राजीव सचान। हम ऐसा कहते नहीं अघाते कि वैशाली विश्व का प्रथम गणतंत्र था, जहां सभी फैसले लोकतांत्रिक तरीके से होते थे। सचमुच वैशाली में ढाई हजार साल पहले ऐसा ही होता था। इसी कारण हम यह भी कहते हैं कि भारत लोकतंत्र की जननी है। वैशाली को भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की कर्मस्थली के रूप में भी जाना जाता है। वैशाली ने जो तौर-तरीके अपनाए, वही काफी कुछ बाद में दुनिया के लोकतांत्रिक देशों ने अपनाए, जैसे शासक का चुनाव जनता की ओर से किया जाना और समस्याओं के समाधान के लिए सभा-समितियों का गठन करना।

वैशाली के गौरवशाली अतीत पर गर्व किया जाना स्वाभाविक है, लेकिन इस पर कम ही चर्चा होती है कि वैशाली गणराज्य का पतन क्यों हुआ? पतन इसलिए हुआ, क्योंकि समय के साथ हर समस्या पर अंतहीन बहस होती। कहीं कोई सहमति नहीं बनती और सहमति के अभाव में समस्याओं का समाधान भी नहीं होता। स्थिति यह आ गई कि वैशाली के सुरक्षा उपायों पर भी केवल बहस ही होती। एक तरह से लोकतंत्र की अति हो गई, असहमतियां कलह में बदल गईं और नौबत यह आ गई कि वैशाली का समाज और उसका सुरक्षा तंत्र कमजोर पड़ गया।

अवसर देखकर मगध नरेश ने उस पर आक्रमण कर दिया और वैशाली को छिन्न-भिन्न कर दिया। वैशाली से भागे कुछ लोग भगवान बुद्ध के पास पहुंचे और उन्होंने सारा किस्सा बयान किया। वह कुपित हुए और उन्होंने कहा कि वैशाली की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी। इसी कारण भारत ने जब अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो उसका कूट नाम दिया-बुद्ध मुस्कुराए। अब जरा देखें कि आज के भारतीय गणतंत्र में लोकतंत्र के नाम पर क्या हो रहा है?

पहलगाम की भीषण आतंकी घटना के बाद जब पाकिस्तान से तनाव चरम पर है और उसके चलते नागरिक सुरक्षा अभ्यास होने जा रहा है, तब पंजाब और हरियाणा की सरकारें पानी के बंटवारे को लेकर एक-दूसरे के खिलाफ आग उगल रही हैं। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने जिन माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा कहा था, उनके खिलाफ जारी सुरक्षा बलों के अभियान को रोकने की अपील की जा रही है।

जिस वक्फ कानून पर सुनवाई 15 मई तक के लिए टल गई, उसके खिलाफ कुछ विधानसभाएं इस आशय के फालतू प्रस्ताव पारित कर रही हैं कि वे इस कानून को लागू नहीं करेंगी। ऐसे ही प्रस्ताव कृषि कानूनों के खिलाफ भी पारित किए गए थे और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ भी। जब इन दोनों कानूनों का अराजक तरीके से विरोध करने वाले रास्ता रोककर बैठ गए थे तब न सरकार ने कुछ किया और न ही सुप्रीम कोर्ट ने।

भले ही सुप्रीम कोर्ट वक्फ कानून पर स्थगनादेश देते-देते रह गया हो, लेकिन उसने कृषि कानूनों की समीक्षा किए बिना ही उनके अमल पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट को वर्षों पुराने मामलों को सुनने का वक्त नहीं मिलता, लेकिन वह कुछ मामलों को तुरंत हाथ में ले लेता है। वक्फ कानून इधर संसद से पारित हुआ, उधर सुप्रीम कोर्ट उसकी सुनवाई के लिए बैठ गया।

आम सहमति की आवश्यकता हर समय होती है, लेकिन सबसे अधिक होती है संकट के समय। पहलगाम हमले के बाद राजनीतिक आम सहमति न केवल कायम होनी चाहिए थी, बल्कि दिखनी भी चाहिए थी। यह कैसे दिखाई जा रही है, इसका एक उदाहरण कांग्रेस के एक नेता की ओर से राफेल विमान को नींबू-मिर्ची लेकर उड़ाना है। पहले राष्ट्रीय महत्व के हर मसले पर आम सहमति देखने को मिलती थी, क्योंकि राजनीतिक मतभेदों का मतलब शत्रुतापूर्ण संबंध नहीं होते थे। अब ऐसा ही है।

यह शत्रु भाव केवल डिजिटल संसार में ही नहीं, समाज में भी झलकता है। हाल के इतिहास में केवल दो बार राजनीतिक सहमति देखने को मिली है। एक बार न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून बनाते समय और दूसरी बार जीएसटी कानून के वक्त। न्यायिक नियुक्ति वाले कानून को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया और जीसएटी को कांग्रेस ने गब्बर सिंह टैक्स नाम दे दिया। इसके बाद से किसी भी मसले पर राजनीतिक सहमति के दर्शन दुर्लभ हैं।

जो दल इन दिनों संविधान की प्रतियां लहरा रहे हैं, वे इसी संविधान में उल्लिखित समान नागरिक संहिता का नाम सुनते ही बिदक जा रहे हैं। जो कांग्रेस लंबे समय तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराती रही, वही यह रट लगाए है कि अब ऐसा कराना असंवैधानिक होगा। राजनीतिक दल कैसे अपना रुख और रंग बदलते हैं, इसका उदाहरण हैं ईवीएम और आधार।

जिस ईवीएम को कांग्रेस ने अपनाया, वही उसके खिलाफ अभियान छेड़े रहती है। जब आधार अमल में लाया जा रहा था तो भाजपा को फूटी आंख नहीं सुहा रहा था, लेकिन अब जब वह उसका अधिकाधिक उपयोग करना चाहती है तो कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। आधार से स्मरण हो आया कि अनगिनत बांग्लादेशी बंगाल के जरिये आधार हासिल कर देश भर में बसते जा रहे हैं।

इन अवैध बांग्लादेशियों की पहचान करने और उन्हें निकालने पर सबसे अधिक आपत्ति उन ममता बनर्जी को है, जिन्होंने एक समय बंगाल में उनकी घुसपैठ को लेकर लोकसभा में आसमान सिर पर उठा लिया था। ऐसी हरकतें लोकतंत्र को विफलता की ओर ले जाती हैं और शायद वैसे ही हालात पैदा करती हैं, जैसे वैशाली में पैदा हो गए थे और जिनके नतीजे में उसका पतन हुआ।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)