[डॉ. नीलम महेंद्र]। वर्ष 1907 में जब पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम प्लास्टिक की खोज हुई तो इसके आविष्कारक लियो बकलैंड ने कहा था, ‘अगर मैं गलत नहीं हूं तो मेरा ये आविष्कार एक नए भविष्य की रचना करेगा।’ और ऐसा हुआ भी, उस वक्त प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने अपने मुख्य पृष्ठ पर लियो बकलैंड की तस्वीर छापी थी और उनकी फोटो के साथ लिखा था, ‘ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।’ और जब 80 के दशक में धीरे-धीरे पॉलीथिन की थैलियों ने कपड़े के थैलों, जूट के बैग, कागज के लिफाफों की जगह लेनी शुरू की तो हर आदमी उस पर मंत्र मुग्ध था।

‘यह न जलेगा न पिघलेगा’ 

हर रंग में, हर नाप में, इससे बनी थैलियों में चाहे जितने वजन का सामान डाल लें फटने का टेंशन नहीं होता। इनसे बने कप-कटोरियों में जितनी गरम चाय, कॉफी या सब्जी डाल लें हाथ जलने या फैलने का डर नहीं होता। सामान ढोना है, उन्हें खराब होने या भींगने से बचाना है तो खयाल आता है कि पन्नी है ना! बिजली के तार को छूना है, लेकिन बिजली के झटके से बचना है तो खयाल आता है कि प्लास्टिक के दस्ताने हैं ना! जाहिर है खुद वजन में बेहद हल्की, परंतु वजन सहने की बेजोड़ क्षमता वाली एक ऐसी चीज हमारे हाथ लग गई थी जो लागभग हमारी हर मुश्किल का हल थी, हमारे हर सवाल का जवाब थी। यही नहीं, वह सस्ती, सुंदर और टिकाऊ भी थी, लेकिन किसे पता था कि आधुनिक विज्ञान के एक वरदान के रूप में हमारे जीवन का हिस्सा बन जाने वाला यह प्लास्टिक एक दिन मानव जीवन ही नहीं, संपूर्ण पर्यावरण के लिए भी बहुत बड़ा अभिशाप बन जाएगा। ‘यह न जलेगा न पिघलेगा’ जो इसका सबसे बड़ा गुण था, वही इसका सबसे बड़ा अवगुण बन जाएगा। जी हां, आज जिन प्लास्टिक की थैलियों में हम बाजार से सामान लाकर आधे घंटे के इस्तेमाल के बाद ही फेंक देते हैं उन्हें नष्ट होने में हजारों साल लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस दौरान वे जहां भी रहती हैं, मिट्टी में या पानी में, वहां अपने विषैले तत्व आस-पास के वातावरण में छोड़ती रहती हैं।

सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त होने की अपील

नवीन शोधों में पर्यावरण और मानव जीवन को प्लास्टिक से होने वाले हानिकारक प्रभावों के सामने आने के बाद आज विश्व का लगभग हर देश इसके इस्तेमाल को सीमित करने की दिशा में कदम उठाने में लगा है। भारत सरकार ने भी देशवासियों से सिंगल यूज प्लास्टिक यानी एक बार प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक का उपयोग बंद करने का आह्वान किया है। इससे पहले वर्ष 2018 में विश्व पर्यावरण दिवस की मेजबानी करते हुए भी भारत ने विश्व समुदाय से सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त होने की अपील की थी, लेकिन जिस प्रकार से आज प्लास्टिक हमारी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन गया है उस स्थिति में सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग पूर्णत: बंद हो जाना तब तक संभव नहीं है जब तक इसमें जनभागीदारी न हो।

‘प्लास्टिक, एक जहरीली प्रेम कथा’ नामक पुस्तक

आज मानव जीवन में प्लास्टिक की घुसपैठ कितनी ज्यादा है, यह सुजैन फ्रीनकेल ने ‘प्लास्टिक, एक जहरीली प्रेम कथा’ नामक अपनी पुस्तक के द्वारा बताने की कोशिश की है। इस किताब में उन्होंने अपने एक दिन की दिनचर्या के बारे में लिखा है कि वे 24 घंटे में ऐसी कितनी चीजों के संपर्क में आईं जो प्लास्टिक की बनी हुई थीं। इनमें प्लास्टिक के लाइट स्विच, टॉयलेट सीट, टूथब्रश, टूथपेस्ट ट्यूब जैसी 196 चीजें थीं, जबकि गैर प्लास्टिक चीजों की संख्या 102 थी। इससे स्थिति समझी जा सकती है। जब हम जनभागीदारी से प्लास्टिक का इस्तेमाल रोकने की बात करते हैं तो जागरूकता एक अहम विषय बन जाता है। कानून द्वारा प्रतिबंधित करना या उपयोग करने पर जुर्माना लगाना इसका हल न होकर लोगों द्वारा स्वेच्छा से इसका उपयोग नहीं करना होता है। और यह तभी संभव होगा जब वे इसके प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों को समझेंगे और जानेंगे।

प्लास्टिक के दो पक्ष

अगर आप समझ रहे हैं कि यह एक असंभव लक्ष्य है तो आप गलत हैं। यह लक्ष्य मुश्किल हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं, इसे साबित किया है हमारे ही देश के एक राज्य ने। दरअसल सिक्किम में आरंभ में लोगों को प्लास्टिक का इस्तेमाल करने पर जुर्माना न लगाकर,उससे होने वाली बीमारियों के बारे में अवगत कराया गया। और धीरे-धीरे जब लोगों ने स्वेच्छा से इसका प्रयोग कम कर दिया तो फिर राज्य में कानून बनाकर इसे प्रतिबंधित दिया गया। इस प्रकार सिक्किम भारत का पहला राज्य बना जिसने प्लास्टिक से बनी डिस्पोजल बैग और सिंगल यूज प्लास्टिक की बोतलों पर बैन लगाया।

दरअसल प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह जो हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से उपयोगी है तो उसका दूसरा पक्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रदूषण फैलने वाला एक ऐसा हानिकारक तत्व है जिसे रिसाइकल करके दोबारा उपयोग में तो लाया जा सकता है, लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता। अगर इसे नष्ट करने के लिए जलाया जाता है तो अत्यंत हानिकारक विषैले रसायनों को उत्सर्जित करता है, अगर मिट्टी में दबाया जाता है तो हजारों साल यों ही पड़ा रहेगा। अधिक से अधिक छोटे-छोटे कणों में टूट जाएगा, लेकिन पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होगा।

अगर समुद्र में डाला जाए तो वहां भी केवल समय के साथ छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट कर पानी को प्रदूषित करता है। इसलिए विश्व भर में ऐसे प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने की कोशिश की जा रही है जो दोबारा इस्तेमाल में नहीं आ सकते। वर्तमान में केवल उसी प्लास्टिक के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसे रिसाइकल करके उपयोग में लाया जा सकता है, लेकिन अगर हम सोचते हैं कि इस तरह से पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचा रहा तो हम गलत हैं। इसे रिसाइकल करने के लिए इसे पहले पिघलाना पड़ता है और उसके बाद भी उससे वही चीज दोबारा नहीं बन सकती, बल्कि उससे कम गुणवत्ता वाली वस्तु ही बन सकती है। इस पूरी प्रक्रिया में नए प्लास्टिक से एक नई वस्तु बनाने के मुकाबले उसे रिसाइकल करने में 80 प्रतिशत अधिक ऊर्जा का उपयोग होता है। साथ ही विषैले रसायनों की उत्पत्ति भी होती है। किंतु बात केवल यहीं खत्म नहीं होती। कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि चाहे कोई भी प्लास्टिक हो वह अल्ट्रावॉयलेट किरणों के संपर्क में पिघलने लगता है।

अमेरिका की स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भारत के अलावा चीन, अमेरिका, ब्राजील, इंडोनेशिया, केन्या, लेबनान, मेक्सिको और थाईलैंड में बेची जा रही 11 ब्रांडों की 250 बोतलों का परीक्षण किया। 2018 के उस अध्ययन के अनुसार बोतलबंद पानी के 90 प्रतिशत नमूनों में प्लास्टिक के अवशेष पाए गए। सभी ब्रांडों के एक लीटर पानी में औसतन 325 प्लास्टिक के कण मिले। अपने भीतर संग्रहित जल को दूषित करने के अलावा एक बार इस्तेमाल हो जाने के बाद ये बोतलें स्वयं कितने कचरे में तब्दील हो जाती हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 480 अरब प्लास्टिक की बोतलें खरीदी गईं। आंकलन है कि दुनिया में हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक बोतलें खरीदी जाती हैं जिनमें से 50 प्रतिशत कचरा बन जाती हैं। हाल के कुछ वर्षों में सीरप, टॉनिक जैसी दवाइयां भी प्लास्टिक पैकिंग में बेची जाने लगी हैं, क्योंकि एक तो ये शीशियों से सस्ती पड़ती हैं, दूसरा टूटने का खतरा भी नहीं होता, लेकिन प्लास्टिक में स्टोर किए जाने के कारण इन दवाइयों के प्रतिकूल असर सामने आने लगे हैं।

प्लास्टिक से होने वाले खतरों से जुड़ी चेतावनी जारी करते हुए वैज्ञानिकों ने बताया है कि प्लास्टिक की चीजों में रखे गए भोज्य पदार्थों से कैंसर और भ्रूण के विकास में बाधा संबंधी कई बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। स्पष्ट है कि वर्तमान में जिस कृत्रिम प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है वह अपने उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण के लिए खतरनाक है, लेकिन जिस प्रकार से आज हमारी जीवनशैली प्लास्टिक की आदि हो चुकी है उससे छुटकारा पाना आसान नहीं है। इसके लिए लोगों के सामने प्लास्टिक का एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना होगा।

दरअसल समझने वाली बात यह है कि कृत्रिम प्लास्टिक बायो डिग्रेडेबल नहीं है, इसलिए हानिकारक है, लेकिन बायो डिग्रेडेबल प्लास्टिक भी बनाया जा सकता है। ये 47 से 90 दिनों में स्वत: खत्म होकर मिट्टी में घुल जाते हैं, चूंकि यह महंगा पड़ता है इसलिए कंपनियां इसे नहीं बनाती हैं। इसलिए सरकारों को सिंगल यूज प्लास्टिक ही नहीं, बल्कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले हर प्रकार के नॉन बायो डिग्रेडेबल प्लास्टिक का उपयोग ही नहीं, निर्माण भी पूर्णत: प्रतिबंधित करके केवल बायो डिग्रेडेबल प्लास्टिक के निर्माण और उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। इससे जब कपड़े अथवा जूट के थैलों और प्लास्टिक के थैलों की कीमतों में होने वाली असमानता दूर होगी तो प्लास्टिक के प्रति लोगों का आकर्षण भी कम होगा और उसका इस्तेमाल भी।

[स्तंभकार]

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