राजीव सचान : भारतीय मूल के चर्चित लेखक सलमान रुश्दी (Salman Rushdie) अब खतरे से बाहर बताए जा रहे हैं। बीते सप्ताह उन पर उसी न्यूयार्क में प्राणघातक हमला हुआ, जहां संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय है। चंद माह पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यह प्रस्ताव पारित किया था कि हर वर्ष 15 मार्च को इस्लामोफोबिया विरोधी दिवस मनाया जाएगा। यह प्रस्ताव इस्लामी देशों के संगठन ओआइसी की ओर से पाकिस्तान ने रखा था।

भारत ने इस्लामोफोबिया को लेकर आए प्रस्ताव से असहमति जताते हुए कहा था कि अन्य पंथों को छोड़कर केवल एक पंथ विशेष के प्रति भय के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाना ठीक नहीं। फ्रांस ने भी इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि अन्य पंथों को छोड़कर एक पंथ को प्राथमिकता देने वाला प्रस्ताव धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ चल रही लड़ाई को बांटने का काम करेगा। ऐसी आपत्तियों को महत्व नहीं दिया गया। इस प्रस्ताव को पारित करने की जरूरत बताते हुए कहा गया था कि दुनिया भर में इस्लाम के खिलाफ डर का माहौल बनाया जा रहा है।

दुनिया में इस्लामोफोबिया फैल रहा है, ऐसा कहने, मानने और प्रचारित करने वाले इसके कारणों पर कभी बात नहीं करते। अमेरिका में 9-11 हमले के बाद से इस्लामोफोबिया ज्यादा चर्चा में आया। इसके बाद जैसे-जैसे यूरोप में जिहादी हमले होने लगे, वैसे-वैसे इस्लामोफोबिया की भी चर्चा होने लगी और यह भी कहा जाने लगा कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता। जितना यह सही है कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता, उतना ही यह भी कि मजहब के नाम पर आतंक फैलाया जाता है।

जैश-ए-मोहम्मद सरीखे न जाने कितने आतंकी सगंठन हैं, जो इस्लाम की आड़ लेकर आतंक फैलाने में लगे हुए हैं। कई जिहादी संगठनों ने तो अपने झंडों पर इस्लामिक शपथ अंकित कर रखी है। इसके अलावा ऐसे अधिकतर संगठन खुद को इस्लाम की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाला बताते हैं। शायद यही कारण है कि पाकिस्तान, ईरान, तुर्किए (तुर्की) जैसे कई देश किस्म-किस्म के जिहादी संगठनों का खुला समर्थन करते हैं। इस्लाम के प्रति अंदेशे, डर और पूर्वाग्रह की यह भी एक बड़ी वजह है। यदि मुस्लिम जगत यह चाहता है कि इस्लामोफोबिया थमे तो उसे मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा पर रोक लगाने के लिए ईमानदारी से आगे आना होगा।

चूंकि सलमान रुश्दी पर हमला करने वाला हादी मतर लेबनानी मूल का एक मुस्लिम है, इसलिए इस्लामोफोबिया पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद इस्लाम को लेकर डर बढ़ने का खतरा पैदा हो गया है। इस खतरे को और बढ़ाने का काम किया है, उन लोगों ने जो हादी का समर्थन कर रहे हैं। ईरान के कई अखबारों ने हादी को बहादुर करार दिया है। इनमें वह अखबार भी है, जिसके संपादक की नियुक्ति ईरान के सर्वोच्च मजहबी नेता अयातुल्ला की ओर से की जाती है।

1989 में ईरान के ऐसे ही सर्वोच्च मजहबी नेता ने सलमान रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा जारी किया था। हालांकि ईरान सरकार ने यह कहा है कि उसका सलमान रुश्दी पर हमले से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन उसने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि इस हमले के लिए रुश्दी खुद ही जिम्मेदार हैं। एक तरह से ईरान यही कह रहा है कि यदि कोई नबी की शान में गुस्ताखी करे और इसके चलते उसका सिर तन से जुदा कर दिया जाए तो इसके लिए वही जिम्मेदार है।

'गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा- सिर तन से जुदा' नारे के तहत भारत में कन्हैयालाल, उमेश कोल्हे आदि मारे जा चुके हैं और कई अन्य लोगों पर जानलेवा हमले हुए हैं। कमलेश तिवारी की हत्या भी इसी वजह से की गई थी। कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे का 'दोष' केवल यह था कि उन्होंने नुपुर शर्मा का समर्थन किया था। वास्तव में सलमान रुश्दी पर हमले के बाद न केवल नुपुर शर्मा, बल्कि उनका समर्थन करने वालों के लिए भी खतरा और बढ़ गया है।

इसे इससे समझा जा सकता है कि जिन जाने-माने लोगों ने सलमान रुश्दी पर हमले की निंदा की, उनमें से कई को ऐसी धमकियां दी गईं कि अगला नंबर उन्हीं का है। इनमें ब्रिटिश लेखिका जेके राउलिंग से लेकर तसलीमा नसरीन तक शामिल हैं। नि:संदेह लेखक बिरादरी ने सलमान रुश्दी पर हमले की निंदा की है, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि के शासनाध्यक्षों के अलावा अन्य देशों के नेताओं ने चुप्पी ही साधे रखी। यह बेहद खतरनाक चुप्पी है। यह चुप्पी अतिवादी और जिहादी तत्वों का दुस्साहस तो बढ़ाएगी ही, अभिव्यक्ति की आजादी को खतरे में भी डालेगी। यह खेद की बात है कि भारत में शशि थरूर और सीताराम येचुरी को छोड़कर किसी बड़े नेता ने सलमान रुश्दी पर हमले की निंदा करना जरूरी नहीं समझा।

सलमान रुश्दी मुस्लिम अवश्य हैं, लेकिन वह इस्लाम नहीं मानते। वह खुद को एक्स-मुस्लिम कहने के बजाय नास्तिक कहते हैं। उन पर हमले के बाद दुनिया भर के उन मुसलमानों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है, जो इस्लाम छोड़ चुके हैं और स्वयं को एक्स मुस्लिम बताते हैं। बीते कुछ समय से किसी भी मजहब को न मानने और ईश्वर-अल्लाह-जीसस आदि पर यकीन न रखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इनमें सबसे ज्यादा असुरक्षित वे हैं, जो इस्लाम छोड़ चुके हैं, क्योंकि कई मौलाना मजहबी किताबों का हवाला देकर यह कहते हैं कि ऐसे लोग मौत की सजा के हकदार हैं। यह मानकर चला जाना चाहिए कि भारत सरकार नुपुर शर्मा की सुरक्षा को लेकर और सतर्क हुई होगी, लेकिन उसे एक्स-मुस्लिमों की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित होना चाहिए, जिनकी अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जान भी खतरे में है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)