जागरण संपादकीय: ट्रंप से उम्मीदें और चिंताएं, नीति निर्माताओं को रहना होगा अलर्ट
भारतीय शेयर बाजार में तो इसके आसार मात्र से ही गिरावट शुरू हो गई है। आप्रवासन पर लगने वाले अंकुश का तो खास असर भारत पर शायद न हो क्योंकि भारत से जाने वाले अवैध आप्रवासियों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैलेकिन एच1बी वीजा पर जाने वाले पेशेवरों और पढ़ने जाने वाले छात्रों के वीजा पर स्वयं ट्रंप और उनके सलाहकार मस्करामास्वामी और श्रीराम कृष्णन अंकुश लगाने के पक्षधर नहीं हैं।
शिवकांत शर्मा। अमेरिका के 47वें और सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों को लेकर भारत समेत पूरे विश्व में उत्सुकता एवं आशंका का माहौल है। यूरोपीय विदेश संबंध परिषद ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से 24 देशों के नागरिकों का एक सर्वेक्षण कराया था, जिसमें भारत, चीन, पश्चिम एशिया, ब्राजील, तुर्किए और दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने ट्रंप की सत्ता में वापसी का स्वागत किया।
उनका मानना था कि ट्रंप प्रशासन उनके देशों और विश्व शांति के लिए अच्छा साबित होगा। ट्रंप की सबसे अधिक लोकप्रियता भारत में दिखी जहां 80 प्रतिशत से अधिक लोगों ने उनकी वापसी को अच्छा माना। इसके विपरीत यूरोप, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे अमेरिका के मित्र देशों के लोगों ने ट्रंप की वापसी पर चिंता जताई।
सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अमेरिका के पारंपरिक मित्र देशों के लोग ट्रंप की बरसों पुरानी संधियों और गठबंधनों को तात्कालिक लाभ के तराजू पर तौल कर देखने की नीति को नापसंद करते हैं। अपने पिछले कार्यकाल में वह नाटो गठबंधन, दक्षिण कोरिया, जापान और ताइवान की सुरक्षा से लेकर संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं में दूसरे देशों की तुलना में अमेरिका के बड़े योगदान की उपादेयता पर सवाल उठा चुके हैं। वह उसकी कीमत तक मांग चुके हैं।
ट्रंप अमेरिका की बाजार शक्ति को व्यापारिक और सामरिक सौदेबाजी का सबसे बड़ा हथियार मानते हैं और आयात शुल्क लगाने की धमकियां देते रहते हैं। उनके मित्र और शत्रु देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी नाटकीय अप्रत्याशितता की है जो नीति निर्माताओं के लिए बहुत बड़ा जोखिम है। इनमें अब उन्होंने कुछ और नई चुनौतियां जोड़ दी हैं।
अमेरिका का वफादार नाटो मित्र डेनमार्क इससे परेशान है कि वह उसके उत्तरध्रुवीय द्वीप ग्रीनलैंड को खरीदना चाहते हैं। पड़ोसी कनाडा इससे चिंतित है कि वह उनकी शर्तें न मानने पर उसे अमेरिका का 51वां राज्य बनने पर विवश करने की बात कर रहे हैं। मध्य अमेरिकी देश पनामा इसे लेकर डरा हुआ है कि चीनी खतरे की दलील देकर वह पनामा नहर छीनना चाहते हैं, जो उस देश की आय का प्रमुख स्रोत है।
ट्रंप के अरबपति मित्र एलन मस्क ने तो यूरोप में समाजवादी राजनीति के सफाए के लिए ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में अतिदक्षिणपंथी पार्टियों को धन से लेकर मीडिया का समर्थन देना शुरू कर दिया है। जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान इस असमंजस में हैं कि उनकी सुरक्षा की न जाने कब और कितनी कीमत मांगी जाएगी। उसे देने पर भी ट्रंप चीन के साथ कब और क्या सौदा कर लें, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
ऐसी चुनौतियां भारत के समक्ष भी हैं। यद्यपि राष्ट्रपति ट्रंप चीन को अमेरिका की सबसे बड़ी आर्थिक एवं सामरिक चुनौती के रूप में देखते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने प्रशासन में फ्लोरिडा के चीन विरोधी सीनेटर मार्को रूबियो को विदेश मंत्री और दूसरे चीन विरोधी सीनेटर माइकल वाल्ट्स को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया है। संयोग से ये दोनों भारत समर्थक रहे हैं। रूबियो ने भारत-अमेरिका सैन्य-रणनीति के समझौते का प्रस्ताव सदन में रखा था और वाल्ट्स भारत काकस के अध्यक्ष रह चुके हैं।
इसलिए नए ट्रंप प्रशासन से यह उम्मीद की जा सकती है वह भारत को हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी रणनीति की धुरी बनाकर चलेगा और चीनी वर्चस्व की काट में भारत का सहयोग करेगा। इस वर्ष भारत को क्वाड शिखर बैठक की मेजबानी भी करनी है जिसमें भाग लेने ट्रंप के भारत आने की उम्मीद भी है। उनका दौरा रिश्तों को और प्रगाढ़ करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
भारत और दूसरे एशियाई देशों में ट्रंप की लोकप्रियता का एक कारण निर्णायक फैसले लेने की उनकी प्रवृत्ति भी हो सकती है।
वह इस्लामी आतंकवाद जैसे मुद्दों पर सीधी बात करते हैं, जिससे कई बार जटिल समस्याएं भी हल हो जाती हैं। गाजा में सवा साल की लड़ाई के बाद हुआ युद्धविराम उसकी एक मिसाल है। हालांकि यूक्रेन में तीन साल से चल रही लड़ाई का हल उतना आसान नहीं दिखता। फिर भी, जेलेंस्की और पुतिन के हालिया बयानों से बातचीत शुरू करने की इच्छा के संकेत मिलने लगे हैं।
ट्रंप यूक्रेन की सैन्य सहायता बंद करना और रूस के प्रतिबंध हटाना चाहते हैं जिससे अमेरिका को व्यापार लाभ हो सके। हालांकि यह तभी संभव है जब रूस से जीता हुआ क्षेत्र वापस न मांगा जाए। ऐसा करना हमलावर को पुरस्कृत करने जैसा होगा। हकीकत यह है कि अमेरिका की सैन्य मदद के बिना यूक्रेन और नाटो में टिक पाने का दम नहीं और ट्रंप अमेरिका को दूसरों के युद्धों में उलझाए रखने के मूड में नहीं हैं। यह दीगर बात है कि वह ग्रीनलैंड और पनामा नहर को अपनी धौंस दिखा कर हासिल करना चाहते हैं।
दूसरी ओर, उनकी आर्थिक धौंस वाली नीति दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है। चीनी आयातों पर 60 प्रतिशत और बाकी देशों के आयातों पर 10 प्रतिशत संभावित शुल्क से अमेरिका में भी महंगाई बढ़ेगी। अमेरिकी केंद्रीय बैंक को ब्याज दरें घटाने में देरी करनी पड़ेगी जिससे निवेश कम होगा। जिन देशों के आयातों पर शुल्क लगेगा उन्होंने यदि जवाबी कार्रवाई में अमेरिकी चीजों पर शुल्क लगाना शुरू किया तो व्यापार युद्ध शुरू हो जाएगा। इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंका बढ़ जाएगी जो पहले से ही सुस्त चल रही है।
भारतीय शेयर बाजार में तो इसके आसार मात्र से ही गिरावट शुरू हो गई है। आप्रवासन पर लगने वाले अंकुश का तो खास असर भारत पर शायद न हो, क्योंकि भारत से जाने वाले अवैध आप्रवासियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, लेकिन एच1बी वीजा पर जाने वाले पेशेवरों और पढ़ने जाने वाले छात्रों के वीजा पर स्वयं ट्रंप और उनके सलाहकार मस्क, रामास्वामी और श्रीराम कृष्णन अंकुश लगाने के पक्षधर नहीं हैं। एक ऐसे समय जब भारत को अपनी विकास की गति बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक माल बेचने और निवेश आकर्षित करने की सख्त जरूरत है, उस समय आयात शुल्क और व्यापार युद्ध का खतरा गंभीर चुनौती खड़ी करता है।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं )
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