प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल : कुछ दिनों पहले कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को ‘राष्ट्रपत्नी’ कहकर नया विवाद छेड़ दिया था। इस विवाद को तार्किक रूप देने के लिए कथित बुद्धिजीवियों ने यह राग छेड़ रखा है कि राष्ट्रपति पदनाम पुरुष प्रभुत्व का प्रतीक है। उन्होंने शिगूफा छेड़ा कि राष्ट्रपति के बजाय कोई जेंडर न्यूट्रल पदनाम होना चाहिए। वस्तुत: यह भाषाई हलकों या समाज के भीतर उपजी हुई बहस नहीं, अपितु भ्रमित राजनीति का परिणाम है। वैसे भी इसका तुक तब कहीं ज्यादा होता जब देश को प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के रूप में पहली महिला राष्ट्रपति मिली थीं। उस समय भी कुछ भाषाविद्, साहित्यकार, पत्रकार और नेताओं ने ऐसी कोशिश की थी। उस पर विराम स्वयं प्रतिभा पाटिल ने इस बयान के साथ लगाया था कि राष्ट्रपति पदनाम से उन्हें कोई समस्या नहीं। अच्छा यही होता कि कोई राजनीतिक दल ऐसी बहस ही न करता, क्योंकि इससे न तो राजनीतिक तौर पर कुछ प्राप्ति होने से रही और न ही देश का कुछ भला होने वाला है।

राष्ट्रपति शब्द को भारतीय संविधान सभा ने एक लंबी बहस के बाद स्वीकार किया था। उसके पीछे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े कारण भी रहे, जिसके ऐतिहासिक निहितार्थ हैं। राष्ट्रपति पदनाम का प्रयोग पहली बार 26 जनवरी, 1930 को रावी तट पर संपन्न कांग्रेस अधिवेशन में हुआ था। उसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार किए गए थे। यही वह अवसर था जब पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की गई थी। इसके कुछ समय बाद ही कांग्रेस की एक महिला अध्यक्ष नेली सेनगुप्त हुईं और उन्हें भी राष्ट्रपति कहा गया।

वास्तव में कांग्रेस अध्यक्ष को हिंदी में सभापति कहने की परंपरा आरंभ से रही है। एनी बेसेंट से लेकर सरोजिनी नायडू सभापति कही जाती रहीं। अब सभापति और राष्ट्रपति में कौन सा जेंडर न्यूट्रल शब्द है और कौन पुरुष सत्तावाची, इसका निर्धारण राजनीतिक चश्मे से नहीं हो सकता। राजनीतिक चश्मे से संज्ञाओं और पदनामों के निर्धारण नहीं होते। यह सवाल तब भी नहीं उठा था जब नजमा हेपतुल्ला राज्यसभा की उपसभापति बनीं। याद रहे कि भारतीय संविधान का जो मसौदा तैयार हुआ, उसमें राष्ट्रपति पदनाम के लिए अंग्रेजी में प्रेसिडेंट, हिंदी में भारत के प्रधान और उर्दू में हिंद के सरदार पदनाम का प्रस्ताव हुआ। लंबी चर्चा के बाद जवाहरलाल नेहरू के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया कि हिंदी में राष्ट्रपति कहा जाएगा। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने भी उस पर सहमति जताई।

वास्तव में राष्ट्रपति पद जेंडर वाचक शब्द नहीं है। इसका पुरुष सत्ता की प्रधानता से कोई लेना-देना नहीं है। वैसे भी भारत का संविधान प्रत्येक स्त्री पुरुष को बिना वर्ग भेद, जाति-भाषा के भेद के एक नागरिक के रूप में आवश्यक अर्हताओं को पूरा करने के साथ किसी भी पद पर आसीन होने का अधिकार प्रदान करता है। इसी अधिकार का परिणाम रहा कि भारत में दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी और महिला सभी राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर पहुंचे। द्रौपदी मुर्मु पहली आदिवासी राष्ट्रपति हैं। आदिवासी समाज को मुख्यधारा में लाने, उसे प्रेरित करने, उसमें गौरव और स्वाभिमान का संचार करने के लिए इससे उत्तम उपाय कोई और नहीं हो सकता था।

दुख की बात है कि इन दिनों राजनीति का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। राष्ट्रीय हितों को पक्ष-प्रतिपक्ष के चश्मे से देखने के कारण हावी होती अतिवादी दलीय प्रतिबद्धता के कारण संसद में बहस का स्तर गिरा है। प्रत्येक भारतीय नागरिक ऐसा महसूस कर रहा है, लेकिन स्त्री, पुरुष, दलित और आदिवासी प्रतीकों को लेकर ऐसा परिवेश बनेगा, यह भारत के लिए अकल्पनीय है। यह बहस नहीं होनी चाहिए थी। यह बहस जो लोग कर रहे हैं वे भाषाविद् नहीं हैं। वे राजनीतिज्ञ हैं। भारत के अंदर इस प्रकार की संज्ञाएं कभी जेंडर आधारित नहीं रही हैं। सतविंदर, कुर्लंवदर इत्यादि नाम पंजाब में महिलाओं और पुरुषों दोनों के होते हैं। इसी तरह सुमन, संतोष इत्यादि ऐसे नाम हैं जो भारत में महिलाओं और पुरुषों दोनों के होते हैं। क्या इन सब पर पुनर्विचार नहीं करना पड़ेगा? प्रश्न केवल राष्ट्रपति को राष्ट्रप्रधान, राष्ट्राध्यक्ष इत्यादि पदनाम से जोड़ने का नहीं है। हमें विचार करना चाहिए कि समतामूलक संस्कृति नाम और भाषा से परे भी निर्मित हो सकती है।

सबसे बड़ी चिंता का पहलू यही है कि यह बहस उस कांग्रेस की ओर से प्रारंभ हुई, जिसने इस देश को पहली महिला राष्ट्रपति दी। जिसने इस देश को महिला प्रधानमंत्री दी। कांग्रेस विचार करे कि जब प्रतिभा पाटिल भारत की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं तो क्या विरोधी दलों ने पदनाम परिवर्तन के लिए इस प्रकार की कोई बहस चलाई थी? हमें विचार करना होगा कि जो बड़े विद्वान और बुद्धिजीवी भाषा एवं भाषा संस्कृति के दिग्गज हैं, वे अचानक क्यों पदनाम परिवर्तन की बात कर रहे हैं।

संविधान स्वीकृत इन पदनामों को कहां-कहां बदलेंगे। विधानसभा अध्यक्षों को सभापति कहने की परंपरा है। जहां विधान परिषद है वहां सभापति कहने की परंपरा है। स्थानीय ग्राम समाज, ग्राम स्वशासन में प्रधान, सभापति इत्यादि पदनाम हैं। क्या प्रधान का प्रधान्या करेंगे। विधायक पद को क्या विधायका करेंगे। सांसद का सांसदा, मंत्री का मंत्रिणी, अधिवक्ता का अधिवक्त्री करेंगे? क्या-क्या और कहां-कहा बदलेंगे? वस्तुत: यह नाम परिवर्तन की बहस नहीं है। यह विवाद भारत में सौमनस्य को समाप्त करने वाला है। आकंठ जातिवाद, क्षेत्रवाद और भ्रष्टाचार में डूब रही राजनीति, शायद इन प्रश्नों से जनता का ध्यान भटकाना चाहती है।

राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल आदि विविध संवैधानिक निकायों के शीर्ष पर महिलाएं कार्यरत रही हैं और जब जेंडर न्यूट्रल संवैधानिक पद के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था से लेकर लोक मान्यता में इसे स्वीकार्यता प्राप्त है तो यह एक अनावश्यक, निरर्थक और कलह पैदा करने वाली चर्चा क्यों? यह भाषा की बहस नहीं है और यह स्त्री अधिकारिता, स्त्री समानता की दृष्टि से की गई बहस भी नहीं है। यह तो निहित राजनीतिक स्वार्थों की बहस है। निहित राजनीतिक स्वार्थों की ऐसी कुचर्चा है जो भारत में स्वस्थ परिवेश में चर्चा करने, विमर्श करने से लोगों को रोकती है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)