सहानुभूति का अर्थ है कोई दूसरा हमारे दुखों के प्रति समान अनुभूति प्रकट करे। जब हम दुखी हों तो हमें सांत्वना दे, हमें सहलाए। सहानुभूति पाने वाला याचक होता है और देने वाला दाता। जिस क्षण हम याचक बनकर खड़े हो जाते हैं, तभी हमारा स्वाभिमान, व्यक्तित्व, प्रतिष्ठा व सम्मान गिर जाता है। याचक कभी आदरणीय नहीं बनता। सहानुभूति पाने वाला बीमार बन जाता है। वह हमेशा इसी ताक में रहता है कि वह कोई काम ऐसा करे ताकि लोग उसे सहानुभूति देने आएं। सहानुभूति पाना कभी भी प्रतिष्ठा की बात नहीं होती। इससे मनुष्य के व्यक्तित्च के विकास में बाधा पड़ती है और वह अपने चरित्र, अपनी अस्मिता व अपने आदर्श को भुलाकर दया का पात्र बने रहने में गौरव महसूस करता है।

परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति परमात्मा के सिवा किसी और की सहानुभूति नहीं लेना चाहता। आज हर गली-मुहल्ले में जुबानी सहानुभूति देने वालों की कमी नहीं है, लेकिन वैसी सहानुभूति से न देने वाले को कुछ अंतर पड़ता है, न लेने वाले को। सहानुभूति यदि हृदय से दी जाए तो उसका प्रभाव पड़ता है, उसका अर्थ होता है, क्योंकि देने वाले के शब्दों में अपनत्व होता है। अपनत्व भरे शब्दों से यदि किसी को थोड़ी मीठी अनुभूति हो जाए तो कुछ अर्थों में इसे प्रभावशाली माना जा सकता है, लेकिन इससे भी पाने वाले के व्यक्तित्व पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। ऐसे ही लोग जीवन भर पराश्रित रहकर दूसरे की सहानुभूति पाने का अपराध करते रहते हैं। एक साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह नींद के वश में न रहे, क्योंकि नींद साधना की विरोधी है। साधना के समय यदि साधक को आलस्य आ जाए, नींद आने लगे तो उसका साधना में उतरना संभव नहीं है। हमारा जीवन किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है, उसे उद्देश्यहीन बनाकर नष्ट करना उचित नहीं है। जीवन की सार्थक भूमिका यही है कि हम आत्मिक चिंतन करें और सारी ऊर्जा शक्ति का संग्रह कर जीवन में विवेक-शक्ति को जाग्रत करें। जो शरीर साधना के मार्ग से बुद्धि व विवेक से नियंत्रित होकर परमात्मा के प्रदेश में प्रवेश नहीं करता उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। मानव जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। यदि हमारा जीवन कर्मशील है तो हम जीवन में यशस्वी बन सकते हैं और यदि आलसी हैं तो समाज में निंदा के पात्र भी बन सकते हैं।

[ आचार्य सुदर्शन]