यह अच्छी बात है कि संसद के मानसून सत्र में सरकार पहलगाम में आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ किए गए आपरेशन सिंदूर पर चर्चा को तैयार है। इस तैयारी के अनुरूप सरकार का कार्य और व्यवहार होना भी चाहिए और दिखना भी। इसी तरह विपक्ष को भी आपरेशन सिंदूर और इससे जुड़े अन्य विषयों पर गंभीर चर्चा के लिए तत्पर दिखना होगा।

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि दोनों सदनों के सुचारु संचालन के लिए सर्वदलीय बैठक में पक्ष-विपक्ष के बीच इस विषय पर सहमति बनी, क्योंकि अभी तक का अनुभव यही बताता है कि संसद सत्र के पहले आयोजित होने वाली सर्वदलीय बैठकों में कहा-बताया कुछ जाता है और लोकसभा एवं राज्यसभा में कुछ और देखने को मिलता है। आमतौर पर यह कुछ और नहीं, बल्कि हल्ले एवं हंगामे के रूप में देखने को मिलता है।

संसद के भीतर अथवा बाहर किसी विषय पर चर्चा में महत्वपूर्ण यह होता है कि उस पर किस इरादे से पक्ष-विपक्ष के नेता अपनी बात कह रहे हैं। कई बार ये इरादे वैसे नहीं होते, जैसे प्रचारित किए जाते हैं। कभी सत्तापक्ष विपक्ष के विषयों को अनावश्यक समझता है और कभी विपक्षी दल विरोध के लिए विरोध की राजनीति करते दिखते हैं।

अब तो ऐसा अधिक दिखता है कि कई विपक्षी नेताओं का एकमात्र उद्देश्य हंगामा करना होता है। सत्ता पक्ष भी उनके उद्देश्य को पूरा करना बेहतर समझता है। इसके नतीजे में किसी भी मुद्दे पर सकारात्मक एवं सार्थक चर्चा नहीं हो पाती। स्थिति यह है कि राष्ट्रीय महत्व के कई विधेयकों पर भी ढंग से चर्चा नहीं होती। वे या तो लंबित पड़े रहते हैं अथवा हंगामे के बीच जैसे-तैसे पास हो जाते हैं।

जब ऐसा होता है तब विपक्ष यह शोर मचाता है कि बहुमत के बल पर विपक्ष की आवाज को दबा दिया गया और अब तो ऐसा अक्सर सुनने को मिलता है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर एक तरह की तानाशाही चल रही है। यह बात वह कांग्रेस खासतौर पर कहती है, जो सचमुच तानाशाही के रास्ते पर चली थी। तब उसकी तानाशाही का विरोध करने वाले कई दल आज उसके साथ खड़े हैं और उसकी ही भाषा बोल रहे हैं।

कई बार तो विपक्षी दल ऐसी भाषा बोल जाते हैं जो पाकिस्तान, चीन को रास आती है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पहलगाम आतंकी हमले और आपरेशन सिंदूर पर विपक्षी दलों के नेताओं की ओर से ऐसे कई बयान दिए भी गए थे।

यदि संसद में सकारात्मक चर्चा नहीं होगी और कानूनों के निर्माण का मूल कार्य ढंग से नहीं किया जाएगा तो फिर कहां किया जाएगा? यह एक तथ्य है कि संसद में अब सार्थक चर्चा का अभाव ही अधिक देखने को मिलता है। यह न तो राजनीति के लिए शुभ है, न लोकतंत्र के लिए और न ही आम जनता के लिए।