राहुल वर्मा। लोकसभा चुनावों के लिए पांच चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है और इस दौरान करीब 80 प्रतिशत सीटों पर चुनाव निपट गया। इस चुनावी कवायद में बहस के तमाम मुद्दे छाए रहे और सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा 400 पार का दावा ही मुख्य रूप से चर्चा में रहा। भाजपा के कई नेता इस दावे पर टिके हुए हैं तो दूसरी ओर आइएनडीआइए के नेता अपने लिए 300 सीटों का दावा करने में लगे हैं। शेष दो चरणों में 115 सीटों की लड़ाई का ही खेल बचा है। ऐसा लगता है कि भाजपा ने अपने चार सौ का ऐसा विमर्श बुना कि विपक्षी खेमा भी इसी में फंसकर रह गया।

विपक्षी खेमा अपनी सीटों से ज्यादा हर चरण के साथ भाजपा की संभावित सीटों की संख्या घटाने में लगा हुआ है। ऐसे में, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी अपनी सीटों से ज्यादा भाजपा को कितनी सीटें आएंगी, इसे लेकर उत्सुकता बनाए हुए है। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि कांग्रेस 2019 के अपने प्रदर्शन को क्या बेहतर कर पाती है और यदि कर पाती है तो कितना बेहतर। ऐसा इसलिए, क्योंकि देश की लगभग 200 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा ने इनमें से 90 से 95 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज की है।

इसलिए जब तक कांग्रेस की ओर से इन सीटों पर भाजपा को कड़ी चुनौती नहीं मिलती तब तक उसकी सीटों की संख्या में बड़ी बढ़ोतरी की कोई संभावना नहीं बनेगी। पिछले दो चुनावों की बात करें तो 2014 में कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं तो 2019 में उसे 52 सीटें हासिल हुईं। पिछले चुनाव में उसकी कुछ सीटें भले ही बढ़ गई हों, लेकिन उसके लिए चिंतित करने वाला पहलू यही था कि दूसरे स्थान पर रहने वाले कांग्रेस प्रत्याशियों की संख्या 2019 में काफी घट गई थी। यानी कांग्रेस कई सीटों पर तीसरे या उससे भी निचले स्थान पर फिसल गई। केरल के अलावा किसी राज्य में वह दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाई। ऐसे में यह देखना होगा कि इस स्थिति में कांग्रेस कहां तक सुधार लाने में सक्षम हो सकेगी।

आसार ऐसे दिखते हैं कि पिछले दोनों चुनाव की तुलना में शायद कांग्रेस की सीटें कुछ बढ़ेंगी, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी सैकड़ा लगा पाएगी? कांग्रेस की कुछ उम्मीदें मोदी सरकार के खिलाफ थोड़े-बहुत सत्ता विरोधी रुझान से भी परवान चढ़ रही हैं। इसके अतिरिक्त पिछले चुनाव से अब तक के बीच में उसने चुनावी चुनौती के लिए खुद को बेहतर ढंग से तैयार करने पर काम भी किया है। इसमें सबसे पहली कड़ी तो आइएनडीआइए जैसे मोर्चे की है, जो भले ही साझा नेतृत्व समेत कई पहलुओं का समाधान न निकाल पाया हो, लेकिन भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त गठबंधन के रूप में अवश्य उपस्थित है।

उसके सूत्रधार रहे नीतीश कुमार भले ही पाला बदलकर भाजपा के खेमे में चले गए हों या ममता बनर्जी साथ मिलकर चुनाव न लड़ रही हों, लेकिन आइएनडीआइए एक साझा विपक्षी चुनौती के रूप में आकार जरूर ले सका। दूसरी बात यह कि इस दौरान राहुल गांधी ने दो बड़ी राजनीतिक यात्राएं निकालकर देश के एक बड़े हिस्से तक अपनी पहुंच बढ़ाई। सवाल यही है कि क्या उनकी ये यात्राएं वोटों के मोर्चे पर कुछ करिश्मा कर पाएंगी या नहीं। वंशवाद के आरोपों से जूझने वाली कांग्रेस ने इसे लेकर किए जाने वाले हमले की हवा निकालने के लिए परिवार से बाहर के नेता मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष भी बनाया।

भले ही खरगे को कुछ लोग दिखावटी मुखिया मानते हों, लेकिन कई मौकों पर उन्होंने यह दिखाया कि पार्टी में उनका एक बड़ा कद है। एक प्रकार से कांग्रेस ने पार्टी का सांगठनिक ढांचा खरगे के जिम्मे सौंपकर राहुल को वैचारिक एवं नेतृत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ाने का काम किया है। पता नहीं यह दांव मतदाताओं को कितना प्रभावित कर पाएगा, लेकिन इसके माध्यम से कांग्रेस ने खुद को एक वैचारिक दृष्टिकोण देने का प्रयास किया है।

अतीत में यही देखने को मिला है कि कांग्रेस ने जब भी मोदी को निशाना बनाया तो उसे मुंह की खानी पड़ी है। ऐसे में इस चुनाव में कांग्रेस मोदी को सीधे निशाना बनाने की अपनी पुरानी गलती से सबक लेते हुए आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। उसका प्रचार अभियान सकारात्मक बिंदुओं पर केंद्रित है। उसने कुछ जरूरी सवालों को समस्या के रूप में उभारकर उनके समाधान के लिए ‘हाथ बदलेगा हालात’ जैसा नारा गढ़ा है।

पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार कांग्रेस की कुछ बेहतर संभावनाओं के तार दक्षिण भारत में उसके प्रदर्शन से भी जुड़े हैं। पिछली बार पार्टी ने सिर्फ केरल में अच्छा प्रदर्शन किया था और उसे इस बार भी वहां प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद है। तमिलनाडु में वह द्रमुक के साथ मजबूत गठबंधन का हिस्सा बनी हुई है। तेलंगाना और कर्नाटक में उसकी सरकारें हैं तो वह दोनों ही राज्यों से अपनी सीटों की संख्या में भारी बढ़ोतरी की आस लगाए हुए है।

आंध्र प्रदेश में भी वह वाईएसआर कांग्रेस, तेदेपा-जनसेना और भाजपा गठबंधन के साथ त्रिकोणीय मुकाबले में अपने लिए अच्छी संभावनाएं देख रही है। पार्टी ने यहां मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की बहन वाईएस शर्मिला को कमान सौंपकर आक्रामक अभियान चलाया। पार्टी को पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में भी अपनी स्थिति पहले से बेहतर नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश में सपा, बिहार में राजद और झारखंड में झामुमो तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे एवं शरद पवार की पार्टियों के भरोसे उसे पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है।

इन स्थितियों के बावजूद यदि कांग्रेस सौ सीटों का आंकड़ा नहीं छू पाती तो फिर उसके लिए मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। यदि उसकी सीटों की संख्या नहीं बढ़ी तो उसके समक्ष अपने आप को एक राष्ट्रीय दर्जे की पार्टी के रूप में बनाए रखने का संकट और गहराता जाएगा। दस वर्षों से केंद्र और तमाम राज्यों की सत्ता से बाहर कांग्रेस के कितने नेता तब पार्टी में टिक पाएंगे यह एक बड़ा सवाल बन जाएगा। बीते पांच वर्षों के दौरान कई दिग्गज पार्टी से पहले ही किनारा कर चुके हैं। ऐसे में यह चुनाव कांग्रेस के भविष्य के लिए बहुत निर्णायक हो गया है।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)