राहुल वर्मा। दिल्ली की सत्ता से भाजपा का करीब 27 साल का वनवास समाप्त हुआ और पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ राष्ट्रीय राजधानी में सरकार बनाने जा रही है। एक छोटे से राज्य में भाजपा की जीत इतनी बड़ी मानी जा रही है तो उसके कई कारण हैं। महीने भर पहले तक दिल्ली में आम आदमी पार्टी यानी आप को हराना असंभव सा लग रहा था, क्योंकि लगातार दो विधानसभा चुनावों में पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल करती आ रही थी।

पिछले विधानसभा चुनाव में ही आप को करीब 55 प्रतिशत वोट और 62 प्रतिशत सीटें हासिल हुई थीं। ऐसे में यही माना जा रहा था कि उसके खिलाफ अगर कुछ असंतोष है तब भी पार्टी बहुमत के आंकड़े तक तो पहुंच ही जाएगी, लेकिन पिछले तीन हफ्तों में भाजपा ने चुनावी हवा का रुख पलटकर आप का तख्तापलट कर दिया। आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान से ही अस्तित्व में आई तो भाजपा ने इसी पहलू को आप की दुखती रग बना दिया।

भाजपा ने शीशमहल से लेकर आप के शीर्ष नेताओं के भ्रष्टाचार और जेल जाने के मुद्दे को मुखरता से भुनाया। इसके अलावा सड़कों की हालत, परिवहन व्यवस्था, जल आपूर्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मुद्दों को भी उठाया। भाजपा ने जहां जनता को आश्वस्त किया कि मुफ्त बिजली-पानी और परिवहन से जुड़ी आप सरकार की योजनाएं न केवल जारी रखी जाएंगी, बल्कि उन्हें और प्रभावी बनाया जाएगा। बजट में मध्य वर्ग को मिली बड़ी कर राहत ने भी भाजपा का काम आसान बनाया।

रही-सही कसर आप के उस शिकायती लहजे ने पूरी कर दी कि केंद्र सरकार के चलते उन्हें शासन चलाने में समस्या का सामना करना पड़ता है। इससे जनता के मन में यही आशंका बनी कि आप को सत्ता की चाबी सौंपने का अर्थ होगा कि दिल्ली में शासन-प्रशासन का दरवाजा सुगमतापूर्वक नहीं खुल पाएगा।

चुनाव से पहले पोल पोजीशन में रही आप के लिए दिल्ली में हार उसकी जड़ें हिलाने वाली है। भले ही पार्टी ने 40 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए हों, लेकिन अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, सौरभ भारद्वाज और सोमनाथ भारती जैसे दिग्गज नेताओं की हार गहरी टीस देने वाली है। यह दर्शाता है कि पार्टी के खिलाफ कितना व्यापक जनाक्रोश था।

दिग्गजों की हार से पार्टी के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है। दिल्ली के अलावा पंजाब की सत्ता संभालने वाली आप को वहां भी नई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा नेताओं के पलायन को रोकने की भी चुनौती होगी। चूंकि आप के पास कोई मूल विचारधारा नहीं है, इसलिए उसके सामने अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कोई बड़ा आधार नहीं।

पार्टी ‘दिल्ली माडल’ के माध्यम से ही गुजरात और गोवा जैसे अन्य राज्यों में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में थी। इन कोशिशों को अब तगड़ा झटका लगेगा। दो साल बाद पंजाब में चुनाव भी होने हैं और वहां सरकार के पास कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है। लोकसभा चुनाव में उसे वहां तगड़ा झटका भी लग चुका है।

दिल्ली चुनाव के दौरान विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए में भी बड़ी खींचतान दिखी। लोकसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ने वाली आप और कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा। कहा जा रहा है कि आप करीब एक दर्जन सीटें कांग्रेस के कारण हार गई। हालांकि इसका दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि यदि आप और कांग्रेस साथ मिलकर लड़तीं तो राज्य सरकार के विरुद्ध जाने वाला पूरा मत भाजपा के खाते में जाता।

इस किंतु-परंतु से इतर देखा जाए तो चुनाव से पहले ही आप ने कांग्रेस को धमकाया था कि वह उसे विपक्षी गठबंधन से बाहर करा देगी। सपा और तृणमूल से लेकर बची-खुची शिवसेना और राकांपा ने भी दिल्ली में अपना कोई जनाधार न होने के बावजूद चुनाव में आप का समर्थन किया। अखिलेश यादव ने तो अरविंद केजरीवाल के साथ प्रचार भी किया। इससे आप का कोई भला तो नहीं हुआ, उलटे आइएनडीआइए के बीच की दरारें उभरकर सामने आईं।

कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव भारी झटका साबित हुआ। लगातार तीन बार राज्य की सत्ता संभालने वाली पार्टी का पिछले तीन विधानसभा चुनावों से खाता नहीं खुल सका है। पार्टी भले ही आप की हार से अपने लिए नई संभावनाओं के द्वार खुलने की उम्मीद लगाए, लेकिन चुनाव नतीजे उसे नाउम्मीद करने वाले रहे। वोट प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी के बावजूद 70 में से उसके केवल तीन उम्मीदवार अपनी जमानत बचा पाए।

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के जिस कायाकल्प की आस बंधी थी, वह एक के बाद एक चुनाव से टूटती जा रही है। लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र में जबरदस्त हार के बाद दिल्ली में उसका सूपड़ा साफ होने के बाद पार्टी उसी मोड़ पर आ गई है, जहां वह 2024 के आम चुनाव से पहले थी। स्वाभाविक है कि आने वाले चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमजोर होगी और सहयोगियों के साथ उसे कड़ी सौदेबाजी का सामना करना होगा।

इसके उलट भाजपा लगातार अपनी बढ़त बनाए हुए है। लोकसभा चुनाव में लगा था कि पीएम मोदी की लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता में कमी आई है, लेकिन हरियाणा ने सबसे पहले इस रुझान को झुठलाया तो महाराष्ट्र चुनाव ने नए सिरे से मुहर लगाई कि मोदी का कोई विकल्प नहीं। दिल्ली का पूरा चुनाव उनकी गारंटी पर लड़ा गया तो यह चमत्कारिक सफलता भी मोदी के खाते में जाएगी। इस जीत से राजग में भाजपा की हैसियत और मजबूत होगी।

दिल्ली के नतीजों ने यह भी साबित किया कि केवल रेवड़ियों के भरोसे चुनाव नहीं जीता जा सकता। तेलंगाना में बीआरएस और आंध्र में वाइएसआर कांग्रेस की हार के बाद अब दिल्ली में आप की हार ने यही दर्शाया कि जनता को साधने के लिए रेवड़ियों के अतिरिक्त और भी जतन करने होंगे। विपक्षी मोर्चे के लिए संदेश यह भी है कि केवल मोदी और भाजपा विरोध से न तो चुनावी जीत मिल सकती है और न ही जनता का भरोसा जीता सा सकता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)