कट्टर सोच का मुकाबला
18 सितंबर को उड़ी में भारतीय सेना के कैंप पर हुआ हमला इंसानियत को शर्मसार कर देने वाला हमला है। पूरे देश में आक्रोश है। टीवी चैनलों पर और अखबारों में सिर्फ पाकिस्तान से युद्ध करने के तरीकों पर चर्चा की जा रही है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि कहीं यह तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी तो नहीं? मानव जाति ने 20वीं सदी की शुरुआत में प्रथम विश्व युद्ध देखा, जिसका केंद्र जर्मनी रहा।
18 सितंबर को उड़ी में भारतीय सेना के कैंप पर हुआ हमला इंसानियत को शर्मसार कर देने वाला हमला है। पूरे देश में आक्रोश है। टीवी चैनलों पर और अखबारों में सिर्फ पाकिस्तान से युद्ध करने के तरीकों पर चर्चा की जा रही है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि कहीं यह तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी तो नहीं? मानव जाति ने 20वीं सदी की शुरुआत में प्रथम विश्व युद्ध देखा, जिसका केंद्र जर्मनी रहा। प्रथम विश्व युद्ध बंदूक की ताकत पर लड़ा गया। फिर 20वीं सदी के मध्य में द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा गया, जिसमें बम की ताकत दिखी और इसका केंद्र ब्रिटेन रहा। अब मानव जाति तीसरे विश्व युद्ध की तरफ अग्रसर है, जिसका केंद्र एक कट्टर विचारधारा है। 11 सितंबर की घटना हो या 26 नवंबर का मुंबई हमला या फिर इसी माह उड़ी में हुआ हमला, सभी घटनाएं उसी कट्टर विचारधारा की जीती जागती मिसाल हैं। अमेरिका की 2003 में शुरू हुई इराक, अल कायदा और तालिबान के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई ने उसे पांच खरब डॉलर का झटका दिया, पर फिर भी अमेरिका इस विचारधारा पर काबू पाने में विफल रहा। भारत ने भी कई बार अपने सीमित साधनों से इससे लड़ाई लड़ी, पर कोई फर्क नहीं पड़ा। अब सवाल यह पैदा होता है कि किया क्या जाए? इस चुनौती से कैसे लड़ा जाए? सबसे पहली बात समझने की यह है कि यह युद्ध अन्य युद्धों से अलग है। इतिहास के सब युद्ध दो सेनाओं के बीच रहे, पर यह युद्ध सेना और विचारधारा के बीच का है। एक सेना दूसरी सेना को परास्त कर सकती है, पर विचारधारा को नहीं।
आज का यह युद्ध हिंसक धार्मिक नेताओं की देन है। इस्लामिक कट्टरपंथ के लिए कहीं न कहीं पूरा मुस्लिम समुदाय जिम्मेदार है। यह अतिशयोक्ति नहीं, क्योंकि विश्व भर में जिहादी विचारधारा का निरंतर फलना-फूलना बिना वैचारिक समर्थन के संभव नहीं। खलील जिब्रान नाम के एक मशहूर दार्शनिक का एक कथन है कि एक भी पत्ता पूरे वृक्ष की मूक सहमति के बिना नहीं गिरता। सवाल पैदा होता है कि कैसे लगभग पूरा मुस्लिम समाज ऐसी उग्रवादी सोच का शिकार हो गया, कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से? इसका जवाब मिलता है मुस्लिम साहित्य से, जो लिखा गया उपनिवेशवाद के आगमन पर। इसी समय दुनिया में प्रिंटिंग प्रेस का भी आगमन हुआ। मुगल और तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य का पतन समय भी यही था। मुसलमानों ने उपनिवेशी ताकतों के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ा हुआ था, पर जब वे अपने इस राजनीतिक लक्ष्य में विफल हुए तो उनकी घृणा और बढ़ी। उस समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी थी उस द्वेष को रोकना, लेकिन उनकी रचनाओं ने इसे और बढ़ावा दिया। समाज में एक सोच विकसित होती चली गई कि सारा गैरमुस्लिम समाज उनका दुश्मन है, क्योंकि उन्होंने मुसलमानों की लड़ाई में उनका साथ नहीं दिया। इस विफल संघर्ष के परिणाम स्वरूप मुस्लिम समाज में एक नकारात्मक मनोवृति का जन्म हुआ। इस नकारात्मकता ने मुस्लिम समाज के सामने और बड़ी समस्याएं खड़ी कर दीं। आश्चर्य नहीं कि आज मुस्लिम समाज पूरे विश्व में एक पिछड़े समुदाय के रूप में हम सबके सामने है। नकारात्मक मानसिकता के कारण ही इस समुदाय के कट्टरपंथी तत्वों ने पूरे विश्व के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ दिया। तमाम नाकामी के कारण उनके अंदर यह सोच भी उभरी है कि अगर मैं कामयाब नहीं हो सकता तो विरोधियों का नुकसान तो कर ही सकता हूं। इसी सोच ने आत्मघाती हमलावर तैयार किए हैं।
यह एक जाना-माना तथ्य है कि इस्लाम में जान लेना हराम है, पर जिस समय ऐसे हमलों की कड़ी निंदा मुस्लिम उलमा और बुद्धिजीवियों को करनी चाहिए थी तब उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि अरब के कई विद्वान इसके समर्थन में दिखे और शहादत को इश्तिहाद का नाम दे दिया, जिसका मतलब है शहादत मांगना। इससे पहले इस्लामिक जगत इस शब्द से बिल्कुल अपरिचित था, पर मीडिया के इस युग में यह संभव न था कि इसे फैलने से रोका जाए। साफ है कि आतंकवाद गन बनाम गन या बम बनाम बम का मामला नहीं, बल्कि गन बनाम वैचारिक दीवानेपन का मामला है। इस समय जरूरत है विश्व के बड़े बुद्धिजीवियों के साथ आने की और इस विचारधारा के जवाब में एक नई विचारधारा तैयार करने की। एक ऐसी जवाबी विचारधारा, जो मुस्लिम युवाओं को अपनी समझ को एक नई और सकारात्मक दिशा देने के लिए प्रेरित करे। विचारधारा की शक्ति विश्व ने उस समय देखी जब 1991 में सोवियत संघ विघटित हुआ। सोवियत संघ अमेरिका के सामने एक बड़ी चुनौती बन चुका था, पर अमेरिका ने वहां हथियारों के जरिये समाधान नहीं ढूंढ़ा, बल्कि वैचारिक स्तर पर इस चुनौती को लिया। यद्यपि यह विकल्प अमेरिका की मजबूरी थी, पर इससे उसे कामयाबी मिली। अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ अलगाव की नीति अपनाई। उसने अपना व्यापार वहां के लोगों के साथ बंद नहीं किया, बल्कि नागरिकों के साथ मेल बनाए रखा और उन्हें अपनी विचारधारा से परिचित कराया। सवाल यह है कि वही अमेरिका मुस्लिम चरमपंथियों के आगे विफल क्यों रहा? इसलिए, क्योंकि यहां उसे लगा कि वह हथियारों के जरिये इस नकारात्मक सोच पर काबू पा लेगा।
संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था यूनेस्को का एक आदर्श वाक्य है-हिंसा की शुरुआत दिमाग से होती है, तो क्या यह कहना सही ना होगा कि उसका खात्मा भी उसी स्तर पर किया जाना चाहिए? शांति की विचारधारा हमेशा अशांति की विचारधारा से ज्यादा प्रभावशाली होती है। हजरत मुहम्मद साहब का एक कथन है कि खुदा अहिंसा को जो प्रदान करता है वह हिंसा को प्रदान नहीं करता। एक प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक माइकल हार्ट ने 1978 में एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने मानव इतिहास के 100 सर्वाधिक सफल व्यक्तियों की एक सूची तैयार की। उस सूची में उन्होंने प्रथम स्थान हजरत मुहम्मद साहब को दिया और कहा कि मुहम्मद साहब इतिहास के इकलौते व्यक्ति थे, जिन्हें धार्मिक और दुनियावी स्तर पर अपार सफलता हासिल हुई। अब यह मुस्लिम युवाओं के हाथ में है कि वे मुहम्मद साहब के आदर्श पर चलते हैं या झूठे रहनुमाओं के।
[ लेखक रामिश सिद्दीकी, 'द ट्ररू फेस ऑफ इस्लामÓ के रचनाकार हैं ]
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