सांस्कृतिक पुनर्जागरण का समय, धर्म-सभ्यता-भाषा के विरुद्ध स्थापित पूर्वाग्रह से मुक्त हो रहा समाज
पंथनिरपेक्षता के आग्रह के कारण भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की राह आसान नहीं रही है। सेक्युलरिज्म के भूत के कारण त्योहार मनाते हुए हम सरकारों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं से भयभीत रहते थे कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए।
आर. विक्रम सिंह : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रबुद्ध नागरिकों एवं आमजन को प्रदेश की सांस्कृतिक-धार्मिक परंपराओं के निर्वहन के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने लिए पिछले दिनों नववर्ष, रामनवमी, नवरात्रि के त्योहार को मनाने के लिए प्रेरणास्वरूप जनहित में प्रत्येक जनपद को एक लाख रुपये की सीमित धनराशि भी स्वीकृत की गई। यह अपनी तरह की एक अनूठी पहल है। इसका प्रभाव देश के समग्र सांस्कृतिक परिवेश पर भी पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश में शांतिपूर्ण माहौल में संपन्न रामनवमी और नवरात्रि के त्योहार के विपरीत तुष्टीकरण की नीतिगत दुविधाओं के चलते बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र आदि राज्यों में रामनवमी की शोभायात्राओं पर हिंसक आक्रमण हुए। सदियों से सांस्कृतिक भारत राष्ट्र की पहचान उसके त्योहारों, तीर्थों, मान्यताओं, विश्वास एवं श्रद्धा से होती रही है। ये परंपराएं, धार्मिक उत्सव एवं त्योहार हमारी संस्कृति-सभ्यता की विकास यात्रा के पदचिह्न हैं। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन पदचिह्नों को प्रणाम किया तो प्रत्येक प्रदेशवासी को गर्व हो रहा है।
पंथनिरपेक्षता के आग्रह के कारण भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की राह आसान नहीं रही है। सेक्युलरिज्म के भूत के कारण त्योहार मनाते हुए हम सरकारों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं से भयभीत रहते थे कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। आज हम भयमुक्त हो रहे समाज के भाग हैं, जिसके सम्मुख पहले की तरह कोई सांस्कृतिक-धार्मिक अपराधबोध नहीं है। अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान एवं नकारात्मकता से मुक्ति की नीति हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर पदार्पण के बाद से देख रहे हैं। योगी उस नीति के सबसे सशक्त हस्ताक्षर हैं।
समाज आज धर्म, संस्कृति, सभ्यता, भाषा के विरुद्ध स्थापित पूर्वाग्रह से मुक्त हो रहा है, हमारे त्योहार निर्बंध हो रहे हैं। इस ऐतिहासिक घटना पर सेक्युलर खेमे से आलोचना की आवाज न उठे, भला यह कैसे संभव है। अखिलेश यादव ने उस दिन किंचित व्यंग्य करते हुए कहा था कि प्रस्ताव का स्वागत है, लेकिन एक लाख रुपये में होगा क्या? कम से कम दस करोड़ रुपये दिए जाने चाहिए जिससे जिलों में सभी धर्मों के त्योहार मनाए जा सकें। कांग्रेस के प्रवक्ता ने भी स्वागत की भाषा का इस्तेमाल करते हुए इस सांस्कृतिक विमर्श में रोजगार के अवसर की कमी जैसी बात भी कह डाली। अब परिवेश बदला हुआ है, विरोधी पक्ष हृदय में उठ रहे उद्गारों को फिल्टर करके व्यक्त कर रहा है।
एक लाख रुपये तो मात्र टोकन धनराशि है, लेकिन जनसहयोग से यह आयोजन ब्लाक एवं तहसील के स्तर पर भी हुआ और प्रदेश को संस्कृति एवं एकता का एक बड़ा संदेश देकर गया। आयोजन समितियों ने बड़ी संख्या में स्थानीय नागरिकों को भागीदारी एवं दायित्वबोध का अवसर दिया है। दुर्गा सप्तशती एवं रामचरितमानस के पाठ तथा रामलीला आयोजन ने हमारी लोक परंपराओं को पुनर्जीवन देने के साथ ही स्थानीय कलाकारों के लिए भी अवसर प्रदान किया है। उत्तर प्रदेश न जाने कितने वर्षों से आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से भी बीमारू राज्य बना हुआ था। संस्कृति के नाम पर बस वही सैफई में फिल्मी एवं कुछ अन्य कलाकारों का जुटान हुआ करता था। एक ओर सांस्कृतिक सस्तापन है और दूसरी ओर भारतीयता की जीवंत सांस्कृतिक-धार्मिक अभिव्यक्ति! ऐसे में योगी की इस पहल की अनुगूंज दूर तक जाएगी।
उत्तर प्रदेश सरकार ने एक प्रकार से यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह आम जनता की धार्मिक आस्था, धर्मग्रंथों यथा रामचरितमानस, महाभारत, गुरुग्रंथ साहिब आदि का अपमान स्वीकार नहीं करेगी। कतिपय निहित स्वार्थी रामचरितमानस की चौपाइयों की आलोचना कर रहे हैं। आश्चर्य होता है कि आलोचना करने वालों को इस तथ्य का भी ज्ञान नहीं है कि जिस ‘चौपाई ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ को वे पकड़कर नारी असम्मान के कुतर्क गढ़ रहे हैं, वह रामचरितमानस में एक नकारात्मक चरित्र समुद्र की अभिव्यक्ति है। यह चौपाई राम का उद्गार नहीं है, न हनुमान जी का है। खलनायक समुद्र के कथन को नारीविरोधी विमर्श के रूप में आधुनिकता के पोषकों द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
क्या धर्मग्रंथों में खलनायकों द्वारा भी कोई नकारात्मक बात नहीं कहीं जाएगी? तो कथाएं कैसे अच्छाई-बुराई, धर्म-अधर्म, अंधकार-प्रकाश के संघर्ष को व्यक्त कर पाएंगी? देखा जाए तो रामचरितमानस की मुख्य घटना माता सीता का रावण द्वारा अपहरण है। फिर तो इन आधुनिक विमर्शकारों के तर्क से इस घटना का भी नारी प्रताड़ना के रूप में विरोध करना चाहिए। तो क्या इसे भी रामचरितमानस से हटा दिया जाए? तो स्त्री की अस्मिता का आधार लेकर रामकथा पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए? रामचरितमानस की आलोचना के पीछे दरअसल भारतवर्ष के सांस्कृतिक-धार्मिक प्रतीकों एवं धर्म ग्रंथों के महत्व को गिराने का यह एक बड़ा मिशन है, मजहबी एजेंडा है। उनके नकाब उठाकर उन्हें पहचानने एवं उनके कुटिल उद्देश्य से गांव-गांव एवं नगर-नगर सबको सजग करने की आवश्यकता है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का देश-प्रदेश की जनता के नैतिक, सामाजिक एवं संस्कृतिक मानस को आयोजनों तथा उत्सवों द्वारा जगाने का यह कार्य भारतीय धर्म-संस्कृति के लोक कल्याणकारी पक्ष को विवादित करने वाली दूषित मनोवृत्ति एवं उनके विमर्शकारों को समुचित प्रत्युत्तर है। हमारे समाज की सांस्कृतिक आस्था की शक्ति का यह पुनर्जागरण स्तुत्य है।
(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)














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