखा जाए। यह तब संभव है जब भारत सरकार अपने पासपोर्ट को भी सशक्त करने में कामयाब हो सके। आज विश्व पासपोर्ट पंक्ति में भारतीय पासपोर्ट का स्थान काफी निचले स्तर पर आता है। इसको ऊपर लाने की आवश्यकता है।
[ लेखक रामिश सिद्दीकी, इस्लामिक मामलों के जानकार हैं और उन्होंने द ट्रू फेस ऑफ इस्लाम नामक पुस्तक लिखी है ]