जागरण संपादकीय: सशक्तीकरण का माध्यम बना स्वच्छता अभियान, सफल हो रहा स्वच्छ भारत मिशन
शोध के अनुसार खुले में शौच की विवशता के चलते महिलाएं कम भोजन और अल्पमात्रा में जल ग्रहण करती हैं ताकि उन्हें दिन के उजाले में शौच न जाना पड़े नतीजतन उनका शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के अनुसार वित्त वर्ष 2015 में कुल स्वास्थ्य व्यय 62.6 प्रतिशत से घटकर वित्त वर्ष 20 में 47.01 हो गया।
डॉ. ऋतु सारस्वत। प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित रिपोर्ट ‘टॉललेट कंस्ट्रक्शन अंडर द स्वच्छ भारत मिशन एंड इन्फेंट मार्टलिटी इन इंडिया’ में यह उल्लेख हुआ है कि स्वच्छ भारत मिशन ने 2011 से 2020 के बीच भारत में सालाना 60 से 70 हजार शिशुओं की मृत्यु को रोकने में मदद की है।
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय और ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने स्वच्छ भारत मिशन और भारत में शिशु और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर के बीच संबंधों की पड़ताल के लिए एक अध्ययन किया। 640 जिलों से शिशु मृत्यु दर और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर के आंकड़ों के अध्ययन से सामने आया कि स्वच्छ भारत मिशन अवधि के बाद भारत में इस मिशन से पहले के वर्षों की तुलना में शिशु और बाल मृत्यु दर में तेजी से कमी दर्ज हुई।
जिन जिलों में प्रमुखता से शौचालय निर्माण हुए, वहां शिशु मृत्यु दर में 5.3 प्रतिशत की कमी और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में 6.8 प्रतिशत की कमी देखी गई। यह परिणाम उस आह्वान की परिणति है, जो 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री मोदी ने देश को संबोधित करते हुए किया था। उन्होंने कहा था, ‘क्या हम उचित शौचालय सुविधा नहीं बना सकते?
मुझे नहीं पता कि लोग लाल किले से गंदगी और शौचालय के बारे में मेरी बात की सराहना करेंगे या नहीं, लेकिन अगले साल जब हम यहां खड़े होंगे तो हर स्कूल में लड़कियों और लड़कों के लिए शौचालय होने चाहिए…।’ प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य राजनीतिक चश्मे से भी देखा गया, परंतु तमाम पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करते हुए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ ने अक्टूबर 2014 में जो हुंकार भरी, उसका सकारात्मक नतीजा सबके सामने है।
यह जिज्ञासा का विषय हो सकता है कि कैसे खुले में शौचालय का संबंध नवजातों की मृत्यु से हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर जानने से पूर्व जुलाई, 2015 में प्रकाशित ‘रिस्क आफ एडवर्स प्रेगनेंसी आउटकम्स अमंग वूमेन प्रैक्टिसिंग पुअर सैनिटेशन इन रूरल इंडिया: ए पापुलेशन बेस्ड प्रास्पेक्टिव कोहार्ट स्टडी’ के परिणामों को जानना चाहिए।
इस शोध में 670 गर्भवती महिलाओं का अध्ययन किया गया। शोध से पता चला कि जिन दो तिहाई गर्भवती महिलाओं ने खुले में शौच किया, उनमें से एक चौथाई ने प्रतिकूल गर्भावस्था के परिणाम अनुभव किए। इनमें सबसे आम, बच्चे का समय से पहले जन्म या कम वजन वाले बच्चे का जन्म था। वहीं, शौचालय का प्रयोग करने वाली गर्भवती महिलाओं में ऐसा नहीं दिखा।
विश्व भर में हुए सैकड़ों शोधों का यही निष्कर्ष है कि खुले में शौच जीवन के लिए घातक है। ‘सैनिटेशन एंड डिजीज, हेल्थ एस्पेक्ट्स आफ वेस्ट वाटर एंड एक्सक्रेट मैनेजमेंट’ नामक वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट बताती है कि खुले में शौच से बच्चों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। मानव मल में लाखों वायरस, बैक्टीरिया और परजीवी घटक उपस्थित होते हैं, जो डायरिया और जल जनित अनेक बीमारियों को जन्म देते हैं। ये बीमारियां बच्चों के पेट की अंदरूनी सतह को बारंबार क्षति पहुंचाती हैं, जिससे पोषक तत्वों को हजम करने की उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वे कुपोषण से लड़ने की क्षमता खो देते हैं।
खुले में शौच से मुक्ति भारतीय शिशुओं के जीवन रक्षक के रूप में ही नहीं उभरी, अपितु इसके बहुआयामी प्रभाव भी सामने आए। शौचालय का अभाव महिलाओं की शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का कारण भी रहा है। 2017 में इंटरनेशनल जर्नल आफ एनवायरमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक शोध बताता है कि महिलाओं के लिए खुले में शौच न केवल उनकी शारीरिक अस्वस्थता का सबसे बड़ा कारक बनकर उभरता है, बल्कि यह उनके आत्मसम्मान और सुरक्षा पर भी बहुत आघात पहुंचाता है।
शोध के अनुसार खुले में शौच की विवशता के चलते महिलाएं कम भोजन और अल्पमात्रा में जल ग्रहण करती हैं, ताकि उन्हें दिन के उजाले में शौच न जाना पड़े, नतीजतन उनका शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के अनुसार वित्त वर्ष 2015 में कुल स्वास्थ्य व्यय 62.6 प्रतिशत से घटकर वित्त वर्ष 20 में 47.01 हो गया। स्वास्थ्य सेवाओं पर कम खर्च का सीधा संबंध गुणवत्तापूर्ण जीवन में निवेश है, जो किसी भी देश के सर्वांगीण विकास का एक प्रमुख सूचक है।
नि:संदेह खुले में शौच से यौन हिंसा की आशंका बढ़ जाती है, जिससे महिलाओं को शारीरिक और मानसिक पीड़ा पहुंचती है। ‘आल वी वांट अवर टायलेट्स इनसाइड अवर होम्स: द क्रिटिकल रोल आफ सैनिटेशन इन द लाइव्स आफ अर्बन पुअर एडोलेसेंट गर्ल्स इन बेंगलुरु, इंडिया’ नामक अध्ययन उन किशोरियों की पीड़ा बखूबी बयान करता है, जिन्हें खुले में शौच जाने के कारण शर्मिंदगी और छींटाकशी का सामना करना पड़ता था।
इन तमाम तकलीफों पर लगाम लगाने के लिए स्वच्छ भारत अभियान की जब शुरुआत हुई तो अमूमन सभी को लगा कि यह नारों के शोर तक सीमित होकर रह जाएगा, परंतु यह जन-जन की आवाज बन गया। इस अभियान ने यही बताया कि कैसे किसी कार्यक्रम को लागू करने की सरकार की प्रतिबद्धता पूरे परिदृश्य को बदल देती है। कम से कम इस प्रतिबद्धता की तो सराहना होनी ही चाहिए।
स्वच्छता अभियान के सकारात्मक परिणाम की पुष्टि पेयजल और स्वच्छता विभाग एवं जल शक्ति मंत्रालय की सहायता से यूनिसेफ और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की रिपोर्ट ‘एक्सेस टू टायलेट्स एंड द सेफ्टी कनवीनियंस एंड सेल्फ-रेस्पेक्ट आफ वूमेन इन इंडिया, सुरक्षा सुविधा और स्वाभिमान’ शीर्षक रिपोर्ट से होती है।
इस रिपोर्ट के अनुसार शौचालय बनने के बाद 93 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि उन्हें शौच करते समय जानवरों द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने, संक्रमण होने और रात के अंधेरे में शौचालय जाने में डर नहीं लगता। महिलाओं ने यह भी माना कि वे अब तनाव मुक्त और आत्मसम्मान की भावना महसूस करती हैं। इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि खुले में शौच ‘आत्मग्लानि’ बढ़ाता और ‘आत्मगौरव’ को घटाता है। ये सशक्तीकरण में बाधक तत्व हैं। आर्थिक स्वावलंबन की पहली सीढ़ी स्वाभिमान है। इस दृष्टि से स्वच्छ भारत मिशन ने महिला सशक्तीकरण में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
(लेखिका समाजशास्त्री हैं)