विचार: हर स्तर पर जरूरी जल संरक्षण, मानसूनी वर्षा जल को सहेजना जरूरी
छोटी नदियों को स्थानीय तालाब-जोहड़ से जोड़ा जाना चाहिए। इन सभी स्थानों पर पौधरोपण होना चाहिए। नदियों के किनारे गहरे भूजल रीचार्ज की व्यवस्था होनी चाहिए। शहरों में बड़ी इमारतों में रीचार्ज पिट का निर्माण किया जाना चाहिए। जाहिर है इसके लिए बहुत से विभागों का समन्वित और एकजुट प्रयास जरूरी होगा।
पंकज चतुर्वेदी। देश में इस बार मानसून सीजन (जून से सितंबर) में सामान्य से ज्यादा बारिश होने का अनुमान है। मौसम विभाग के अनुसार बारिश 106 प्रतिशत रह सकती है। वहीं जून महीने में भी बारिश सामान्य से ज्यादा होगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में गर्मी और लू के दिन जहां बढ़ रहे हैं, वहीं बरसात के दिन घटते जा रहे हैं। बारिश अचानक कुछ घंटे में इतनी हो जाती है कि आनंद त्रासदी में बदल जाता है और फिर जैसे ही बादल विदा हुए वह इलाका पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने लगता है।
तिस पर अब जलवायु परिवर्तन की मार देश के दूरस्थ अंचल तक दिख रही है। ऐसे में मानसूनी वर्षा के जल को यदि सलीके से नहीं सहेजा गया तो देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर जल-संकट का बड़ा प्रभाव होगा। देश में हमारे पूर्वजों ने इस तरह की जल-निधियां विकसित की थीं, जो न्यूनतम बरसात में लोगों की जल जरूरतों को पूरा करने में सक्षम थीं, लेकिन आधुनिकता की आंधी में हमने ही अपनी समृद्ध विरासतों को बिसरा दिया। ये लोक परंपराएं न केवल पानी की कमी से निपटने और मानसून की तैयारी करने के व्यावहारिक तरीका थीं, बल्कि सामाजिक बंधनों को मजबूत करने, प्रकृति के प्रति सम्मान जगाने और पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान और संस्कृति को हस्तांतरित करने का माध्यम भी थीं।
यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले, दोनों के लिए अतिरिक्त पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूजल का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों-तालाब, कुएं, बावड़ी की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है।
हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है। देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं। यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हेक्टेयर जमीन पर तालाब बने हों तो देश की कोई एक अरब 30 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने एवं अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हेक्टेयर जमीन पर महज 100 मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है।
देश के अभी भी अधिकांश गांवों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावड़ी, झील जैसी संरचनाएं उपलब्ध हैं। जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उनमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। यदि इसमें हम सफल होते हैं तो किसानों को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। यदि तालाब लबालब होंगे तो जमीन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा। साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे। इसी सोच के साथ केंद्र ने अमृत तालाब योजना शुरू की थी, लेकिन कहीं तकनीक का अभाव तो कहीं लापरवाही के चलते योजना के माकूल परिणाम नहीं मिले। यदि अभी भी चेत जाएं और इन सूखे तालाबों में पानी के आगम मार्ग को साफ कर दें और गाद हटा दें तो भावी जल संकट से निपट सकते हैं।
तालाब संरक्षण की बात तो सभी करते हैं, लेकिन आज जरूरी है कि छोटी नदियों की भी सुध ली जाए। उत्तर प्रदेश में नदियों की संख्या लगभग 1,000 है, जिनका 55 हजार किलोमीटर का नेटवर्क है। उनमें से 30 हजार किलोमीटर क्षेत्र में जल घटा है या सूखा है। प्रदेश की 100 छोटी और सहायक नदियां सूख चुकी हैं। बिहार की 50 से अधिक नदियां संकट में हैं। इनमें 32 बड़ी नदियां सूख चुकी हैं, जबकि 18 में पानी थोड़ा बचा है। ऐसा तब है, जबकि इस वर्ष राज्य में प्री मानसून में सामान्य से पांच प्रतिशत ज्यादा (62.3 मिमी) बारिश हो चुकी है। हैरानी की बात है कि गंगा, सोन और अघवारा जैसी बड़ी नदियों में भी पानी कम है। उत्तराखंड में अल्मोड़ा-हल्द्वानी की लाइफलाइन कोसी और गौला नदियों का जलस्तर कम हो रहा है। कोसी की कुल 21 सहायक नदियों एवं नालों में से 20 गर्मी में सूख जाते हैं। इन नदियों की सफाई हो। इनके किनारे के अतिक्रमण हटें। इनको गहरा किया जाए और छोटे-छोटे डैम बना दिए जाएं। जब इनमें पानी भरेगा तो ये संरचनाएं हरियाली भी लाएंगी और खुशहाली भी।
कुल मिलाकर आज देश की जल निधियों के संरक्षण और गहरीकरण की व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार और समाज, दोनों को मिलकर काम करना होगा। इसके तहत जल निधियों के मूल स्वरूप का सर्वे किया जाना चाहिए। उन पर हुए अतिक्रमण या अवांछित निर्माण को हटाने या जल-आवक-निकासी के वैकल्पिक मार्ग निर्माण की योजना बनाई जानी चाहिए। छोटी नदियों को स्थानीय तालाब-जोहड़ से जोड़ा जाना चाहिए। इन सभी स्थानों पर पौधरोपण होना चाहिए। नदियों के किनारे गहरे भूजल रीचार्ज की व्यवस्था होनी चाहिए। शहरों में बड़ी इमारतों में रीचार्ज पिट का निर्माण किया जाना चाहिए। जाहिर है इसके लिए बहुत से विभागों का समन्वित और एकजुट प्रयास जरूरी होगा।
(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)










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