चिंतन विकसित मस्तिष्क की सहज प्रक्रिया है। जहां चिंतन है वहीं विचार है, वैचारिक दर्शन है। चिंतन एक प्रकार का मंथन है। यदि चिंतन शुभ और गहन है, तो मंथन अमृतदायी है और यदि सतही है, तो विष उत्पादक है। समुद्र मंथन से भी पहले प्राणहर विष ही प्राप्त हुआ था, कारण वह सतही मंथन था। जब सुरों-असरों ने गंभीर होकर गहन मंथन किया, तो उन्हें अमरता प्रदान करने वाला अमृत लाभ हुआ। चिंतन वही शुभकारी होता है, जो अमृतदायी हो। अशुभ चिंतन का यहां विष तो बहुत है, पर विषपायी कोई नहीं है। हमें विषपान से बचने के लिए चिंतन को शुभ रखना ही होगा। उदाहरणार्थ सूर्य पूर्व में उगता है, प्रकाश फैलाता है और सायं अस्त हो जाता है और हमें अंधकार के महाकूप में डुबो जाता है। यह बात सच नहींहै बल्किहमारा दृष्टिभ्रम है। सूर्य न तो उगता है और न अस्त होता है। पृथ्वी ही उसकी परिक्रमा करती है।

पृथ्वी की यह परिक्रमा और परिभ्रमण ही हमें भ्रमित करता है और यही भ्रम हमारे चिंतन को दूषित भी। यह दूषित चिंतन डूबते सूर्य के सदृश हमें भी अवसादों के अंधकार में डुबोता रहता है। सूर्य और आत्मा, दोनों ही शाश्वत हैं। पृथ्वी और तन दोनों ही क्षरणशील, नश्वर और मायाग्रस्त हैं, लेकिन हमारा गलत या असंतुलित चिंतन इसके उलट सूर्य को गतिशील और पृथ्वी को स्थिर मानता है। तभी तो वह सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे भ्रामक शब्द गढ़ता और उन्हें दूसरों को भी स्वीकार कराने का यत्‍‌न करता है।

सूर्य का उदाहरण सामने रख आत्मा की अक्षरता, अजरता और अमरता का हम निरंतर शुभ चिंतन करें, पृथ्वी की तरह शरीर को स्थिर मानकर स्वयं को भ्रमित न करें। दूसरों को भुलावे में रखकर हम भले ही किसी तथाकल्पित लाभ की बगिया मन में उगा लें, किंतु स्वयं को भुलावे में रखना सजी संवरी बगिया को उजाड़ना ही है। पात्र को आधा रिक्त समझने वाला चिंतन कभी शुभ नहीं होता है। वह तनाव, अवसाद और निराशाओं का जनक होता है। फूलों का मुरझाना, पत्तियों का झड़ना, सूरज का डूबना, खालीपन को महसूस करना आदि अशुभ चिंतन को त्यागकर हमें फूलों का खिलना, पत्तियों का पल्लवित होना, सूरज का निकलना, पूर्णता का आनंद लेना आदि के बारे में शुभ चिंतन करना चाहिए। यह शुभ चिंतन ही श्रेष्ठ और शुभ्र होता है।

[वेदप्रकाश मिश्र]