देश में विदेश के विश्वविद्यालय, सीख लेकर हम अपने संस्थानों में भी कर सकते हैं सुधार
सरकार ने एक और पहल की थी-इंस्टीट्यूट आफ एक्सीलेंस। इसके अंतर्गत ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाने थे जो दुनिया के 500 सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में शामिल किए जा सकें। इसमें कुछ आइआइटी और आइआइएम जैसे संस्थान भी चिह्नित किए गए थे।
प्रेमपाल शर्मा: भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खोलने की अनुमति ने सभी खेमों में खलबली मचा दी है। वाम उदारवादी तो हमेशा की तरह सरकार के हर कदम को जांचे बिना ही टूट पड़ते हैं, लेकिन इस बार स्वदेशी जागरण मंच और आत्मनिर्भर भारत के हिमायती भी परेशान हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने की चर्चा पिछले 20 वर्षों से होती आ रही है। मनमोहन सिंह सरकार में भी इससे जुड़े विधेयक पेश होते रहे, लेकिन पारित नहीं हो पाए। भाजपा विपक्ष में रहते इसके विरोध में थी, लेकिन अब उसकी ही सरकार अधिक सुविधाओं-रियायतों के साथ विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खोलने की अनुमति दे रही है। इसमें सबसे बड़ी रियायत यही है कि ये विश्वविद्यालय मुनाफे को अपने मूल देश भेज सकते हैं। इसके अलावा दाखिला, फीस, पाठ्यक्रम और शिक्षकों की नियुक्ति जैसे सभी क्षेत्रों में भी उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी जाएगी।
ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि विदेशियों के लिए एकाएक इतनी सारी रियायतें क्यों? मौजूदा सरकार शिक्षा के कई पहलुओं के प्रति गंभीर और सक्रिय रही है। पांच वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय समेत उसके कालेजों को स्वायत्तता देने की चर्चा जोरों पर थी। उसके पीछे भी यही उद्देश्य था कि हमारे विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम की जकड़न दूर हो और वे वैश्विक ज्ञान को आसान और त्वरित गति से आत्मसात करते हुए ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो विकसित देशों को टक्कर दे सके। विश्वविद्यालय का ही एक बहुत बड़ा वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया। विरोधियों ने तरह-तरह के आरोप लगाए। जैसे कि इससे शिक्षकों की नियुक्ति पर असर पड़ेगा। आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। फीस बढ़ाई जाएगी। मजबूरन सरकार ने कदम पीछे खींच लिए। हालांकि इसी वर्ग ने उन्हीं दिनों शुरू हुए कुछ निजी विश्वविद्यालयों की फीस और स्वायत्तता पर कभी अंगुली नहीं उठाई।
सरकार ने एक और पहल की थी-इंस्टीट्यूट आफ एक्सीलेंस। इसके अंतर्गत ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाने थे, जो दुनिया के 500 सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में शामिल किए जा सकें। इसमें कुछ आइआइटी और आइआइएम जैसे संस्थान भी चिह्नित किए गए, लेकिन चार वर्ष बीतने के बाद भी इस मोर्चे पर कोई संतोषजनक प्रगति सामने नहीं आई। विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रस्तावित देसी परिसरों को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि यदि वे शिक्षा से हुए मुनाफे को अपने देश भेजेंगे तो सुप्रीम कोर्ट के उस दृष्टिकोण का क्या होगा, जिसमें शीर्ष अदालत शिक्षा को कोई धंधा नहीं मानती। एक सवाल यह भी है कि क्या इससे देश के संस्थान मजबूत होंगे? प्रश्न फीस का भी है। क्या बिना किसी लगाम के फीस की आजादी गरीबों के हित में होगी? अमीर तो गुणा-भाग कर रहे हैं कि विदेश में भेजने पर यदि एक करोड़ खर्चा होता है तो उनका यहां आधे में ही काम हो जाएगा। पाठ्यक्रम पर भी संदेह जताया जा रहा है।
नि:संदेह, हमें ज्ञान की खिड़कियां खुली रखनी चाहिए, लेकिन जिस देश में आंबेडकर और गांधी के कार्टून के विवाद पर संसद ठप रही हो, प्रेमचंद की कहानी के एक शब्द पर लोग सड़कों पर उतर आए हों, वहां विदेशी विश्वविद्यालय के लिए हर तरह की आजादी के लिए कैसे गुंजाइश बनेगी? क्या देश में शिक्षा के अलग-अलग द्वीप बनेंगे? और भारतीय भाषाओं और शिक्षा के भारतीयकरण का क्या? यह भी सर्वविदित है कि प्रिंस्टन, येल, स्टैनफोर्ड और आक्सफोर्ड जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय अपने देश के अलावा बाहर शायद ही कोई कैंपस खोलते हों और इसीलिए सैकड़ों वर्षों से वे शीर्ष पर बने हुए हैं। अपनी स्वायत्तता के साथ वे शिक्षा में नई-नई खोजों एवं प्रयोगों को और आगे बढ़ा रहे हैं। हमारे यहां जो विश्वविद्यालय आने की कोशिश कर रहे हैं, वे दूसरे या तीसरे दर्जे से भी नीचे वाले हैं। उन्हें दिख रहा है तो बस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शिक्षा बाजार। यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि भारत विद्यार्थियों का सबसे बड़ा निर्यातक है। हर साल पांच लाख बच्चों का बाहर पढ़ने के लिए जाना क्या आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी भारत के खोखलेपन को नहीं दर्शाता?
वस्तुत: वैश्वीकरण से तो हमें यही सीखने की जरूरत है कि जब विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की पाठ्यक्रम सामग्री सहजता से उपलब्ध है तो उनसे सीखते हुए हम अपने विश्वविद्यालयों को ही क्यों नहीं बेहतर बना सकते? हम उन्हें थोड़ी स्वायत्तता क्यों नहीं दे सकते? शिक्षा में सुधार के इच्छुक भली मंशा वाले हमारे तमाम उद्यमियों के इसमें योगदान हेतु अनुकूल परिवेश क्यों नहीं बनाते? शिक्षा में लाल कालीन सिर्फ विदेशियों के लिए ही क्यों? यदि सरकार स्वायत्तता और अन्यान्य सुविधाएं विदेशी विश्वविद्यालयों को देना चाहती है तो उससे पहले उसे देसी संस्थानों को भी यही देनी होंगी। अच्छा होता कि देश के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों को इतना समर्थ बनाया जाए कि वे देश के विभिन्न हिस्सों में अपना विस्तार कर सकें। एक संवेदनशील लोकतांत्रिक सरकार से ऐसी अपेक्षा का हक सभी को है।
सोचिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के आत्मा पर क्या गुजरेगी, जो भारतीय पैसे को विदेश जाता देखकर द्रवित होते थे। इसलिए सरकार की नीयत भले ही कितनी नेक क्यों न हो, उसे इस मुद्दे को समग्रता में समझकर ही कोई कदम उठाना होगा। राज्यों के विश्वविद्यालयों को भी सख्त कानूनों के जरिये और बेहतर बनाना होगा, जिससे छात्रों को केवल शिक्षा के लिए ही महानगरों का रुख न करना पड़े। विकेंद्रीकरण की बात तो आजादी के बाद से ही हो रही है। क्या अमृत काल में उसे फिर से दोहराने की जरूरत नहीं है?
(रेल मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे लेखक शिक्षाविद् हैं)
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