हरेंद्र प्रताप: पिछले कुछ समय से ‘द केरल स्टोरी’ फिल्म चर्चा में है। इसका एक कारण इस फिल्म की विषयवस्तु है, जो कुछ सेक्युलर-लिबरल तत्वों को रास नहीं आ रही है। इनमें ताजा नाम जुड़ा है अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का। यह फिल्म केरल में गैर-मुस्लिम लड़कियों के सुनियोजित रूप से झूठे प्रेम की आड़ में विवाह और उनके मतांतरण की घटनाओं पर आधारित है। स्वाभाविक है कि फिल्म की विषयवस्तु पर कुछ वर्गों को आपत्ति होनी ही थी। इस आपत्ति के संकेत फिल्म की रिलीज के दौरान ही मिल गए थे। पिछले महीने फिल्म पर प्रतिबंध की एक याचिका उच्चतम न्यायालय में भी दाखिल हुई।

उच्चतम न्यायालय ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग को खारिज कर दिया। इसके बावजूद जहां बंगाल सरकार ने बड़े शर्मनाक ढंग से फिल्म को राज्य में प्रतिबंधित कर दिया, वहीं तमिलनाडु और केरल सरकार ने फिल्म पर एक प्रकार का अघोषित प्रतिबंध लगा दिया। इस मामले में बंगाल सरकार का रवैया तो इतना लज्जाजनक रहा कि जिस राज्य की कहानी को फिल्म में दिखाया गया, उसने तो प्रत्यक्ष प्रतिबंध नहीं लगाया, लेकिन बंगाल सरकार ने इस मामले में तुष्टीकरण की सभी सीमा रेखाएं लांघ दीं।

ममता सरकार को तब अदालत में मुंह की खानी पड़ी, जब उच्चतम न्यायालय ने न केवल फिल्म पर प्रतिबंध के राज्य सरकार को फैसले को गलत ठहराया, बल्कि तमिलनाडु सरकार को भी यह निर्देश दिया कि वह फिल्म दिखा रहे सिनेमाघरों को आवश्यक सुरक्षा उपलब्ध कराए। इस पूरे प्रकरण में अफसोस की बात यह रही कि देश में छोटे से छोटे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के स्वयंभू मसीहा बनने वालों ने फिल्म को कुचलने के प्रयासों पर मौन धारण करना ही उचित समझा।

फिल्म का विरोध कर रहे लोगों की एक दलील निर्माताओं के उस दावे से जुड़ी थी कि यह लव जिहाद की शिकार 32 हजार लड़कियों की कहानी है। हालांकि बाद में निर्माताओं ने इस दावे को लेकर पक्ष स्पष्ट करते हुए उसे हटा लिया।

यह सवाल बेमानी है कि यह कितनी लड़कियों की कहानी है? इससे उस कुचक्र को तो अनदेखा नहीं किया जा सकता, जिसमें पहचान छिपाकर लड़कियों को झूठे प्रेम के सब्जबाग दिखाकर उनका मतांतरण कराया गया और आइएस जैसे आतंकी संगठन तक पहुंचाया गया। यदि फिल्म के विरोधी फिर भी आंकड़ों को लेकर अड़े हैं तो उन्हें केरल की जनसंख्या और विशेषकर महिलाओं से जुड़े आंकड़ों की गहन पड़ताल करनी चाहिए। केरल में 1991-2001 के बीच महिला जनसंख्या वृद्धि दर 10.55 प्रतिशत रही, जिसमें हिंदू महिला जनसंख्या वृद्धि दर 8.15 प्रतिशत तो मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 17.66 प्रतिशत और ईसाई महिला जनसंख्या वृद्धि दर 8.72 प्रतिशत दर्ज की गई।

वहीं, 2001-11 में केरल में महिला जनसंख्या वृद्धि दर घटकर 6.14 प्रतिशत रह गई। इसमें हिंदू महिला जनसंख्या वृद्धि दर तो 3.11 प्रतिशत और ईसाई महिला जनसंख्या वृद्धि दर 2.33 प्रतिशत रह गई तथा मुस्लिम महिला जनसंख्या वृद्धि दर 14.91 प्रतिशत हो गई। केरल के दो जिलों इडुक्की और पथानामथिट्टा में तो हिंदू और ईसाई मुस्लिम महिला जनसंख्या वृद्धि दर नकारात्मक रही। उनके अतिरिक्त अलपुझा जिले में भी हिंदू महिला जनसंख्या वृद्धि दर मात्र 1.21 प्रतिशत रही। अगर अलपुझा में भी 3.11 प्रतिशत की दर से वृद्धि होती तो महिला जनसंख्या 782100 होनी चाहिए थी, लेकिन रही 767693 यानी 14407 कम। इस प्रकार देखें तो मात्र इन तीन जिलों में ही एक दशक के दौरान हिंदू महिला जनसंख्या 34,483 घटी।

वर्ष 1961 से 2011 के बीच के पांच दशकों के दौरान केरल में हिंदू महिला जनसंख्या वृद्धि दर जहां 81.86 प्रतिशत रही तो मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 205.48 प्रतिशत थी। आखिर हिंदू महिला जनसंख्या वृद्धि दर में कमी क्यों? क्या वहां भ्रूण हत्याएं हो रही हैं? या हिंदू महिलाएं राज्य से पलायन को बाध्य हैं? इनके जवाब हैं-नहीं। ऐसे में 1991-2001 की तुलना में 2001-11 में मुस्लिम महिला जनसंख्या में हुई वृद्धि क्या ‘लव जिहाद’ की ओर संकेत नहीं करती? जनसंख्या के ये आंकड़े तो 2011 के ही हैं, जबकि फिल्म में जिस आइएस आतंकी संगठन में महिलाओं के शामिल होने की बात उठाई गई है, वह संगठन 2013 में बना।

इस प्रकार 2011 के बाद केरल की एक भी लड़की अगर उसमें शामिल होती है तो इससे उपरोक्त प्रमाणित हिंदू महिलाओं की घटी संख्या 34,483 में बढ़ोतरी ही होगी। इसमें केवल हिंदू लड़कियां ही निशाने पर नहीं हैं, बल्कि ईसाई समुदाय की लड़कियां भी हैं। राज्य के तीन जिलों में ईसाई महिलाओं की संख्या घटी है। यही कारण है कि केरल के ईसाई संगठन भी द केरल स्टोरी का समर्थन कर रहे हैं। ‘लव जिहाद’ जैसा शब्द भी पहली बार ईसाई समुदाय की ओर से सुनने में आया था।

बंगाल की तरह केरल भी वामपंथ की एक प्रयोगशाला रहा है। दोनों राज्यों में कुछ समानताएं भी हैं। देश के विभाजन की गुनहगार मुस्लिम लीग का एक धड़ा केरल में आज भी सक्रिय है। हैरानी है कि राहुल गांधी ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान इस दल को पंथनिरपेक्ष बता दिया। मुस्लिम लीग से भी खतरनाक ‘पीएफआइ’ का जन्म केरल में ही हुआ।

अतीत में देखें तो 1921 में केरल का मोपला भारत में तालिबानी मानसिकता की पहली अभिव्यक्ति थी, जिसमें हिंदुओं का भीषण नरसंहार हुआ। राज्य में आज भी आए दिन वैचारिक विरोधियों का निर्ममता से दमन करने के वाकये सामने आते रहते हैं। ऐसे परिदृश्य में द केरल स्टोरी की कहानी को महज कल्पना की उपज और किसी एजेंडे से प्रेरित बताना शुतुरमुर्गी रवैये के अतिरिक्त कुछ और नहीं। केरल की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए उसके प्रभावी उपचार के उपाय करना ही समय की आवश्यकता है।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)