सपना ही रह गया एक समान कर, नोटंबदी पर थम गया साल का सफर
जीएसटी से शुरू हुुआ सरकार के इस साल का सफर नोटबंदी पर समाप्त हो गया। फिलहाल जीएसटी का लागू होना दूर की ही कौड़ी लग रही है।
नई दिल्ली (नितिन प्रधान)। पिछले साल मई में पूरे देश में एक समान अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक के लोकसभा से पारित होने के बाद ही लगने लगा था कि साल 2016 में यह सपना पूरा हो जाएगा। उस वक्त और साल 2016 के शुरू होने तक यह लग रहा था कि अप्रैल नहीं तो अक्टूबर 2016 से देश में जीएसटी लागू हो ही जाएगा और सरकार अपने लक्ष्य को पाने में सफल होगी। लेकिन साल खत्म होते होते देश के आर्थिक परिदृश्य में घटनाक्रम का चक्र इतनी तेजी से घूमा कि जीएसटी पार्श्व में चला गया और साल 2016 नोटबंदी के नाम हो गया। साल के अंत तक पूरे देश में एक कर लागू करने का यह सपना लगता है 2017 के लिए भी सपना ही बना हुआ है।
जीएसटी हो सकता था उपलब्धि
लंबे समय से लंबित चल रहे जीएसटी को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच करीब मई 2015 के बाद से ही खींचतान शुरू हो गई थी। इस कानून को लागू करने के लिए जरूरी संविधान संशोधन विधेयक को राज्य सभा से पारित कराने में एक वर्ष का समय लगा। वस्तुओं और सेवाओं पर लगने वाले एक कर की इस व्यवस्था को पहली अप्रैल 2016 से लागू कराने का लक्ष्य रखा गया था उसके अब अप्रैल 2017 से भी लागू होने की उम्मीद नहीं है। अगर सरकार राज्यसभा में पारित कराने के बाद अगला कदम भी इसी वर्ष बढ़ा लेती तो संभवत: यह आर्थिक क्षेत्र में 2016 की बड़ी उपलब्धि होती।
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अन्य कार्यक्रमों की रफ्तार भी धीमी
नीतिगत जड़ता के कारण धीमी पड़ी आर्थिक विकास की रफ्तार को तेज करने के लिए सरकार ने साल 2016-17 के वित्त वर्ष में जीएसटी समेत कई आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया था। आर्थिक सुधारों के मामले में श्रम कानूनों में बदलाव के साथ साथ मैन्यूफैक्चरिंग की रफ्तार बढ़ाने को मेक इन इंडिया और देश के दूरदराज के इलाकों में इंटरनेट की सुविधा पहुंचाने के लिए डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रमों को गति देने का लक्ष्य था। लेकिन इन मोर्चो पर सरकार बहुत कुछ नहीं कर सकी। अर्थव्यवस्था में मांग की कमी के चलते मैन्यूफैक्चरिंग में न तो नए निवेश को आकर्षित किया जा सका और न ही ब्याज दरों को नीचे लाकर मांग बढ़ाने का सपना पूरा हो पाया।
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विकास दर का लक्ष्य भी पिछड़ा
अर्थव्यवस्था में सुस्ती के चलते आर्थिक सुधारों पर भी बहुत तेजी से आगे नहीं बढ़ा जा सका। चूंकि 2016 में मानसून को लेकर पहले से ही काफी सकारात्मक संकेत मिल रहे थे इसलिए माना जा रहा था कि बेहतर कृषि पैदावार और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों से मिला बढ़ा वेतन देश के बाजार में मांग की कमी को दूर करेगा। सरकार पहले से ही राजस्व की कमी से जूझ रही थी। इसलिए यह जरूरी था कि बाजार में मांग बढ़े ताकि कंपनियों की आमदनी में वृद्धि हो और सरकार के खजाने में कर राजस्व आ सके।
लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा न हो सका। आर्थिक विकास दर के 7.6 फीसद के जिस लक्ष्य को सरकार ने वर्ष की शुरुआत में तय किया था अब लग रहा है कि यह करीब करीब सात फीसद के आसपास तक ही सिमट जाएगा। नोटबंदी ने मांग की इस कमी को और गंभीर बनाया है और साल 2017 में विकास दर की वृद्धि की चुनौती बढ़ा दी है। लाइटनिंग क्षेत्र की कंपनी एनटीएल के प्रबंध निदेशक अरुण गुप्ता मानते हैं, 'करेंसी की सप्लाई सामान्य होने के बाद मांग बढ़ने की स्थिति में महंगाई जैसी चुनौतियों से जूझने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक को तैयार रहना होगा।'
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रोजगार के अवसर पैदा करना भी साल 2016 में सरकार के लिए बेहद चुनौती भरा लक्ष्य रहा। लेकिन मेक इन इंडिया की रफ्तार धीमी रहने के बाद सरकार ने इसके लिए स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने का फैसला लिया। मुद्रा ऋणों व कौशल विकास के जरिए ऐसा करने की कोशिश भी हुई। लेकिन रोजगार के क्षेत्र में ये प्रयास अर्थव्यवस्था के बदलाव की पहचान नहीं बन सके।
लेकिन ऐसा हो पाता इससे पहले ही नवंबर में सरकार ने पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों के चलन को रोक दिया। ऐसा करने के पीछे सरकार का उद्देश्य कालेधन पर लगाम लगाना था। हालांकि इस लक्ष्य को सरकार प्राप्त कर पायी या नहीं यह बहस का अलग विषय हो सकता है। लेकिन सरकार का नोटबंदी का फैसला पूरे वर्ष की आर्थिक गतिविधियों पर भारी पड़ा। हालांकि कुछ विशेषज्ञों की राय में इस कदम से आर्थिक विकास की दर प्रभावित होगी। लेकिन यह भी सही है कि यह लेसकैश अर्थव्यवस्था के निर्माण में भी काफी मददगार साबित होने जा रहा है।
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