जागरण संपादकीय: मुर्शिदाबाद हिंसा का डरावना सच, हिंदुओं के लिए बंगाल में बन रहे बांग्लादेश जैसे हालात
मुर्शिदाबाद हिंसा संबंधी रिपोर्ट किसी को भी डराने के लिए पर्याप्त है। यदि तीन दशक पहले किसी राज्य में एक समुदाय के खिलाफ ऐसी भयानक हिंसा होती तो वहां की सरकार बर्खास्त हो जाती। अब ऐसा इसलिए कठिन है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने को असंवैधानिक ठहरा सकता है।
अवधेश कुमार। कलकत्ता हाई कोर्ट की ओर से गठित तथ्य-खोजी समिति की मुर्शिदाबाद हिंसा संबंधी रिपोर्ट किसी को भी डराने के लिए पर्याप्त है। इस रिपोर्ट के बाद सारे आरोपों की पुष्टि हो गई। इस रिपोर्ट के पहले बंगाल पुलिस ने भी उच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। उसमें कुछ ऐसा लिखा था, ‘11 अप्रैल को लगभग 4.25 बजे भीड़ अनियंत्रित हो गई..पुलिस पर ईंट, पत्थर के साथ घातक हथियारों से हमला कर दिया गया।
उपद्रवियों ने एसडीपीओ जंगीपुर की पिस्तौल छीन ली और उनके वाहन के साथ सार्वजनिक संपत्तियों में आग लगा दी।’ यह ध्यान देने की बात है कि हाई कोर्ट समिति की रिपोर्ट में पुलिस को ही सबसे ज्यादा कठघरे में खड़ा किया गया है।
हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के एक-एक सदस्य वाली तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। इसी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा हिंदुओं के विरुद्ध और सुनियोजित थी। तृणमूल के मुस्लिम नेता और पार्षद ने हिंसा का नेतृत्व किया। लोगों ने पुलिस से मदद मांगी, लेकिन उसने न हिंसा रोकने की कोशिश की और न लोगों को सुरक्षा देने की।
यदि तीन दशक पहले किसी राज्य में एक समुदाय के खिलाफ ऐसी भयानक हिंसा होती तो वहां की सरकार बर्खास्त हो जाती। अब ऐसा इसलिए कठिन है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने को असंवैधानिक ठहरा सकता है।
शायद इसीलिए बंगाल के राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में केंद्र से संवैधानिक विकल्पों पर विचार करने का सुझाव तो दिया था, लेकिन हालात बिगड़ने पर अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) को विकल्प बताते हुए लिखा था कि अभी इसकी जरूरत नहीं है। भयानक हिंसा के शिकार महिलाओं और बच्चों की दर्दनाक आपबीती के बावजूद ममता बनर्जी ने आरंभ में सहानुभूति का एक शब्द नहीं बोला था। वह, उनके मंत्री, प्रवक्ता आदि सब इसे भाजपा का षड्यंत्र बताते हुए बीएसएफ पर भी आरोप लगा रहे थे। कायदे से तो बीएसएफ की ओर से भी हाई कोर्ट में अपील दायर होनी चाहिए थी। आखिर किस आधार पर इतना संगीन आरोप मुख्यमंत्री ने लगा दिया?
हाई कोर्ट समिति की रिपोर्ट के अनुसार नए वक्फ संशोधन कानून के विरुद्ध प्रदर्शन की आड़ में हिंदुओं को जानबूझकर निशाना बनाया गया। बेतबोना गांव में 113 घर जला दिए गए। रिपोर्ट में लिखा है, ‘एक उपद्रवी गांव में यह देखने भी आया कि किन घरों पर हमला नहीं हुआ और फिर भीड़ ने उन घरों में भी आग लगा दी।’ गांव जला दिया गया, लेकिन पुलिस-प्रशासन निष्क्रिय बना रहा। हिंसक भीड़ ने पानी का कनेक्शन काटा, ताकि आग बुझाई न जा सके।
सबसे खौफनाक यह रहा कि महिलाओं के वस्त्र जला दिए गए, ताकि उनके पास पहनने को कपड़े न बचें। रिपोर्ट में यह भी लिखा है, ‘हिंसा के शिकार गांव के लोगों ने लगातार दो दिन पुलिस को फोन किया, लेकिन फोन नहीं उठाया गया।’ भाग कर मालदा शरण लेने गए पीड़ितों को पुलिस ने लौटने को विवश किया।
साफ है कि सरकार की ओर से पुलिस-प्रशासन पर दबाव रहा होगा कि जान बचाकर भागे लोगों को जबरन बुलाया जाए, क्योंकि सरकार की थू-थू हो रही है। रिपोर्ट ने जिस तरह पुलिस-प्रशासन को कठघरे में खड़ा किया है, उससे वह सिर उठाने लायक भी नहीं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि प्रशासन की तरफ से हिंसाग्रस्त इलाकों में किसी की मदद नहीं की गई। रिपोर्ट में लिखा है कि ‘हमले स्थानीय पार्षद की तरफ से निर्देशित किए गए।
हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि बंगाल में इसके पहले भी हिंदू त्योहारों पर हमले हुए हैं। विधानसभा चुनाव बाद की हिंसा में भी तृणमूल के विरुद्ध वोट देने वालों को हिंसक भीड़ से बचकर असम पलायन करना पड़ा था। हाई कोर्ट समिति के अनुसार बंगाल में गैर-मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा करने वालों को पुलिस का साथ मिलता है।
मुर्शिदाबाद में भी पुलिस ने घटना से आंखें मूंदकर हिंसक भीड़ को एक प्रकार से खुली छूट दी। हाई कोर्ट समिति की रिपोर्ट में जाफराबाद इलाके में हरगोबिंद दास और उनके बेटे चंदन दास की हत्या का जिक्र करते हुए कहा गया है ‘ हिंसा पर उतारू भीड़ ने उनके घर का मुख्य दरवाजा तोड़ दिया और पिता-पुत्र को ले गए और उनकी पीठ पर कुल्हाड़ी से वार किया। एक हत्यारा तब तक वहां इंतजार करता रहा, जब तक वे मर नहीं गए।’ पिता-पुत्र का दोष यह था कि वे देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते थे। यह कैसा खतरनाक सोच है कि मूर्तियां बनाने वाला दुश्मन हो गया।
मुर्शिदाबाद हिंसा के बाद वहां गए राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बांग्लादेश से सटे मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में दोहरा खतरा है, क्योंकि यहां हिंदू आबादी अल्पसंख्यक है। उन्होंने उत्तरी दिनाजपुर को भी हिंदुओं के लिए असुरक्षित बताया था। एक तरह से बंगाल के कुछ इलाकों के हालात वैसे ही होते जा रहे हैं, जैसे बांग्लादेश में हो गए हैं और जहां हिंदुओं का जीना दूभर है।
बांग्लादेश के हिंदुओं को बचाने के लिए तो हमारे पास सीमित विकल्प हैं, लेकिन बंगाल में तो केंद्र सरकार को कुछ करना ही चाहिए। इस पर भी गौर करें कि मुर्शिदाबाद की भयावह हिंसा पर कथित सेक्युलर दलों ने न तो तब कुछ कहा था और न ही हाई कोर्ट की रिपोर्ट आने के बाद।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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