इस पर आश्चर्य नहीं कि संसद के बजट सत्र को लेकर बुलाई गई बैठक में विपक्ष ने चीन से तनाव पर चर्चा की मांग की। यह कोई नई मांग नहीं है। संसद के प्रत्येक सत्र में यह मांग उठाई जाती है। इसके अतिरिक्त कांग्रेस के नेता रह-रह कर ऐसे आरोप लगाते रहते हैं कि चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रवैये को लेकर सरकार सच्चाई बताने से इन्कार कर रही है। हालांकि सरकार की ओर से बार-बार यह कहा गया है कि सीमा पर स्थिति नियंत्रण में है और सुरक्षा संबंधी संवेदनशील मामलों के कारण इस पर व्यापक चर्चा नहीं की जा सकती, लेकिन विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं।

कांग्रेस एक ओर तो चीन से लगती सीमा पर वस्तुस्थिति जानने की जिद करती है और दूसरी ओर यह भी दोहराती है कि चीनी सेना ने भारतीय भूमि पर कब्जा कर लिया है। यदि उसे सचमुच वस्तुस्थिति की जानकारी है तो फिर वह जानना क्या चाहती है और यदि जानकारी नहीं तो फिर नतीजे पर कैसे पहुंच जा रही है? कठिनाई केवल यह नहीं है कि कांग्रेस यह सिद्ध करने के लिए व्यग्र है कि चीन ने भारतीय क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया है और सरकार उसे जवाब देने के लिए तैयार नहीं, बल्कि यह भी है कि वह न तो रक्षा मंत्री की बात सुनने को तैयार है और न ही विदेश मंत्री की।

कांग्रेस के रवैये को देखते हुए इसमें संदेह है कि यदि संसद में चीन को लेकर चर्चा हो भी जाए तो भी वह सरकार के उत्तर से संतुष्ट होने वाली नहीं है। रक्षा और विदेश मामले में ऐसा व्यवहार ठीक नहीं, लेकिन यह नया नहीं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि डोकलाम गतिरोध के समय राहुल गांधी ने किस तरह चीनी राजदूत से गुपचुप भेंट करना आवश्यक समझा था। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कांग्रेस ने इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं दिया कि उसने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से समझौता क्यों किया था और राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से अनुदान लेने की क्या आवश्यकता थी?

इसमें संदेह नहीं कि चीन आक्रामक रवैया अपनाए हुए है, लेकिन यह भी सही है कि भारतीय सेना उसका साहस के साथ सामना कर रही है। इसका उदाहरण गलवन की भी घटना है और तवांग की भी। कांग्रेस राजनीतिक कारणों से सरकार को कठघरे में खड़ा करने का काम कर सकती है, लेकिन उसे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, जिससे सेना का मनोबल प्रभावित हो। तवांग में चीनी सेना से भिड़ंत के बाद राहुल गांधी की ओर से सेना को लेकर जैसे बयान दिए गए, उनकी सराहना नहीं की जा सकती। अच्छा हो कि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल यह समझें कि चीन के मामले में पक्ष-विपक्ष को एक सुर में बोलने की जरूरत है।