जीएन वाजपेयी। आम चुनाव के नतीजों की तरह-तरह से व्याख्या हो चुकी है और यह सिलसिला अब भी कायम है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव परिणाम कुछ अनपेक्षित रहे। प्रतीत होता है कि आर्थिक दुश्वारियां, बेरोजगारी एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खतरे और संविधान बदलने जैसे नैरेटिव ने नतीजों को विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र में जनमत को व्यापक रूप से प्रभावित किया।

भारतीय राष्ट्र के निर्माताओं का यह स्वप्न था कि देश प्रगति के शिखर को छुए। अंडमान की एक यात्रा के दौरान मुझे एक स्वतंत्रता सेनानी का यह संदेश पढ़ने को मिला कि ‘कृपया उन्हें यह बताना कि मैंने अपना काम कर दिया है, अब उनकी बारी है।’ जिन क्रांतिकारी ने यह संदेश लिखा था, उन्हें फांसी होने वाली थी। उन्होंने यह संदेश अंडमान से रिहा होकर गांव जाने वाले अपने साथी को दिया था कि वह ग्रामीणों के नाम उनका यह संदेश दें।

मौजूदा पीढ़ी को भी उस संदेश के व्यापक मर्म को समझते हुए देश में विपन्नता के दायरे को समाप्त कर उसे समृद्धि की राह पर आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करने के लिए उसे प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए। मौजूदा सरकार ने पिछले कार्यकाल में ही देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया था। यदि इस लक्ष्य की प्राप्ति करनी है तो अगले 23 वर्षों तक कम से कम सात प्रतिशत या उससे अधिक की औसत सालाना जीडीपी वृद्धि दर हासिल करनी होगी।

जीडीपी वृद्धि मुख्य रूप से तीन उत्पादन कारकों-भूमि, श्रम और पूंजी की उपलब्धता एवं उत्पादकता से प्रभावित होती है। भू-राजनीतिक पृष्ठभूमि और व्यापक वैश्विक आर्थिक परिदृश्य यह मांग करता है कि इन तीनों कारकों के बीच उचित समन्वय, दूरदर्शी नियोजन और इष्टतम उपयोग सुनिश्चित किया जाए। जहां पूंजी दक्षता के मामले में भारत की स्थिति कई अन्य देशों से बेहतर है, वहीं वह श्रम उत्पादकता के मोर्चे पर पिछड़ा हुआ है। 2017 की क्रय शक्ति क्षमता (पीपीपी) के आधार पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने 2022 में श्रम उत्पादकता के मोर्चे पर भारत को 126वें स्थान पर रखा था।

हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि भूमि की उपलब्धता एवं लागत बुनियादी ढांचा विकास और उद्योगीकरण की राह में अवरोध बने हुए हैं। जीडीपी वृद्धि दर की गति बढ़ाने में कृषि क्षेत्र की क्षमताएं भी एक बाधा बनी हुई हैं। यदि कृषि क्षेत्र का योगदान भी मैन्यूफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्रों के अनुपात में बढ़ जाए तो 2024 की जीडीपी वृद्धि दर 10 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर जाएगी। वास्तव में ये तीनों क्षेत्र व्यापक सुधारों की मांग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले कार्यकाल में इस तात्कालिक आवश्यकता को समझते हुए अपनी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगाकर सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाए थे, लेकिन सहमति के अभाव में ऐसे सुधार अधर में अटक गए।

भूमि, श्रम और कृषि भावनात्मक मुद्दे हैं। भारत के जीवंत बहुदलीय लोकतंत्र में भावनात्मक मुद्दों पर राजनीतिक सहमति बनाना एक बहुत चतुराई भरा काम है। चूंकि इसमें समय लगता है अतः धैर्य की परीक्षा भी होती है। एक समय नगालैंड में मुख्यमंत्री के पूर्ण वरदहस्त के साथ राज्य के मुख्य सचिव आरएस पांडेय ने स्वास्थ्य, शिक्षा और बिजली जैसे क्षेत्रों में ‘कम्युनिटाइजेशन’ यानी समुदायों की भूमिका को बढ़ावा दिया था। यह कवायद विभिन्न समुदायों के नेताओं, राजनीतिक दलों, मीडिया से लेकर विभिन्न प्राधिकरणों जैसे तमाम अंशभागियों के सहयोग से संपन्न हुई थी। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था ने भी उसका संज्ञान लिया था।

मोदी ने भी 2017 में जीएसटी जैसी सार्वभौमिक कर व्यवस्था के सूत्रपात के साथ ऐसा करिश्मा कर दिखाया था। पूर्व की कई सरकारें यह नहीं कर पाईं। मोदी के नेतृत्व में एक लंबी कवायद के बाद ऐसी व्यवस्था की राह में लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध दूर हुआ। तत्कालीन वित्त सचिव ने बताया था कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने जीएसटी को लेकर समझ बनाने में कैसी भूमिका निभाई और कितने धैर्य का परिचय दिया। मोदी 2047 तक भारत को विकसित बनाने का संकल्प दोहरा रहे हैं। यह भारत के आर्थिक उत्थान की राष्ट्रीय इच्छा का प्रतीक है। यह आह्वान सभी दलों को प्रेरित करने वाला बने कि वे अपने संकीर्ण हितों को पीछे छोड़कर विकसित राष्ट्र बनाने के बिंदुओं पर सहमति के साथ आगे बढ़ें।

कारोबार को सुगम बनाने की राह में वास्तविक कुंजी अनुबंधों के प्रवर्तन में निहित है। किसी अनुबंध के प्रवर्तन में औसतन 1445 दिन का समय लगता है और लागत में 31.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखती है। अपने देश में आम नागरिक न्यायिक अक्षमताओं से भी कुछ त्रस्त हो चुका है। न्यायपालिका व्यापक सुधारों की मांग कर रही है। इसमें देरी से तंत्र के प्रति भरोसा और घटेगा। यहां भी किसी प्रकार के कायाकल्प के लिए न्यायाधीशों, वकीलों, नेताओं और नागरिक समाज से जुड़े संस्थानों सरीखे विभिन्न अंशभागियों के बीच सहमति आवश्यक होगी।

बढ़ती आर्थिक असमानता चिंता बढ़ा रही है। यह असमानता मुख्य रूप से दो श्रेणियों में है। एक तो अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई और दूसरी राज्यों के स्तर पर। आर्थिक असमानता समान अवसरों के अभाव से उपजती है। जबकि संविधान की प्रस्तावना ही प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता की उद्घोषणा करती है। नागरिक प्रशासन के पास नीतियों के क्रियान्वयन का दायित्व है, जो अपनी न्यूनतम दक्षता से काम करता है, जिससे लोगों में निराशा विशेषकर वंचितों में असंतोष उत्पन्न होता है। एक नव स्वतंत्र राष्ट्र को उन्नति की राह पर आगे बढ़ाने के लिए जिस नौकरशाही की संकल्पना की गई थी, उसे नए सिरे से गढ़ने की आवश्यकता है। विभिन्न राज्यों के बीच आय एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के स्तर पर बढ़ रही असमानता को भी जल्द से जल्द दूर किया जाना चाहिए।

अतिरिक्त संसाधनों का आवंटन, निवेशकों के बीच भरोसा बढ़ाना और क्रियान्वयन क्षमताओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इन सुधारों के अभाव में वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न दूर की कौड़ी ही सिद्ध होगा। भारत की जनता अपनी नई सरकार के भावी कदमों की व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रही है। तमाम लोग प्रचंड गर्मी के दौरान जान जोखिम में डालकर सरकार चुनने के लिए वोट डालने बाहर निकले। यदि लोगों को सरकार से निराशा हाथ लगती है तो उनकी पीड़ा आक्रोश में बदल सकती है।

(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)