[डॉ. श्रीरंग गोडबोले]। साधारणतया कहा जाता है कि अपनी शक्ति क्षीण होने के पहले खिलाफत आंदोलन दो चरणों में विभाजित था। पहला चरण (दिसम्बर 1918- जुलाई 1920 ) निवेदन और प्रोत्साहन का था। इसमें जनमत तैयार करना, संगठन बनाना, प्रस्ताव पारित करना और सरकार को याचिकाएं देना मुख्य कार्य था। दूसरा चरण (अगस्त 1920- मार्च 1922) अवपीडन और नरसंहार का था। यह दोनों चरण इस्लाम के परंपरागत कार्य व्यवहार पर जोर देती है, जिसमें कहा गया कि उम्मा के कमजोर होने तक धर्मोपदेश उपयुक्त है परन्तु इसके बाद जब पर्याप्त मात्रा में शक्ति अर्जित कर ली जाए तो बड़े पैमाने पर हिंसा पर बल देता है।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद मुस्लिम असंतोष

1915 से 1918 के मध्य हुई गुप्त संधियों और युद्ध कालीन समझौतों में तुर्की के ओटोमन साम्राज्य का विघटन मुख्य मांग थी। खिलाफत और इस्लाम के पवित्र स्थानों के संरक्षकता के मुद्दों के साथ तुर्की का पतन निकटता से जुड़ा था और ये ऐसे मुद्दे थे जो भारतीय मुस्लिमों को प्रिय थे। भारत के मुस्लिमों को यह भी डर था कि तुर्क ओटोमन साम्राज्य के पतन से भारत के भीतर उनके राजनीतिक महत्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय मुस्लिमों ने यह शिकायत की कि अंग्रेजों के प्रति वफादारी ने उन्हें कोई लाभ नहीं पहुंचाया।

1918 में वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड और ब्रिटिश कैबिनेट में भारत के मंत्री सर एडविन मोंटेग्यू द्वारा संवैधानिक सुधारों पर एक संयुक्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसे मोंटफोर्ड रिपोर्ट के नाम से जाना जाता था। रिपोर्ट में कहा गया कि "1909 में मुहम्मडंस (मुस्लिमों) को पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के साथ विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया था। मुस्लिम पृथक प्रतिनिधित्व और सांप्रदायिक निर्वाचन को अपने एकमात्र पर्याप्त सुरक्षा उपायों के रूप में मानते हैं। हम आश्वस्त हैं कि वर्तमान प्रणाली को बनाए रखा जाना चाहिए। लेकिन हम ऐसा कोई कारण नहीं देखते कि ऐसे प्रान्तों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व स्थापित किया जाए, जहाँ मुस्लिम मतदाता बहुमत में हों। यह सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को बंद करने का सुझाव नहीं था, परन्तु यह मुस्लिम-बहुल प्रांतों में मुस्लिम नेताओं की मुश्किलें को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।

प्रेस एक्ट (1910) और डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट (1915) का इस्तेमाल अक्सर कॉमरेड, हमदर्द, अल-हिलाल, अल-बालघ और जमींदार जैसी मुस्लिम पत्रिकाओं के प्रकाशन को बाधित करने के लिए किया जाता था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रमुख नेता जैसे महमूद अल-हसन, अली बंधु, अबुल कलाम आज़ाद और हसरत मोहानी हिरासत में थे। युद्ध के दौरान जिन प्रमुख नेताओं को नजरबंद कर दिया गया था, उनमें से केवल मौलाना अब्दुल बारी, डॉ अंसारी, हकीम अजमल खान और मुशीर होसैन किदवई राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। 1917 की शुरुआत से, हिरासत में लिए गए मुस्लिम नेताओं को रिहा करने के लिए एक आंदोलन शुरू किया गया था।

हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए गांधी का जुनून

1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में सफल सत्याग्रह अभियान चलाने के बाद भारत लौटे थे। 1917 में गांधी को मुस्लिम नेताओं की रिहाई के अभियान में शामिल होने को तैयार कर लिया गया। उनके मुस्लिम मित्रों का दायरा अब और विस्तृत हो गया, जिसमें अली बंधु, हकीम अजमल खान और मौलाना अब्दुल बारी शामिल थे। अप्रैल 1918 में दिल्ली इम्पीरियल वॉर कॉन्फ्रेंस में दृढ़ता से तुर्की के संबंध में मुस्लिम दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए वो इन नेताओं के लिए सम्मान का पात्र बन गए। फरवरी 1919 में, रोलेट एक्ट को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा पारित किया गया था। इसने कुछ राजनीतिक मामलों को बिना किसी जिरह और बिना किसी मुकदमे के संदिग्धों को नज़रबंद करने की अनुमति दी। इसके परिणामस्वरूप व्यापक असंतोष फैला जिसका चरम 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार में देखने को मिला।

राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही गांधी को हिंदू-मुस्लिम एकता का जुनून था। अम्बेडकर ने गांधी के इस अजीबोगरीब चरित्र का वर्णन इस प्रकार किया, “अपने करियर की शुरुआत में श्री गांधी ने भारत के लोगों को छह महीने के भीतर स्वराज प्राप्त करने का वादा करके चौंका दिया। श्री गांधी ने कहा कि वह चमत्कार कर सकते हैं, यदि कुछ शर्तों को पूरा किया जाए तो। इनमें से एक शर्त हिंदू-मुस्लिम एकता थी। श्री गांधी यह कहते हुए कभी नहीं थकते हैं कि हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना कोई स्वराज नहीं है। श्री गांधी ने न केवल इस नारे को भारतीय राजनीति में वैधता प्रदान की, बल्कि उन्होंने इसे वास्तविकता में लाने के लिए कड़ी मेहनत की है। श्री गांधी ने रोलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह की घोषणा करते हुए मार्च 1919 में निर्धारित किया कि सभाओं में आने वाले जनसमूह को हिंदू-मुस्लिम एकता का संकल्प लेना चाहिए। रौलट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह के अभियान में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसके कारण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई भी टकराव होता। फिर भी गांधी ने अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा लेने को कहा। इससे पता चलता है कि वह हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति शुरू से ही कितने आग्रहशील थे।

गांधी-बारी प्रतिदान

तुर्की के भविष्य पर चिंता की पहली सार्वजनिक अभिव्यक्ति 30, 31 दिसंबर 1918 को दिल्ली में आयोजित ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सम्मलेन में दी गई थी। हालांकि, तुर्की को लेकर आंदोलन ज्यादातर यूपी, बंगाल पंजाब, बॉम्बे और सिंध के बड़े शहरों में केंद्रित था। जाहिर है मुस्लिम लामबंदी पर्याप्त नहीं थी। पैन-इस्लामिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए हिंदू समर्थन की आवश्यकता थी। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के लिए स्रोत सामग्री, 3 मार्च 1919 की अपनी रिपोर्ट में कहती है, “मार्च 1919 में, गांधी अब्दुल बारी के अतिथि के रूप में लखनऊ में थे। एक मुखबिर की रिपोर्ट है कि श्री गांधी ने कुछ समय पहले मौलवी अब्दुल बारी से मुलाकात की और उनके साथ सत्याग्रह आंदोलन पर चर्चा की। कहा जाता है कि गांधी आंदोलन की सफलता के बारे में सबसे अधिक आशावादी थे। उन्होंने अब्दुल बारी से कहा कि उनके पास हर शहर में एजेंट हैं और निष्क्रिय प्रतिरोध का विचार अधिकारियों के अधीनस्थ नौकरों और सेना तक फैलेगा। हिन्दू-मुस्लिम एकता पूर्ण होगी और सरकार पंगु हो जाएगी।

सहमति बनी कि जब आंदोलन अपने चरम पर हो तब उलेमाओं मौलवी और आम मुस्लिमों की एक बड़ी बैठक होगी, जिसमें अब्दुल बारी को शेख-उल-इस्लाम चुना जाना चाहिए और मुस्लिमों को खिलाफत, पवित्र स्थानों आदि के बारे में मांग करनी चाहिये। हिंदू इन मांगों का समर्थन करेंगे, जिन्हें महामहिम वायसराय को इस चेतावनी के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए कि उनकी गैर-स्वीकृति का मतलब जेहाद होगा। हिंदुओं की सहायता के बदले में अब्दुल बारी, शेख-उल-इस्लाम के रूप में एक फतवा जारी करते हुए घोषणा करेंगे कि मूल रूप से इब्राहिम द्वारा बलिदान किया गया जानवर एक भेड़ था गाय नहीं और यह कि भविष्य में गाय का बलिदान निषिद्ध होगा। कहा जाता है कि यह योजना देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसा के व्यापक प्रकोप के कारण बर्बाद हो गई”। गांधी और अब्दुल बारी दोनों एक दूसरे का उपयोग कर रहे थे और जिन मुद्दों पर वे डटे हुए थे वह उनके अपने निजी लाभ के लिए थे। गांधी ने मुस्लिम समर्थन हासिल करने और इसके द्वारा एकजुट भारत का सर्वमान्य नेतृत्व करने के लिए खिलाफत मुद्दे का शोषण किया।' अब्दुल बारी के लिए गांधी के समर्थन का अर्थ खिलाफत आंदोलन को मजबूत करना और शायद उप-महाद्वीप के 'शेख-उल-इस्लाम' के रूप में व्यक्तिगत प्रसिद्धि थी। इसके लिए वह अपने पहले के रुख को संशोधित करने और गोरक्षा का प्रचार करने के लिए तैयार था।

इस्लामी समेकन

19 मार्च 1919 को, फिरंगी महल से जुड़े हुए बॉम्बे के कुछ धनी मुस्लिम व्यवसायियों ने बॉम्बे खिलाफत कमेटी की स्थापना के लिए धन दिया। मई 1919 के मध्य में, अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह ने अंग्रेजों के साथ युद्ध शुरू कर दिया। अखिल-इस्लामवादियों ने अमीर के एजेंटों के साथ तालमेल बनाने में कोई समय नहीं गंवाया। अब्दुल बारी ने एक भड़काऊ पुस्तिका का प्रसार किया और एक लंबा जिहादी पैम्फलेट यूपी में दिखाई दिया जिसमें एक धार्मिक युद्ध की आवश्यकता पर जोर दिया गया। तुर्की के मामले की पैरवी करने के लिए लंदन में प्रतिनिधि मंडलों, लंदन में अखिल-इस्लामी समाजों द्वारा प्रयास और भारत में आंदोलन के बावजूद कोई अनुकूल परिणाम दृष्टि में नहीं आया। उनकी भावनाओं को और अधिक एकजुट अभिव्यक्ति देने के लिए, सितंबर 1919 में लखनऊ में एक आल इंडिया मुस्लिम कांफ्रेंस आयोजित किया गया था, जिसमें विभिन्न राजनीतिक विचारों के लगभग 1000 महत्वपूर्ण मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया था। सम्मेलन द्वारा दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए; पहला, एक केंद्रीय को-ऑर्डिनेटिंग बॉडी की स्थापना और दूसरा, 17 अक्टूबर 1919 को 'खिलाफत दिवस' के रूप में मनाया जाना। मुस्लिम लीग एक आक्रामक सरकार विरोधी लाइन को आगे बढ़ाने के लिए अनिच्छुक थी, इसलिए केवल खिलाफत के प्रश्न के लिए एक अस्थायी संगठन स्थापित करना आवश्यक समझा गया। बॉम्बे की खिलाफत कमेटी को पूरे देश में बनने वाली शाखाओं के साथ एक केंद्रीय निकाय के रूप में नामित किया गया था। परिणामस्वरूप, 11 नवंबर 1919 को हुई एक बैठक में, बॉम्बे खिलाफत कमेटी ने इसका शीर्षक बदलकर “द सेंट्रल खिलाफत कमेटी ऑफ इंडिया, बॉम्बे” कर दिया।

सेंट्रल खिलाफत कमेटी

सेंट्रल खिलाफत कमेटी ने अमृतसर (दिसंबर 1919) और बॉम्बे (फरवरी 1920) में फिर से बैठकें कीं। अपने संविधान के अनुसार, सेंट्रल खिलाफत कमेटी के उद्देश्य थे: तुर्की के लिए न्यायपूर्ण और सम्मानजनक शांति सुरक्षित करना। खिलाफत के मुद्दे का निपटारा। इस्लाम के पवित्र स्थानों और जज़ीरत-उल अरब (अरब प्रायद्वीप) में भी शरीयत की मान्यताओं के अनुरूप समाधान। माननीय श्री लॉयड जॉर्ज द्वारा 5 जनवरी, 1919 को किये गए वायदों को पूरा करने और लॉर्ड हार्डिंग द्वारा तुर्की साम्राज्य की अखंडता के संरक्षण के बारे में दिये गए वचन को पूर्ण करना। उपरोक्त उद्देश्य के लिए ब्रिटिश मंत्रियों, भारत के वायसराय और ब्रिटिश जनता से संपर्क करना। भारत के अंदर और बाहर प्रचार कार्य और इस तरह के अन्य कार्य करना और कदम उठाना जो इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए जिन्हें आवश्यक समझे जायें। सेंट्रल खिलाफत कमेटी का मुख्यालय बॉम्बे में था और इसमें 200 सदस्य शामिल थे।

बाद में 1923 में ये बढ़कर 250 हो गए। बॉम्बे को 54 सीटें दी गईं, सिंध को 20, मद्रास को 15 और शेष सीटें अन्य प्रांतों को गईं। प्रांतीय खिलाफत कमेटियों को सेंट्रल खिलाफत कमेटी के साथ संबद्धता में काम करने की आवश्यकता थी और जहाँ ऐसी समितियाँ मौजूद नहीं थीं वहाँ केंद्रीय निकाय को ही कार्य करना था। केंद्रीय और प्रांतीय कमेटियों को धन एकत्र करना था। 100 से अधिक स्थानीय समितियों और एक विशाल सदस्यता के साथ, यह सबसे शक्तिशाली मुस्लिम निकाय बन गया, जब तक कि 1920 के दशक के उत्तरार्ध में मुस्लिम लीग एक बार फिर से महत्वपूर्ण नहीं हो गई। इसके अलावा इसमें तथाकथित खिलाफत कार्यकर्ता और खिलाफत स्वयंसेवक भी थे। कुछ स्थानों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया गया था जो उन लोगों से चार आना प्रति व्यक्ति चंदा वसूला करते थे जो ख़िलाफ़त का सदस्य बनना चाहते थे। सामूहिक सदस्यता के स्तर पर, कांग्रेस और खिलाफत अनुयायियों के बीच उन वर्षों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं किया जाता था।

मुस्लिम लीग में समान लोगों के साथ कांग्रेस संगठन और कार्यालयों को जोड़ना भी असामान्य नहीं था, और कांग्रेस और खिलाफत कांफ्रेंस और सेंट्रल खिलाफत कमेटी पर भी यही नियम लागू हुआ। ऐसा इसलिए था क्योंकि कांग्रेस ने 1920 की गर्मियों से खिलाफत की मांगों को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया था। विशेष रूप से पंजाब, सिंध, बॉम्बे, यूपी, बिहार, बंगाल और मद्रास में बड़ी बैठकें हुईं। आंदोलन गाँवों तक भी फैल रहा था। इसमें न केवल मुस्लिम जनता, बल्कि मुस्लिम उदारवादियों ने भी भाग लिया। एक अपवाद के रूप में कुछ उदार मुस्लिमों ने, विशेष रूप से जिन्ना ने खिलाफत आंदोलन को "एक झूठा धार्मिक उन्माद" माना, जिसमें अंत में कुछ भी अच्छा नहीं होने वाला था, ना तो सामान्य रूप से भारत के लिए और ना ही विशेष रूप से भारतीय मुस्लिमों के लिए। यह उल्लेखनीय है कि खिलाफत आंदोलन की इन शुरुआती अभिव्यक्तियों में, हिंदुओं या स्वराज के साथ सहयोग का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इसके विपरीत, सिंध में खिलाफत कांफ्रेंस के अध्यक्ष सेठ हाजी अब्दुल्ला हारुन जो 1911-1913 के दौरान में सिंध रेड क्रीसेंट सोसाइटी के प्रमुख व्यक्ति थे ने "चरमपंथियों और होम रुल आन्दोलनकारियों के एकजुट होने की कड़ी शिकायत की थी।

हिंदू गलतफहमी

ख़िलाफ़त आंदोलन के समर्थकों को तथाकथित हिंदू-मुस्लिम एकता पर संदेह था। 1913 में ही, मुहम्मद अली ने हिंदू और मुस्लिम नेताओं को “आवश्यक के लिए आकस्मिक गलती” और “समस्याओं के शब्दों की बाढ़ में डूबने” के खिलाफ एक समान चेतावनी दी थी। इस घटना के कई साल बाद, मुस्लिम लीग के नेता चौधरी खलीकुज्जमाँ ने अपने संस्मरण में मुसलमानों के "मूर्खतापूर्ण उत्साह" का वर्णन किया, जो स्वामी श्रद्धानंद को दिल्ली में मस्जिद के अंदर ले गए थे। संभवतः इन घटनाओं के कुछ तीस साल बाद नेहरू ने बुद्धिमान बनते हुए "गांधी द्वारा विभिन्न असंतोषों के बीच कृत्रिम एकता" की रचना की बात की। बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए खिलाफत आंदोलन के धार्मिक और यहां तक कि राजनीतिक पहलुओं में बहुत कम अपील थी। उनके नेताओं में, पंडित मदन मोहन मालवीय (1861-1946) शायद मुख्य संदेहवादी थे। दिसंबर 1918 में, कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने खिलाफत मुद्दे पर समर्थन देने के लिए चित्तरंजन दास (1870-1925) की याचिका को खारिज कर दिया था।

शंकरन नायर (1857-1934, 1897 कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष) ख़िलाफ़तवादियों के उद्देश्यों के लिए खुले तौर पर आलोचनात्मक थे! लोकमान्य तिलक (1856-1920) इसी तरह के एक और संशयवादी थे। वल्लभभाई पटेल (1875-1950) और इंदुलाल के. याज्ञिक (1892-1972, 1918 में गाँधी के खेड़ा सत्याग्रह में भाग लेने वाले) ने खिलाफत के पवित्र उद्देश्यों पर कई “अपवित्र चुटकुलों और मजाक” का आदान-प्रदान किया। बिपिन चंद्र पाल (1858-1932), जिन्होंने हमेशा अखिल-इस्लामवाद के वायरस के खौफ से आगाह किया, वह भी इसे अपना समर्थन देने से कतरा रहे थे। मोतीलाल नेहरू (1861-1931) ने माना कि खिलाफत के सवाल की तुलना में देश के अन्दर और हमारे आसपास ऐसे बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर हमें ध्यान देना चाहिए। गोपाल कृष्ण गोखले के अनुयायी; वीएस श्रीनिवास शास्त्री (1869-1946), जिन्हें गांधी जी 'बड़े भाई' के रूप में संबोधित करते थे, ने भी गांधी को सलाह दी थी कि वे खिलाफत आंदोलन से दूर रहें क्योंकि 'हमें भारत सरकार को शर्मिंदा करने का कोई अधिकार नहीं है'।

कुछ अन्य लोग भी थे जिन्होंने केवल मौखिक समर्थन दिया था और कुछ ऐसे थे जिन्होंने गौ रक्षा से जुड़ी शर्त को मुस्लिमों के साथ सहयोग की एक पूर्व अनिवार्य पूर्व शर्त माना। गांधी के प्रयासों और उनके ऐसे दावों के बावजूद कि इक्कीस करोड़ हिंदू, मुस्लिमों की उनकी इच्छित शर्तों को प्राप्त करने में मदद करने के लिए सरकार से भिड़ने को तैयार थे, खिलाफत दिवस (17 अक्टूबर 1919) के कार्यक्रम में हिंदू-मुस्लिम एकता का ऐसा कोई उत्साह नहीं देखा गया। केवल ढाका, बॉम्बे, लखनऊ, हैदराबाद (सिंध), सुकुर और कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं ने मुसलमानों के प्रदर्शन में शामिल हुए और हड़तालों में सहभागिता की। 1920 में सेंट्रल खिलाफत कमेटी की एक बैठक में, “चरमपंथी मुस्लिम नेताओं ने अफगान सेना में शामिल होने की वकालत की, जो भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए आक्रमण कर सके। हिंदू नेताओं ने इस पर स्पष्टीकरण की मांग की और यह स्पष्ट किया कि ऐसे किसी भी खतरे के संकेत पर हिंदू सहयोग करना बंद कर देंगे”।

अनुनय से लेकर जबरदस्ती तक

सभी प्रयासों के बावजूद, प्रधान मंत्री लॉयड जॉर्ज के भाषणों ने गंभीर संदेह पैदा किया कि तुर्की को वह समाधान मिलेगा जो खिलाफत आन्दोलनकारी उम्मीद कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के अंत का जश्न मनाने के लिए दिसंबर 1919 में भारत में शांति समारोह का आह्वान किया था| जब 23 नवंबर 1919 को, आल इंडिया खिलाफत कांफ्रेंस का पहला सत्र दिल्ली में शुरू हुआ; तो सर्वसम्मति से इस शांति समारोह का धार्मिक कर्तव्य के रूप में बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया। जिम्मेदार ब्रिटिश मंत्रियों के समक्ष अपनी माँग रखने के लिए ब्रिटेन में प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया गया। यदि यह वांछित परिणाम लाने में विफल रहा, तो ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार शुरू करने का निर्णय लिया गया, इसके पश्चात भी यदि आवश्यकता होती है तो सरकार के साथ सहयोग की क्रमिक समाप्ति की जानी थी। असहयोग के बारे में गांधी ने ब्रिटिश सामान के बहिष्कार और हिंसा पर मुस्लिम समुदाय के आग्रह को दरकिनार करने का सुझाव दिया था।

खिलाफत आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण हिंदू समर्थन पाने के लिए, अगले दिन (24 नवंबर 1919) को हिंदू और मुस्लिम प्रतिनिधियों की एक विशेष संयुक्त बैठक हुई। गांधी को पुचकारने के लिए उन्हें अध्यक्ष बनाया गया और उनके द्वारा विरोध किए गए ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार का प्रस्ताव वापस ले लिया गया। हिंदू अनुमोदन प्राप्त करने के लिए, फ़ज़लुल हक ने पंजाब के मुद्दे (जलियाँवाला बाग हत्याकांड और मार्शल लॉ) को ख़िलाफ़त के मुद्दे से जोड़ने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन यह प्रस्ताव इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि गांधी इसके विरोध में थे। वह चाहते थे कि खिलाफत का मुद्दा असहयोग का एकमात्र आधार हो। खिलाफतवादियों ने शांति समारोहों का सफलतापूर्वक बहिष्कार किया। सेन्ट्रल खिलाफत कमेटी में उदारवादी व्यापारी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया और अली बंधु खिलाफत आंदोलन के नेता बन गए। अप्रैल और मई 1920 में बॉम्बे में सेन्ट्रल खिलाफत कमेटी बैठकों में असहयोग के सिद्धांत को स्वीकार किया गया था और इसके आरम्भ के लिए एक योजना बनाने के लिए एक समिति नियुक्त की गई।

जून 1920 में इलाहाबाद में आल इंडिया खिलाफत कांफ्रेंस ने "बिना और देरी के" असहयोग को बल देने का संकल्प लिया; यद्यपि वायसराय को "एक महीने की चेतावनी" दी गई थी। जबकि खिलाफतवादियों ने बिना बहुत अधिक विरोध किये असहयोग कार्यक्रम स्वीकार कर लिया वहीँ कांग्रेस को ऐसा करने में अधिक समय लगा। प्रारंभ में खिलाफतवादी कांग्रेस से एक अच्छा सौदा करने के लिए तैयार थे। उनके कार्यक्रम में पुलिस और सेना से इस्तीफा देना और करों का भुगतान करने से इनकार करना शामिल था, जबकि कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रारंभ में लोगों को सेना में भर्ती के लिए खुद को प्रस्तुत न करने की सलाह देने की परिकल्पना की थी। इन व्यापक रूप से भिन्न कार्यक्रमों ने कांग्रेस में हिंदू नेताओं के भीतर की लहर को प्रतिबिंबित किया। गांधी ने कांग्रेस के भीतर खिलाफत आंदोलन के विरोध को कैसे बेअसर किया और इसे खिलाफत के लिए आन्दोलन करने के लिए कैसे मजबूर किया, यह एक दूसरी कहानी है। गांधी जैसे सहयोगी के साथ अनुनय का समय समाप्त हो गया था; अब खिलाफतवादियों के लिए ज़बरदस्ती और नरसंहार का समय था!

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)