गिरीश्वर मिश्र। विश्व के सबसे बड़े चुनाव के दौरान देश की जनता को भारतीय लोकतंत्र की चाल-ढाल की विलक्षण छटाएं देखने को मिलीं। 11 लाख और 8 लाख से अधिक के अंतर से लोग जीते तो नोटा का भी इस्तेमाल किया गया। निर्वाचन आयोग पर तोहमतें लगती रहीं, पर उसने मुस्तैदी से और निष्पक्षता से कार्य किया। संविधान, लोकतंत्र और ईवीएम पर सवाल उठे, लेकिन नतीजों ने ऐसा करने वालों को गलत साबित कर आईना दिखाया। नतीजे बता रहे कि भारतीय लोकतंत्र को कहीं कोई खतरा नहीं। चुनावी सरगर्मी कभी नर्म-गर्म रही तो कभी तल्ख हुई। एक ओर से अतिरेक का उत्तर भी अतिरेक से ही दिया जाता रहा।

ऐसे क्षण भी आए, जब शिष्टाचार की मर्यादाएं टूटती नजर आईं। इस ओर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उचित ही टिप्पणी की। निर्वाचन आयोग ने प्रचारकों को सख्त हिदायत दी और कुछ को प्रचार कार्य से अलग भी किया। सत्ताधारी दल में अतिआत्मविश्वास था कि 400 से अधिक सीटें जीतेंगे। उसे सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा तो मिला, लेकिन पिछली बार से कम सीटें ही मिल सकीं। मोदी काल में कई मोर्चों पर सक्रियता का ही फल है कि छह दशक पहले का इतिहास दोहराते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग लगातार तीसरी बार सरकार बना सका। कांग्रेस ने पिछले चुनाव की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया।

चुनाव में तमाम सवाल उठे। सनातन और राम-मंदिर निर्माण को लेकर भी अनर्गल प्रश्न उछलते रहे। विपक्षी दलों ने अपनी शक्ति-सामर्थ्य के बिंदु गिनाने में जितना श्रम किया, उससे अधिक विरोधी के छिद्रान्वेषण में लगाया। शक्ति और सामर्थ्य के नाम पर दिवास्वप्न सरीखे प्रलोभनों की यह लंबी सूची तैयार की जाती रही कि अगर सरकार बन गई तो किसे क्या-क्या दिया जाएगा। चुनाव के बीच अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक के विवाद को भी तूल दिया गया। बहुसंख्यक होने से हिंदू और हिंदुत्व को संशयग्रस्त पहचान के रूप में स्थापित करना और अल्पसंख्यक के लिए खतरे से रक्षा का नाटक अपने वोट सुरक्षित करने के लिए किया जाता रहा। यह राष्ट्र बोध और देश, संस्कृति सभ्यता सबको हाशिए पर धकेलने का उपक्रम बन गया।

हमेशा की तरह जाति को लेकर टिकट बांटने और मतदाताओं को अपने पक्ष में लेने की कोशिश सभी दलों ने की। जाति समाज की एक सच्चाई है और सभी दल उसकी निंदा करते हैं, परंतु उसी का सहारा भी लेते हैं। चुनाव नतीजों ने जाति के बनते-बिगड़ते समीकरणों की भूमिका फिर दिखा दी। विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय मुद्दे भी छाए रहे। इसके बाद भी सबके मन में केंद्र में एक मजबूत सरकार लाने की इच्छा थी। भाजपा को इससे लाभ मिला।

भाजपा दक्षिण भारत में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही। चुनाव परिणाम जनता के विश्वासमत की पुष्टि करते हैं। परिणाम इसके परिचायक हैं कि लोकतंत्र के भविष्य को लेकर जो सवाल-संदेह उठाए जा रहे थे, वे निराधार थे। संदेह जताने वालों को जनता ने यही जवाब दिया कि यह महज एक दुष्प्रचार ही था कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। करीब 64 करोड़ वोटों के आधार पर आए नतीजे ये बताते हैं कि भारतीय लोकतंत्र सबल है और उसकी जड़ें मजबूत हो रही हैं।

चुनावों में कई पार्टियों के दावों, वादों, आरोप-प्रत्यारोप की भाषा जमीनी वास्तविकताओं की जगह दिवास्वप्न को रेखांकित कर रही थी। इससे जनता के सामने चकित, भ्रमित और भयभीत होने की स्थितियां भी आती रहीं। लोकतंत्र के आसन्न विनाश, संविधान का समापन, आरक्षण नीति पर ग्रहण आदि से जुड़ा दुष्प्रचार तथा राजकीय तंत्र के दुरुपयोग से जुड़े आरोपों को लेकर भारत में लोकतंत्र के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाया जाता रहा।

हास्यास्पद टिप्पणियों और तर्कहीन अधकचरे प्रस्तावों के साथ कर्ज माफी, विभिन्न समुदायों को सहायता राशि की सौगातें बांटने, आरक्षण की सीमा घटाने-बढ़ाने और उसे पंथ-समुदाय की सदस्यता से जोड़ने की घोषणाओं से जनता को लुभाने के प्रयास किए जाते रहे। चूंकि मोदी सरकार ने एक दशक में जमीनी परिस्थिति को बदलने का काम किया था, इसलिए इसका सीधा अनुभव जनता को हुआ था। इस बार का जनादेश मोदी की राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता की पुष्टि करता है। अमृतकाल में विकसित भारत का संकल्प लेकर उस दिशा में अग्रसर होने को उद्यत मोदी भारत के प्रतिनिधि के रूप में अब पुन: प्रतिष्ठित हो रहे हैं।

एक समर्थ, शक्तिशाली और संभावनाशील भारत की छवि को अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी के साथ प्रधानमंत्री मोदी की रीति-नीति परीक्षा की कसौटी पर कसी जाएगी। महंगाई और रोजगार के सवाल नीतिगत हस्तक्षेप की मांग करते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय अभी भी कड़ी चुनौती दे रहे हैं, जहां अतिरिक्त संसाधनों का निवेश और व्यवस्थागत परिवर्तन स्वाभाविक हो गए हैं। यदि समाज, विशेषतः युवा वर्ग स्वस्थ और सुशिक्षित नहीं होगा तो विकास के सपने अपूर्ण रह जाएंगे। इससे इन्कार नहीं कि ये विषय अभी भी उपेक्षित हैं।

इसी तरह से न्याय व्यवस्था और उसके कायदे-कानून तकनीकी दृष्टि से बड़े पेचीदा, खर्चीले और अनावश्यक रूप से समयसाध्य बने हुए हैं, जिनसे न्याय पाने में विलंब होता है और लोग बेवजह सताए जाते हैं। इनमें जरूरी बदलाव अत्यंत आवश्यक है। इसी तरह व्यवस्थागत सुधार ले आने की आवश्यकता भी सभी महसूस करते हैं। नौकरशाही के जोर के आगे उसमें बदलाव लाना टेढ़ी खीर है, पर उसे करने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच की खाई पाटना भी सरल नहीं है। भारत जैसे विविधतापूर्ण और विशाल देश की आकांक्षाओं को आकार देने का ऐतिहासिक कार्य प्रभावी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा है। आशा है नई सरकार इन प्रश्नों पर प्राथमिकता से ध्यान देगी और कार्रवाई करेगी।

(लेखक प्रोफेसर एवं कुलपति रहे हैं)