कुछ दिन पहले पाकिस्तान की मशहूर लाल शहबाज कलंदर दरगाह पर हुए बम धमाके में तकरीबन 80 लोग मारे गए। इसे पाकिस्तान के इतिहास में सबसे बड़े आतंकी हमले के तौर पर देखा जा रहा है। बीते हफ्ते पूरे पाकिस्तान में 8 आतंकी वारदातें हुईं। पाकिस्तान के संस्थापकों में से एक और बीसवीं सदी के मशहूर कवि इकबाल खुद इस्लाम के सूफी स्वरूप से प्रभावित थे। आज इस दौर में जब पाकिस्तान में दरगाहों पर भी दहशतगर्दी का दानव तांडव दिखा रहा है वहां हमें इकबाल का ही एक शेर याद आ रहा है। इकबाल ने फरमाया था, ‘हो चुका गो कौम की शान-ए-जलाली का जुहुर। है मगर बाकी अभी शान-ए-जमाली का जुहुर।’ इनका पंक्तियों का मर्म यही है कि मुस्लिम समाज ने अपना एक महान आकार लिया और उसकी शिष्टता को अभी आकार लेना बाकी है। उनके ये अल्फाज सूफी सोच से प्रभावित थे। असल में पाकिस्तान की इस बदहाली के लिए वही लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने द्विराष्ट्र की सोच को हवा देते हुए पाकिस्तान निर्माण की मुहिम चलाई थी। उन्हें लगता था कि भारत में रहकर मुस्लिम समाज के लिए विकास करना असंभव होगा। मगर पाकिस्तान के संस्थापक शायद यह भूल गए थे कि नफरत की बुनियाद पर कभी विकास की बुलंद इमारत खड़ी नहीं हो सकती। पाकिस्तान के निर्माण पर समस्त मुस्लिम समाज में ऐसा मानक स्थापित हुआ जिसने दुनियाभर में मुस्लिम समाज को अलगाववादी सोच की गर्त में धकेल दिया। फिर चाहे पश्चिम एशिया में फलस्तीन का मसला हो या देश के उत्तर में कश्मीर का। यहां तक कि इसके निशान रूस और चेचन्या और चीन में शिनझियांग प्रांत तक नजर आते हैं। इसकी फेहरिस्त खासी लंबी है जहां मुसलमानों ने अपनी एक सियासी जंग शुरू कर दी।
मुस्लिम समाज में बढ़ती कट्टरता ने आज पूरी दुनिया की पेशानी पर बल डाल दिए हैं। इस कट्टरता को समझने के लिए अतीत के कुछ पन्ने पलटने होंगे। यह 18वीं सदी की बात है। पश्चिम में ऑटोमन साम्राज्य और पूर्व में मुगल सल्तनत के रूप में दुनिया के दो प्रमुख मुस्लिम साम्राज्यों का पतन हो गया था। इन साम्राज्यों का अंत पश्चिमी ताकतों के साथ चले उनके लंबे युद्ध के बाद हुआ था। उस दौर के बुद्धिजीवियों की यह जिम्मेदारी थी कि वे मुस्लिम समाज की ऊर्जा को राजनीतिक दिशा से विमुख कर उसे विज्ञान और शिक्षा की ओर मुखातिब करते। मगर उन्होंने ऐसा न कर इस धारणा को स्थापित किया कि मुसलमान पीड़ित हैं और पश्चिमी देशों ने उनका उत्पीड़न किया। हकीकत के पैमाने से देखें तो इन साम्राज्यों के पतन का जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि वे खुद थे। अक्षमता के दीमक ने धीरे-धीरे उन्हें खोखला कर दिया और आखिरकार वे भरभरा कर ढह गए। उस दौर के बुद्धिजीवियों ने दारुल हरब और दारुल इस्लाम जैसी मुस्लिम अवधारणाओं को जन्म दिया। मिस्र के सैयद कुतुब, ईरान के अयातुल्ला खुमैनी और पाकिस्तान के सैयद अबुल आला मौदूदी उसके प्रमुख पैरोकार बने। इस्लाम के इस राजनीतिक संस्करण के तेजी से विस्तार की एक वजह उत्पीड़न वाली उस मानसिकता की भी थी जिसकी घुट्टी मुसलमानों को पिलाई गई थी।
बीसवीं सदी में अमेरिका ने भी मुस्लिम कट्टरपंथियों का भरपूर सहयोग किया। उस दौर में मुस्लिम बुद्धिजीवी बड़े जोर-शोर से साम्यवाद विरोध का झंडा उठाए हुए थे और उन्हें लगता था कि साम्यवाद इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन है। रूस की बढ़ती ताकत को देखते हुए अमेरिका ने इस सोच का फायदा उठाया। पुराने हथियारों के साथ संघर्ष कर रहे मुस्लिम कट्टरपंथियों को अमेरिका ने न केवल अत्याधुनिक हथियार मुहैया कराए, बल्कि उन्हें वित्तीय मदद देने से भी गुरेज नहीं किया। मगर ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त’ वाली अमेरिका की सोच अनुत्पादक साबित हुई। अमेरिका की रणनीति छद्म युद्ध में रूस को मात देने के लिहाज से तो फौरी तौर पर तो कारगर रही, लेकिन उसने दुनिया को एक बड़े खतरे की आग में झोंक दिया, क्योंकि उसकी मदद से कट्टरपंथियों को विध्वंसक हथियार मिल गए थे। यह मुस्लिम कट्टरपंथियों के वैचारिक दिवालियेपन को ही दर्शाता है कि वे आज अपनी बात रखने के लिए किसी को भी मारना जायज ठहरा देते हैं। चाहे स्कूलों में घुसकर मासूम बच्चों को निशाना बनाना हो या इबादत के लिए गए धार्मिक स्थलों पर निहत्थे और बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतारना हो। इस्लाम में हिंसा की व्यापक रूप से मनाही है। यहां तक कि जब हजरत मोहम्मद साहब के साथ मक्का के लोगों ने बहुत क्रूरता की और आसपास के कबीले वालों ने उन्हें मारने की शपथ ली तो यह सब जानने के बावजूद मोहम्मद साहब ने इसके खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाई और अपने समर्थकों की फौज इकट्ठा कर चुपचाप मक्का से मदीना के लिए रवाना हो गए। वहां भी मक्का के लोगों द्वारा दी गई तकलीफों का कोई जिक्र नहीं है। वे मदीना गए तो उन्हें पूरे मदीना का सरदार घोषित कर दिया। वे चाहते तो भावनाओं को उकसाकर मक्का कूच कर जाते और उसे पाने की जंग छेड़ते जिसे उन्होंने गंवा दिया था। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। आज समूचा मुस्लिम समाज खोए हुए को पाने की लालसा में लगा है। जबकि मोहम्मद साहब की प्रत्येक योजना उपलब्ध साधनों पर ही केंद्रित रहती थी। हिसंक पथ पर चल रहे मुसलमानों ने कुछ पाने के बजाय दूसरों की नजरों में सम्मान ही गंवाया है। हजरत मोहम्मद साहब का एक कथन है कि ईश्वर को मानने वाला व्यक्ति एक बिल में सिर्फ एक ही बार डसा जाता है यानी वह दोबारा उस बिल में हाथ नहीं देगा जहां उसे नुकसान हो, लेकिन मुस्लिम समाज तो उसी बिल में हाथ डाले बैठा है।
1965 में मैनचेस्टर गार्डन पत्रिका को दिए साक्षात्कार में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था अगर भारत ने परमाणु हथियार बनाया तो पाकिस्तान भी बनाएगा भले ही उसके लिए हमें घास की रोटी ही क्यों न खानी पड़े। ऐसा नेतृत्व पतन को ही आमंत्रण देता है। पाकिस्तान में बिलकुल यही हो रहा है। यदि आज भुट्टो जीवित होते तो उन्हें अहसास होता कि उनकी उस सोच से लोग घास की रोटी नहीं खा रहे, बल्कि गोली-बारूद का शिकार बनने पर मजबूर हैं। हमें उम्मीद है कि मुसलमानों में ऐसा नेतृत्व तैयार होगा जो शिराजी के माफिक अमन-चैन और प्रेम का पाठ पढ़ाएगा न कि घास खिलाने का।
[ लेखक रामिश सिद्दीकी, इस्लामिक विषयों के जानकार और ट्रू फेस ऑफ इस्लाम पुस्तक के लेखक हैं ]