स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने मंदिरों में पड़े सोने को अधिगृहित करने की बात कहकर भारतीय राजनीति में धर्म आधारित एक नए ध्रुवीकरण की पूर्व पीठिका तैयार कर दी है। पृथ्वीराज चव्हाण का तर्क है कि वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के अनुसार देश के मंदिरों में अनुमानित रूप से एक टिलियन डॉलर (करीब 76 लाख करोड़ रुपये) का सोना है। कुछ समय पहले सोशल मीडिया में वामपंथी लॉबी की ओर से हिंदुओं मंदिर से सोना निकालो का अभियान भी छिड़ा था। इसमें वे भी शामिल थे जिनकी मंदिरों में कोई आस्था नहीं है और सनातन हिंदू धर्म एवं उसकी पूजा-पद्धतियों से कोई लेना-देना नहीं है। हिंदू मंदिरों के प्रति दुर्भावना कांग्रेस के पूर्वाग्रह का मूल है। इसी दुर्भावना के कारण इंदिरा गांधी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश का विरोध हुआ था।

मंदिरों की संपत्ति का लोभ अकारण नहीं है। मुगल काल का इतिहास हजारों-हजार मंदिरों के टूटने का साक्षी है। भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद यह सोचा जाने लगा था कि मुगलों से जो कुछ बचा है उसे अंग्रेज लूट लेंगे, परंतु धर्म के लिए किसी भी हद तक जाकर संघर्ष करने की हिंदू समाज की भावना के कारण अंग्रेजों ने इस समाज से सीधे टकराव लेने की जगह उसे विभक्त करो और शासन करो की नीति अपनाई। अंग्रेजों ने एक कानून (मद्रास हिंदू टेंपल एक्ट 1843) बनाकर मंदिरों की संपदा को लंदन भेजना शुरू कर दिया। 1857 के विद्रोह के कारण अंग्रेज असफल हो गए, फिर भी उन्होंने धाíमक गतिविधियों को नियंत्रित करने का काम किया। इसके लिए कई कानून बनाए गए जैसे सोसायटी एक्ट, ट्रस्ट एक्ट। 1923 में मद्रास हिंदू टेंपल एंड रिलीजियस प्लेस एंडाउमेंट एक्ट बना। 1920 से लेकर 1947 तक भारत की लाखों हेक्टेयर भूमि चर्चो को चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम पर लीज पर दे दी गई। आजादी के बाद कांग्रेस अंग्रेजों की दिखाई राह पर ही आगे बढ़ी। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की रुचि के कारण मद्रास हिंदू टेंपल एक्ट की जगह द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट, 1951 बना। इसके बाद स्वतंत्र भारत ने हिंदू मठ-मंदिरों की संपत्ति का गलत उपयोग होने का नया दौर देखा।

संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अल्पसंख्यकों को सारे धाíमक अधिकार देने के साथ उनके मस्जिद, चर्च एवं शिक्षा की स्वतंत्र व्यवस्था की गई, लेकिन हिंदू मठों पर आश्रित धाíमक शिक्षा व्यवस्था को धीरे-धीरे समाप्त करने का सिलसिला कायम किया गया। भारत में प्रत्येक मंदिर के साथ एक विद्यालय, चिकित्सालय, गांव तक आने की सड़क अर्थात संपर्क मार्ग एवं गांव के हर सुख-दुख में संपन्न होने वाले संस्कारों के लिए मंदिर का बड़ा परिसर एवं उसकी ठाकुरबाड़ी का उपयोग होता रहा है। यही भारत की सामाजिक एकता का बड़ा मंत्र था, जिसे नष्ट किया गया। कम-अधिक मात्र में दक्षिण भारत के मठ आज भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़े काम कर रहे हैं, परंतु उत्तर भारत के मंदिर-मठों में इसका अभाव दिख रहा।

2012-13 में केरल सरकार की आधीनता वाले ऐतिहासिक पद्मनाभ मंदिर के स्वर्णाभूषणों की गणना एवं मूल्यांकन लगभग पांच लाख करोड़ रुपये का किया गया था। मूल्यांकन का यह कार्य सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त व्यक्ति की देखरेख में होने के बावजूद करोड़ों का सोना चोरी हो गया, जबकि पुजारी एवं इस मंदिर का निर्माण कराने वाले राजा रवि बर्मन परिवार की देखरेख में हजारों वर्षो में भी दस ग्राम सोने की चोरी का कोई समाचार सामने नहीं आया।

हिंदू धर्म दान एक्ट, 1951 के जरिये कांग्रेस ने राज्यों को अधिकार दे दिया कि बिना कोई कारण बताए वे किसी भी मंदिर को अपने अधीन कर सकते हैं। यह कानून बनने के बाद से आंध्र प्रदेश सरकार ने लगभग 34 हजार मंदिरों को अपने अधीन ले लिया। तिरुपति बालाजी मंदिर की सालाना कमाई लगभग 3500 करोड़ रुपये हैं। इतना धन मिलने के बाद भी तिरुपति मंदिर को सिर्फ सात प्रतिशत फंड मंदिर के रख-रखाव के लिए वापस मिलता है। इस मंदिर के बेशकीमती रत्न ब्रिटेन के बाजारों में बिकते पाए जा चुके हैं। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी ने तिरुपति की सात पहाड़ियों में से पांच को सरकार को देने का आदेश दिया था। इन पहाड़ियों पर चर्च का निर्माण किया जाना था। मंदिर को मिलने वाली चढ़ावे की रकम में से 80 प्रतिशत गैर हिंदू कार्यो के लिए खर्च की जाती है। मंदिरों के दान में भ्रष्टाचार का स्तर यह है कि कर्नाटक के दो लाख मंदिरों में से लगभग 50 हजार रखरखाव के अभाव में बंद हो गए हैं।

आचार्य चाणक्य का कहना था कि किसी धर्म को समाप्त करना हो तो उसके आश्रय स्थलों यानी मठ-मंदिरों आदि को समाप्त कर दो। आज भारत में लगभग नौ लाख मंदिर हैं, जिनमें चार लाख मंदिर सरकार के पास हैं। क्या संवैधानिक रूप से पंथनिरपेक्ष राज्य का मुखिया मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा आदि का संचालन कर सकता है? मंदिरों का सोना हिंदू समाज की संपत्ति है, न कि सरकार की। जिन लोगों को मठ-मंदिरों में पड़ा धन दिखा, क्या उन्हें देश में चैरिटी के नाम पर आने वाले लाखों-करोड़ों का चंदा नहीं दिखता?

क्या इस चंदे का इस्तेमाल धर्मातरण में नहीं होता? अब समय आ गया है कि चर्चो के शक्तिशाली संगठन के समानांतर हिंदू मंदिरों का प्रबंध तंत्र खड़ाकर शिक्षा-स्वास्थ्य और प्राचीन ऋषि परंपरा में शोध एवं विकास का काम किया जाए। इस हेतु मंदिरों का योगदान परिलक्षित होना चाहिए।

(लेखक अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)