सृजनपाल सिंह। बीते कुछ दिनों से रुपये की गिरावट थमी है और वह डॉलर के मुकाबले मजबूत हुआ है। उम्मीद है कि इससे उसकी गिरावट से चिंतित लोगों को राहत मिली होगी और उसे लेकर शुरू हुई बहस थमेगी, लेकिन यह ध्यान रहे कि रुपये के मूल्य में गिरावट का एक दीर्घकालिक इतिहास है। 1947 में इसकी विनिमय दर प्रति डॉलर 3.30 रुपये थी, जो 1980 में गिरकर 7.8 रुपये, 1990 में गिरकर 17.01 रुपये और 2000 तक आर्थिक उदारीकरण के बाद यह और गिरकर 43.50 रुपये हो गई।

फिर एक दशक बाद 2010 में यह 46 रुपये पर थी और 2020 में गिरकर 71 रुपये पर पहुंच गई। सितंबर 2021 से इसकी विनिमय दर 73 रुपये प्रति डॉलर से बढ़कर बीते दिनों 87 से अधिक हो गई। रुपये में गिरावट एक राजनीतिक मुद्दा रहा है। जो भी विपक्ष में होता है, वह रुपये के “गिरने” के लिए सरकार को ही दोषी ठहराता है, लेकिन रुपये में गिरावट के इन सभी दशकों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था उल्लेखनीय रूप से बढ़ी।

हमें यह सोचना बंद करना होगा कि रुपये में गिरावट का मतलब अर्थव्यवस्था का कमजोर होना है। गिरते रुपये का राष्ट्रीय गौरव से भी कोई संबंध नहीं है। एक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था इससे कहीं ज्यादा जटिल होती है। जब कोई देश दुनिया के साथ व्यापार करता है तो उसकी मुद्रा की विनिमय दर का इस व्यापार पर गहरा असर होता है।

रुपये के गिरने का मतलब है कि भारत के निर्माताओं को अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अपनी वस्तुओं को बेचना आसान होगा, क्योंकि वे इन्हें डॉलर में बेचेंगे, लेकिन उनकी लागत रुपये में होगी। यही बात आइटी जैसी सेवा क्षेत्र की कंपनियों पर भी लागू होगी, जो अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को सेवा देती हैं। अधिक निर्यात का मतलब रोजगार के बेहतर अवसर सृजित होना है।

रुपये की कम कीमत भारत आने वाले पर्यटकों को भी बढ़ावा देती है। यह विदेश में काम करने वाले भारतीयों द्वारा अपने घर भेजे जाने वाले पैसे या वेतन के मूल्य को भी बढ़ाता है, लेकिन रुपये में गिरावट का आयात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा तथा वह और महंगा हो जाएगा।

भारत सबसे अधिक आयात पेट्रोलियम पदार्थों का करता है, जिसकी मांग स्थिर रहती है और कीमत के साथ नहीं बदलती। इसी तरह हम सोने का भी आयात करते हैं, जिसकी कीमतें पहले से ही ऊंची हैं। इसके अलावा इससे भारतीयों का विदेश में अध्ययन करना या पर्यटन करना भी महंगा हो जाएगा।

ट्रंप की नई अमेरिकी सरकार टैरिफ के जरिये दूसरे देशों पर दबाव डाल रही है। यह भारत या अन्य देशों से अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात पर टैक्स है। इससे अमेरिकी बाजार में हमारे निर्यात महंगे हो जाएंगे। इस समस्या को संतुलित करने और हमें विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने में सक्षम बनाने में रुपये में गिरावट एक जरूरी सहारा बन सकता है।

कम विनिमय दर वाला रुपया मेक इन इंडिया मिशन में भी मदद करेगा। अब तक मेक इन इंडिया के बैनर तले मोबाइल फोन जैसे कई उपभोक्ता सामान मुख्य रूप से चीन से पुर्जे आयात करके भारत में उन्हें असेंबल करने पर आधारित हैं। इससे कंपनियां सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रोत्साहनों का लाभ तो उठा लेती हैं, लेकिन यह स्वदेशीकरण के पैमाने पर अधूरा है।

जब डॉलर महंगा हो जाएगा, तो चीन से ऐसे पुर्जे आयात करना और महंगा हो जाएगा। इससे कंपनियां अपने सभी पुर्जे भारत में ही बनाने को प्रेरित होंगी। इससे देश में शोध एवं विकास के साथ ही रोजगार भी बढ़ेंगे। अन्य देशों के अनुभव बताते हैं कि मुद्रा अवमूल्यन हमेशा बुरा या अच्छा नहीं होता। दरअसल मुद्रा अवमूल्यन का प्रभाव देश की आर्थिक स्थितियों पर निर्भर करता है।

इस सदी के शुरुआती वर्षों में चीन ने जानबूझकर अपनी मुद्रा युआन को डॉलर के मुकाबले लगभग 30 प्रतिशत कम कर दिया। ऐसा अवमूल्यन चीनी वस्तुओं को विदेशी खरीदारों के लिए सस्ता रखने की रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। निर्यात को सस्ता बनाने की इस नीति ने चीनी निर्माताओं को वैश्विक बाजारों में बढ़त हासिल करने में मदद की। नतीजतन उस अवधि के दौरान चीन के निर्यात में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई।

उस अवमूल्यन ने चीन की निर्यात मात्रा को 50 प्रतिशत तक बढ़ाने में मदद की, जिसने उसे दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके विपरीत मुद्रा अवमूल्यन के कारण दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना का अनुभव संकट भरा रहा है। 1991 से 2000 तक उसने अपनी मुद्रा पेसो का मूल्य अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 1:1 की दर से तय कर दिया।

फिर 2001-2002 के संकट के दौरान जब उस पर निवेशकों का विश्वास टूटा तो कुछ ही महीनों में पेसो के मूल्य में लगभग 70-75 प्रतिशत गिरावट आ गई। इस नाटकीय अवमूल्यन ने उसकी अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया, जिससे वहां कीमतें बढ़ गईं और वार्षिक मुद्रास्फीति 40 प्रतिशत से अधिक हो गई।

हमें डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर को राजनीतिक मुद्दा बनाना बंद करना होगा। हमें इस मामले में केवल तभी चिंता करनी चाहिए, जब रुपया अचानक तेजी से गिर जाए, जो स्वतंत्र भारत में कभी नहीं हुआ है। हमें रुपये को अर्थव्यवस्था के परिदृश्य पर अपना स्वाभाविक रास्ता खुद तय करने देना चाहिए और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर अधिक ध्यान दें।

(लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं)