[ गिरीश्वर मिश्र ]: यह 15 अगस्त इस अर्थ में खास है कि राष्ट्र स्वाधीनता के मूल्य को पहचानने और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए स्वतंत्रता का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है। सहस्रों वर्षों से सतत गतिमान भारत की सांस्कृतिक यात्रा में अनेक पड़ाव पार करते हम यहां तक पहुंचे हैं। इस दौरान काल की विषम गति ऐसी रही कि विश्व यूनान, मिस्र और रोम आदि विभिन्न क्षेत्रों में विकसित होने वाले जिन साम्राज्यों और उनकी संस्कृतियों का साक्षी रहा, वे अब इतिहास का हिस्सा हैं। उनके नामलेवा भी नहीं बचे। इसके विपरीत भारत विदेशी आक्रमण सहते हुए शक्ति-संधान करता रहा। वंदे मातरम के जयघोष के साथ जब उसका चैतन्य प्रस्फुटित हुआ तो 1947 में एक स्वायत्त लोकतंत्र के रूप में भारत का उदय हुआ। यह अवसर एक लंबे संघर्ष के बाद उपस्थित हुआ। इस दौरान भावनात्मक सांस्कृतिक सूत्रों से आपस में बंधा यह देश भाषाओं, क्षेत्रों, रीति-रिवाजों की बहुलता के साथ अपने आप को नए ढंग से पहचान रहा था। स्वतंत्रता अर्जित करना बड़ी चुनौती थी, मगर बीसवीं सदी के आरंभ में परिस्थितियों ने करवट ली। विश्वयुद्ध जैसी उथल-पुथल मचाने वाली घटनाओं के बीच अंग्रेजों पर यह दबाव बना कि वे भारत को आजाद करें। तब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत ने अनोखी लड़ाई लड़ी। उसमें अहिंसा, सत्याग्रह और असहयोग जैसे भारतीय प्रयोग किए गए।

देश के विभाजन और भीषण रक्तपात के साथ मिली आजादी

हर जाति, धर्म और क्षेत्र की जनता ने स्वतंत्र भारत का एक महास्वप्न देखा था। स्वतंत्रता मिली अवश्य, परंतु देश के विभाजन और उसके साथ हुए भीषण रक्तपात और लाखों के विस्थापन के साथ। आजादी के आगमन के साथ ही यहां अशांति और अस्थिरता का बीजारोपण हो गया। अंग्रेजी राज में भारत की जबरदस्त लूट-खसोट हुई थी। इसके कारण गरीबी से लेकर अशिक्षा और तमाम ऐसे अभिशाप हमें विरासत में मिले। देश की नई औपचारिक रचना और संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति स्थापित करने की चुनौती सामने थी। इन सबके बीच जीवन की जरूरी व्यवस्थाओं की विसंगतियां अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही हैं। स्वतंत्र भारत के नेतृत्व ने राजव्यवस्था के भारतीय संस्करण को छोड़कर पश्चिमी मानक और विकास के लक्ष्य अंगीकार कर लिए। इस मार्ग पर चलने के अपने फायदे और नुकसान थे।

स्वतंत्र भारत ने कई चुनौतियों का सामना किया

स्वतंत्र भारत ने कई चुनौतियों का सामना किया है, फिर भी शिक्षा, खाद्यान्न, यातायात, अंतरिक्ष विज्ञान, कृषि, स्वास्थ्य और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में खासी प्रगति की है। आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़े हैं। देश में अनेक संस्थाओं का जाल बिछा। अवसंरचना मजबूत की गई। देश को युद्ध भी लड़ने पड़े। आपातकाल का दंश भी झेला। अनेक मोर्चों पर परीक्षाएं होती रहीं। प्रांतों का गठन और पुनर्गठन हुआ। र्आिथक स्थिति में बड़े उतार-चढ़ाव आए। पिछली सदी के अंतिम दशक में वैश्वीकरण, निजीकरण तथा उदारीकरण वाली नई व्यवस्था के दौर में भारी बदलाव आया। जनता ने राजनीति की विभिन्न विचारधाराओं को स्वीकारा भी और नकारा भी। इन सबके साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ी। हिंसा की घटनाएं भी हुईं। राजनीति में मध्य वर्ग और पिछड़े वर्ग ने भी मौजूदगी दर्ज कराई। क्षेत्रीय दल निर्णायक भूमिका में आए। आज सियासी महत्वाकांक्षाओं, दायित्वों और लोक के प्रति निष्ठा के बीच तालमेल में कमी त्रासद स्थिति में पहुंचती दिख रही है।

मोदी सरकार ने अपनाया समावेशी नजरिया

मौजूदा केंद्र सरकार ने समावेशी नजरिया अपनाते हुए गरीबों और समाज के उपेक्षितों के कल्याण के लिए गंभीर प्रयास शुरू किए। इनमें सहायता राशि का सीधे खाते में पहुंचाना, उज्ज्वला योजना, आवास योजना प्रमुख हैं। जीएसटी और डिजिटल लेनदेन ने आर्थिक कारोबार को नया आकार दिया। शिक्षा की महत्वाकांक्षी नीति का क्रियान्वयन आरंभ हो चुका है, परंतु अभी भी काफी कुछ करना शेष है। सीमा पर पड़ोसियों की धृष्टता को देखते हुए सामरिक बजट बढ़ाना मजबूरी है। कोरोना महामारी के बीच सीमा पर चीन की बदनीयती देखने को मिली। इस बीच हमने यह भी देखा कि तमाम बाधाओं के बावजूद कोरोना संकट काफी हद तक काबू में कर लिया गया है।

न्याय अभी भी कमजोर आदमी की पहुंच से बाहर

आज की वस्तुस्थिति का यही सार है कि जो कुछ किया गया, उससे अधिक संभव था। हमारी अपनी दुर्बलताओं के कारण कुछ समस्याओं का यथोचित समाधान न हो सका और संसाधनों का दुरुपयोग भी हुआ। तकनीकी प्रगति और बाजार के बढ़ते प्रभाव ने उपभोक्ता की मनोवृत्ति के साथ समाज, संस्था और प्रकृति के साथ के रिश्तों को भी प्रभावित किया है। भ्रष्टाचार नैतिक एवं चारित्रिक बल के ह्रास को दर्शा रहा है। न्याय अभी भी कमजोर आदमी की पहुंच से बाहर है। इसी तरह लोक भाषा की उपेक्षा और अंग्र्रेजी के वर्चस्व ने देश के लोकतंत्र को सीमित और सांस्कृतिक गुलामी को पोषित किया है। दलों की प्रतिबद्धता देश के प्रति न होकर व्यक्ति या निहित स्वार्थ के प्रति होने लगी है। संसद की गरिमा और समाज के प्रति अपने दायित्व को त्याग देने का नुकसान पूरा देश भुगतता है। हम भूलते जा रहे हैं कि स्वतंत्रता का लक्ष्य यही है कि समानता, समता और न्याय की व्यवस्था कायम हो। यह आचरण की शुचिता और सहयोग से ही पाया जा सकता है।

क्षेत्रीय घरौंदो से ऊपर उठकर अखिल भारतीय पहचान बनाएं

आज जरूरी है कि प्रत्येक भारतवासी स्वाधीनता के भाव के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी कर्तव्य की पुकार को भी सुनें। वे क्षेत्रीय घरौंदो से ऊपर उठकर स्वयं को अखिल भारतीय पहचान दें। आज स्वतंत्रता की संवेदना जगाने के लिए ‘भारतीयों भारत जोड़ो’ का नारा बुलंद करने की दरकार है और यह भी कि हम सब देश के निर्माण के लिए अपनी योग्यता और क्षमता का उपयोग करें। यह स्मरण रखना होगा कि देश की उन्नति में ही निजी उन्नति भी है। दोषारोपण की जगह निर्माण और सकारात्मक पहल जरूरी है।

( लेखक शिक्षाविद् हैं )