विचार: विकराल होता जलवायु परिवर्तन का संकट, बादल फटने से बाढ़ और भूस्खलन का खतरा
भारत को भी अब हाइड्रोजन सौर पन-पवन और परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ना चाहिए ताकि समूचे उत्तर भारत पर फैले जहरीली हवा और धूल के बादल छंट सकें। भारत में हर साल 16 लाख लोग वायु प्रदूषण से और छह लाख जल प्रदूषण से मरते हैं जो दुनिया में वायु प्रदूषण से मरने वालों का एक चौथाई और जल प्रदूषण से मरने वालों का आधा है।
शिवकांत शर्मा। जून के दौरान इस साल इंग्लैंड और स्पेन में रिकार्ड गर्मी पड़ी। लंदन में तापमान 35 डिग्री था, जबकि स्पेन के दक्षिणी शहर कोर्दोबा में 41 डिग्री। स्पेन और पुर्तगाल के अन्य कई शहरों में भी पारा 40 डिग्री से ऊपर पहुंच गया। इटली, ग्रीस, फ्रांस और नीदरलैंड्स में भी भीषण गर्मी पड़ी। इस गर्मी से आठ लोगों की मौत हो गई और तुर्किये में दावानल से बचाने के लिए 50 हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजना पड़ा। यूरोप में गर्मी का मौसम जून से लेकर जुलाई और अगस्त तक रहता है।
जून में मौसम वैसा रहता है जैसा उत्तर भारत में सामान्य तौर पर अप्रैल के दौरान रहता है। हालांकि इस बार दिल्ली में भी अप्रैल का महीना रिकार्ड गर्मी का रहा। दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में बादल फटने से बाढ़ और भूस्खलनों में 70 से अधिक लोग मारे गए और संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा।
जलवायु विज्ञानियों का कहना है कि यूरोप में धरती से उठती गर्मी को वायुमंडल पर बने उच्च दाब ने गुंबद की तरह घेर लिया था जिसे हीट डोम कहते हैं। जून की ग्रीष्म लहर उसी का परिणाम थी। इसी तरह के हीट डोम दो वर्ष पहले पश्चिमी अमेरिका, चीन और दक्षिणी स्पेन पर बने थे। कैलिफोर्निया की डेथ वैली में पारा 53.9 डिग्री और स्पेन में 46 डिग्री जा पहुंचा था। हीट डोम बनने और बादल फटने की घटनाएं वायुमंडल में गर्मी बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जा रही हैं।
धरती का औसत तापमान औद्योगिक युग से पहले की तुलना में 1.36 डिग्री बढ़ चुका है। इसे 1.5 डिग्री से आगे बढ़ने से रोकने के लिए पेरिस की जलवायु संधि हुई थी। तापमान में हुई वृद्धि के एक चौथाई का जिम्मेदार अकेला अमेरिका है। फिर भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस संधि से हाथ खींच लिया था। विज्ञानियों को आशंका है कि चीन समेत बाकी देश जिस गति से अपना गैस उत्सर्जन घटा रहे हैं उससे धरती का तापमान 1.5 डिग्री पर नहीं रुक पाएगा। वह 2.7 डिग्री तक बढ़ जाएगा, जिसके भयावह परिणाम होंगे।
नेचर पत्रिका के अनुसार तापमान वृद्धि को यदि 1.5 डिग्री तक न रोका गया तो इसकी सबसे बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ सकती है। भारत के करीब 60 करोड़ लोग भीषण गर्मी से प्रभावित होंगे। गर्मी बढ़ने से मिट्टी तेजी से सूखेगी जिसे नम रखने के लिए बड़ी मात्रा में भूजल निकालना होगा और उसके स्रोत सूखने लगेंगे। भारत दुनिया में गेहूं और धान का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
भूजल सूखने से उनकी उपज पर असर पड़ेगा। बागवानी, पशुपालन और मत्स्यपालन भी प्रभावित होंगे। औसत तापमान में एक प्रतिशत की बढ़ोतरी बादलों में सात प्रतिशत अधिक पानी भर सकती है। अधिक पानी से लदे बादलों के फटने की आशंका बढ़ जाती है। बादल फटने से भीषण बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। भारत में हर साल दो से तीन हजार लोग बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में मारे जाते हैं। तापमान बढ़ने से हिमालय के ग्लेशियरों पर भी बर्फ की जगह पानी बरसने लगा है जिसकी वजह से वे तेजी से पिघल कर छीज रहे हैं।
गंगोत्री ग्लेशियर ही 15-20 मीटर प्रति वर्ष की गति से छीज रहा है और पिछले तीस वर्षों में लगभग 700 मीटर छीज चुका है। कुछ अन्य ग्लेशियरों की हालत और भी चिंताजनक है। कई ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने से झीलें बन गई हैं, जिनके टूटने से बाढ़ आने का खतरा बना रहता है। गत मई में स्विट्जरलैंड का बर्च ग्लेशियर टूटने से उसकी तलहटी में बसा गांव ब्लाटन उसके मलबे में दब गया था। ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ और भूस्खलन हो रहे हैं और इनके सूखने पर गंगा जैसी सदानीरा नदियां भी बरसाती नदियों में बदल सकती हैं और जलसंकट पैदा हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन की विभीषिका की रोकथाम के लिए जो वैश्विक सहमति बनी थी वह पिछले कुछ वर्षों में कमजोर हुई है। पहले तो कोविड महामारी ने आर्थिक संकट खड़ा किया। उसके बाद यूक्रेन पर रूस के हमले से ऊर्जा और अनाज के दामों में आग लगी और महंगाई बढ़ी। इससे लोगों और सरकारों दोनों के बजट बिगड़ गए। रही-सही कसर ट्रंप ने पेरिस संधि से हाथ खींचकर, व्यापार जंग छेड़कर और विश्व व्यवस्था को अस्थिर बनाकर पूरी कर दी।
जो अमेरिका लोकतांत्रिक देशों को चीन और रूस की तानाशाही के जोखिम से बचाता था, उसे ट्रंप ने जोखिम में बदल दिया। अमेरिका पर भरोसा करने वाले देशों को उम्मीद थी कि उसकी सुरक्षा के साए में वे जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे, लेकिन उन्हें अपने संसाधन अपनी सुरक्षा को मजबूत करने और नए बाजार खोजने में लगाने पड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की तेज होती तपिश के बीच ही सरकारों को अपने बजट उस रक्षा सामग्री पर लगाने पड़ रहे हैं, जिसके निर्माण और प्रयोग से जलवायु परिवर्तन की गति और तेज होगी।
गनीमत है कि एक तिहाई ग्रीनहाउस गैस छोड़ने वाला चीन स्वच्छ ऊर्जा और अक्षय ऊर्जा विकास के काम में लगा है। साइकिलों का देश अब बिजली की कारों, बैटरियों, स्वच्छ ऊर्जा और भविष्य की तकनीकों का सबसे बड़ा उत्पादक, निर्यातक और उपभोक्ता बन चुका है। भारत को भी अब हाइड्रोजन, सौर, पन-पवन और परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ना चाहिए, ताकि समूचे उत्तर भारत पर फैले जहरीली हवा और धूल के बादल छंट सकें। भारत में हर साल 16 लाख लोग वायु प्रदूषण से और छह लाख जल प्रदूषण से मरते हैं जो दुनिया में वायु प्रदूषण से मरने वालों का एक चौथाई और जल प्रदूषण से मरने वालों का आधा है।
इसलिए 180 देशों की पर्यावरण प्रदर्शन तालिका में भारत 176वें स्थान पर है। यही हाल रहा तो भारत की जीडीपी का 6.4 से लेकर 10 प्रतिशत प्रदूषण की भेंट चढ़ने लगेगा। दो साल पहले हुए सर्वेक्षणों के अनुसार भारत के 85 प्रतिशत लोग जलवायु परिवर्तन से चिंतित हैं और 87 प्रतिशत चाहते हैं कि उसकी रोकथाम के उपाय किए जाने चाहिए। हमें यह भी समझना होगा जलवायु परिवर्तन कोई ऐसी जंग नहीं जिसे देश की सीमा पर सेना भेजकर जीत लिया जाए, बल्कि ऐसी जंग है जिसमें दुश्मन हमारे ही भीतर बैठा है जिसे निजी व्यवहार को बदले बिना नहीं जीता जा सकता।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)
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