[प्रदीप सिंह]। कर्नाटक में सबसे बड़े विधायक दल के नेता बीएस येद्दयुरप्पा एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए। विपक्ष और वाम बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का आरोप है कि कर्नाटक में लोकतंत्र की हत्या हो रही है। आमजन यह जुमला सत्तर साल से सुन रहे हैं कि लोकतंत्र की हत्या हो रही है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि कब लोकतंत्र की हत्या हो जाती है और कब लोकतंत्र बच जाता है? देश की सर्वोच्च अदालत आधी रात के बाद खुलती है और वहां गुहार लगाई जाती है कि लोकतंत्र की रक्षा कीजिए।

सवाल है कि यह सिलसिला आखिर शुरू कब हुआ? कुछ लोगों को लगता है कि यह सब 2014 के बाद शुरू हुआ। अब ऐसे लोग और जो भी हों, लेकिन कमजोर याद्दाश्त वाले तो हैं ही। अगर गंगा की सफाई करनी है तो गोमुख/गंगोत्री से शुरू करना होगा गंगासागर से नहीं। लगभग उनसठ साल पहले, जी हां करीब छह दशक पहले की बात है। चार साल पहले की नहीं। साल 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केरल राज्य बना। वहां 1957 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुआ। 127 सदस्यीय विधानसभा में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने साठ सीटें जीतीं।



पांच निर्दलियों के समर्थन से सरकार बनी। दुनिया में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी लोकतांत्रिक चुनाव के जरिये सत्ता में आई। उस समय देश के प्रधानमंत्री थे पंडित जवाहर लाल नेहरू, जिन्हें जनतंत्र का पुरोधा माना जाता था। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर कोई और नहीं उनकी पुत्री इंदिरा गांधी विराजमान थीं। केरल सरकार भूमि सुधार और सामाजिक सुधार के दूसरे लोकप्रिय कदम उठाने लगी। पूरे देश पर राज करने वाली कांग्रेस से विपक्षी दल की एक सरकार बर्दाश्त नहीं हुई। पहले कम्युनिस्ट पार्टी फिर निर्दलियों को तोड़ने की कोशिश हुई। इसके लिए कांग्रेस ने ‘विमोचना समरम’ यानी मुक्तिसंघर्ष चलाया। इसके बाद भी जब एक भी विधायक नहीं टूटा तो 31 जुलाई 1959 को संविधान के अनुच्छेद 356 का पहली बार उपयोग/दुरुपयोग करके नंबूदरीपाद सरकार
को बर्खास्त कर दिया गया। यह लोकतंत्र की स्थापना थी या हत्या? इसके बाद चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करना कांग्रेस की सरकारों का राजनीतिक खेल हो गया।

सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियम तय किए उसके बाद इस पर थोड़ी लगाम लगी। जब तक कांग्रेस को विधानसभा और लोकसभा में बहुमत मिलता रहा, कोई समस्या नहीं थी। जैसे ही गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बनने लगीं, समस्या शुरू हो गई। त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा में सरकार बनाने के लिए सबसे बड़े दल को बुलाया जाए या चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए साथ आए दलों को? कांग्रेस ने इसका बड़ा सीधा सा हल निकाला। उसके मुताबिक यह इस बात से तय होगा कि कांग्रेस को सत्ता में आने का मौका किस रास्ते से मिलता है? सबसे बड़ा दल कांग्रेस है तो नियम यह है कि राज्यपाल/ राष्ट्रपति को सबसे बड़े दल को ही पहले सरकार बनाने का मौका देना चाहिए, लेकिन अगर कांग्रेस चुनाव हार जाए और दूसरे दल के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा करे तो मौका उसे ही मिलना चाहिए। उसके हिसाब से ऐसा करना लोकतंत्र और संविधान की रक्षा है और इसके विपरीत आचरण लोकतंत्र और संविधान की हत्या है।

अतीत से निकलकर अब निकट वर्तमान में आ जाते हैं। मान लेते हैं कि 2014 से पहले कांग्रेस ने जो भी किया वह सब संविधान सम्मत था। सारी गड़बड़ी पहले गोवा फिर मणिपुर और मेघालय में हुई। इन तीन राज्यों में कांग्रेस का तर्क था कि वह सबसे बड़ी पार्टी थी। इसके बावजूद उसे न बुलाकर राज्यपाल ने लोकतंत्र और संविधान की हत्या की। यह भी कि नरेंद्र मोदी तो आखिरकार लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए ही चुनकर आए हैं। इसलिए वह यह सब करवा रहे हैं। 2017 से कांग्रेस पूरे देश में घूम घूम कर कह रही थी कि संघी राज्यपालों ने सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का पहले मौका नहीं दिया। राज्यपाल ने अब कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी को मौका दे दिया तो वही कांग्रेस आधी रात के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंची कि राज्यपाल को रोकिए कि सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का मौका न दें, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो लोकतंत्र की हत्या हो जाएगी।

दूसरी ओर भाजपा के तर्क ठीक इसके विपरीत हैं। कल तक जो कांग्रेस कह रही थी, आज भाजपा कह रही है। अब बूझिए कि इनमें नैतिक कौन है? दिक्कत हो रही हो तो महाभारत का एक प्रसंग सुनिए: काफी मारकाट के बाद युद्ध लगभग आखिरी दौर में था। भीम और दुर्योधन का मल्ल युद्ध चल रहा था। गांधारी के आशीर्वाद से दुर्योधन की जंघा के अलावा पूरा शरीर वज्र का हो चुका था। भीम उसे हरा नहीं पा रहे थे। कृष्ण ने कहा, मझले भइया दुर्योधन की जंघा पर प्रहार कीजिए। दुर्योधन चिल्लाया, माधव यह युद्ध के नियम के विरुद्ध है और अनैतिक भी। कृष्ण का जवाब था जब बालक अभिमन्यु को आठ योद्धाओं ने घेर कर मारा। जब पांडवों के नवजात शिशुओं की धोखे से हत्या की गई तो युद्ध के नियम और नैतिकता याद नहीं आई। आज खुद पर संकट आया तो नियम और नैतिकता की याद आ रही है। कृष्ण ने भीम से फिर कहा, मझले भइया जंघा पर प्रहार करना धर्म विरुद्ध नहीं होगा। तो इस समय कांग्रेस की जंघा पर प्रहार हो रहा है।

अब जरा खरीद-फरोख्त की भी बात कर लें। जैसे ही कोई भी पार्टी यह आरोप लगाती है कि दूसरी पार्टी उसके विधायकों को खरीद रही है तो वह मान चुकी होती है कि उसके विधायक बिकने को तैयार हैं। तो जो बिकने को तैयार है वह खरीददार को नहीं देखता। उसकी नजर सिर्फ इस बात पर होती है कि कौन ज्यादा दाम दे रहा है। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि एक ही पक्ष दाम लगा रहा है। दूसरी बात यह कि फुटकर बिकने वालों पर नजर है, लेकिन थोक वाले का क्या? 222 विधायकों वाली वर्तमान विधानसभा में 38 विधायकों वाली पार्टी का नेता मुख्यमंत्री होगा। 78 विधायकों वाली पार्टी उसके पीछे खड़ी होगी और 104 विधायकों वाली पार्टी विपक्ष में बैठेगी। तो क्या यह मान लें कि सबसे कम विधायकों वाली पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश किसी त्याग की भावना से हो रही है? क्या यह लोकतंत्र की जीत है। यदि इसका जवाब हां में है तो फिर लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल जाएगी। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति के लिए कोई तय नियम नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार इसके हल की दिशा में कदम बढ़ाया था, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में जगदंबिका पाल वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कम्पोजिट वोट का रास्ता सुझाया था। किसी को पहले या बाद में बुलाने की बजाय सदन अपना नेता चुने और उसकी सरकार बने। भविष्य के लिए यह एक रास्ता हो सकता है।


(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)