विचार : सुधरने का नाम नहीं ले रहा है सरकारी तंत्र, भ्रष्टाचार जारी, आखिर भारत कैसे बनेगा विकसित देश!
सरकारें सबसे बड़ी नियोक्ता हैं लेकिन केंद्रीय मंत्रालय भी मानकों के हिसाब से काम नहीं करा पा रहे हैं। सत्ताधारी यह जानते हैं कि बुनियादी ढांचे की योजनाओं का जिस तरीके से निर्माण एवं संचालन होना चाहिए वैसा मुश्किल से हो पा रहा है। इसके चलते ही सरकारों की ओर से कंसल्टिंग कंपनियों को विभिन्न कामों का ठेका देने का चलन बढ़ रहा है।
संजय गुप्त। अपने देश में सड़क दुर्घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसी सिलसिले के बीच पिछले दिनों लखनऊ के परिवहन आयुक्त ने केंद्र सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखा कि कामर्शियल वाहनों को कहीं से भी फिटनेस प्रमाणपत्र लेने की जो सुविधा प्रदान की गई है, उससे अराजकता फैल रही है। उन्होंने इंगित किया कि यदि एक वाहन पुलिस के कब्जे में हो तो उसका सर्टिफिकेट कहीं और से भी मिल गया। उन्होंने गोरखपुर, कानपुर समेत सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े ऐसे मामलों का जिक्र किया। उनका सुझाव था कि फिटनेस सर्टिफिकेट देने की पुरानी व्यवस्था फिर से लागू करना ठीक होगा।
ये सर्टिफिकेट क्षेत्रीय आरटीओ प्रदान करते थे। यह अपने देश में चलन बन गया है कि यदि सरकार नागरिकों को कोई सुविधा प्रदान करती है तो अनेक लोग उसका दुरुपयोग शुरू कर देते हैं। इसके चलते सरकारों को नागरिकों की सहूलियत के लिए प्रदान की गई सुविधाओं अथवा सेवाओं में फेरबदल करने को मजबूर होना पड़ता है। आखिर लोगों को अपनी कामर्शियल गाड़ियों की फिटनेस सही तरीके से कराने में क्या समस्या है? यदि उनके वाहन फिट नहीं होंगे तो दुर्घटना का खतरा रहेगा और सर्विस एवं मरम्मत खर्च भी बढ़ेगा। जिस भी गाड़ी की समय पर सर्विस होती है, उसमें ईंधन की भी खपत कम होती है। इसके बावजूद लोग लापरवाही बरतते हैं।
चूंकि पहले वाहनों की फिटनेस जांच में घपले होने और पैसे देकर फर्जी सर्टिफिकेट देने के मामले सामने आते रहते थे और वाहन मालिकों को आरटीओ से फिटनेस सर्टिफिकेट मिलने में कठिनाई भी होती थी, इसलिए सरकार ने एक सुविधा प्रदान की, लेकिन बात बनी नहीं। बात इसलिए नहीं बनी, क्योंकि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है।
बात केवल इसकी ही नहीं है कि भ्रष्टाचार के चलते कामर्शियल वाहनों की फिटनेस के मामले में उपयोगी नियम-कानून पर सवाल उठ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य मामलों में भी है और इसका एक कारण औसत सरकारी कर्मचारियों की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार है। यह किसी से छिपा नहीं कि आधारभूत ढांचे के निर्माण और रखरखाव से लेकर अन्य क्षेत्रों में गैरजिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की लापरवाही तथा भ्रष्टाचार के मामले सामने आते ही रहते हैं। किसी की सरकार हो, ऐसे मामले थमने का नाम नहीं लेते। इसका एक कारण तो यह है कि आजादी के बाद से ही नौकरशाही की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है।
चूंकि सरकारी सेवा में आने के बाद कामचोर और भ्रष्ट लोगों की नौकरी भी मुश्किल से जाती है, इसलिए नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पा रही है। इस भ्रष्टाचार ने जनता के समक्ष परेशानी खड़ी करने के साथ देश के विकास में बाधाएं डालने का भी काम किया है। शासन-प्रशासन के कई क्षेत्रों में समय के साथ सुधार होने के बजाय पहले जैसी स्थितियां हैं और जहां तक बुनियादी ढांचे के निर्माण की बात है, वहां तो भ्रष्टाचार न पहले नियंत्रित था और न आज है।
आखिर क्या कारण रहा कि मोदी सरकार ने नए संसद भवन का निर्माण सीपीडब्ल्यूडी या ऐसी ही किसी अन्य एजेंसी के बजाय टाटा की कंपनी से कराया? क्या अब सरकारों को अपनी ही एजेंसियों पर भरोसा नहीं या उन्हें आभास हो गया है कि वे सुधरने वाली नहीं? आमतौर पर निजी क्षेत्र की ओर से किए जाने वाले निर्माण की गुणवत्ता अपेक्षाकृत अच्छी होती है, लेकिन सरकारी एजेंसियों की ओर से कराए जाने वाले निर्माण की गुणवत्ता सुधरने का तो नाम ही नहीं ले रही है। समस्या यह है कि निर्माण क्षेत्र में सरकारी एजेंसियों वाला भ्रष्टाचार अब निजी क्षेत्र में भी देखने को मिलने लगा है।
सरकारें सबसे बड़ी नियोक्ता हैं, लेकिन केंद्रीय मंत्रालय भी मानकों के हिसाब से काम नहीं करा पा रहे हैं। सत्ताधारी यह जानते हैं कि बुनियादी ढांचे की योजनाओं का जिस तरीके से निर्माण एवं संचालन होना चाहिए, वैसा मुश्किल से हो पा रहा है। इसके चलते ही सरकारों की ओर से कंसल्टिंग कंपनियों को विभिन्न कामों का ठेका देने का चलन बढ़ रहा है। आखिर सरकारों को कंसल्टिंग कंपनियों की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्या शीर्ष नौकरशाह और खासकर आइएएस काबिल नहीं या फिर उनकी भर्ती प्रक्रिया सही नहीं? पिछले दिनों दिल्ली में सीवरलाइन और पेयजल पाइपलाइन के रखरखाव के लिए एक कंसल्टेंट कंपनी की सेवाएं लेने का फैसला किया गया। इसका मतलब है कि संबंधित सरकारी विभागों के इंजीनियर एवं अन्य कर्मचारी सीवर और पाइपलाइन बिछाने या उनका रखरखाव करने का साधारण सा भी काम नहीं कर पा रहे हैं।
आज ऐसा लगता है कि सत्ता में बैठे लोग यह मानकर चल रहे हैं कि औसत सरकारी कर्मचारी आगे भी ढंग से काम नहीं करेंगे। समझना कठिन है कि केंद्र अथवा राज्य सरकारों की निर्माण अथवा सेवा प्रदान करने संबंधी जो एजेंसियां हैं, वे अपने ही मानकों के हिसाब से काम क्यों नहीं कर पा रही हैं? होना तो यह चाहिए कि कुशलता एवं कार्य की गुणवत्ता के मामले में मंत्रालय, सार्वजनिक उपक्रम एवं अन्य सरकारी एजेंसियां निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करतीं और कोई उदाहरण पेश करतीं। इसका प्रभाव निजी क्षेत्र के साथ आम लोगों पर भी पड़ता और वे भी नियम-कानून के हिसाब से चलने की आवश्यकता समझते, लेकिन अपने देश में तो उलटी गंगा बह रही है।
फिलहाल केंद्र और राज्यों की एजेंसियों की कार्यप्रणाली में बुनियादी बदलाव एवं सुधार की जरूरी इच्छाशक्ति भी नहीं दिख रही है। नौकरशाही एक बड़ी हद तक अपने पुराने ढर्रे पर चल रही है। इसके चलते विकसित भारत का लक्ष्य कठिन होता जा रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री बार-बार यह कहते हैं कि उत्पादकता, गुणवत्ता एवं सेवाओं की बेहतरी से कोई समझौता नहीं होना चाहिए, लेकिन चंद क्षेत्रों को छोड़कर उसका बहुत असर होता नहीं दिख रहा है। भारत में विकसित देशों के मानकों के अनुरूप मुश्किल से ही कुछ दिखाई देता है। यदि यही स्थिति रही तो भारत विकसित कैसे बन सकेगा? अच्छा हो कि इस पर दलगत राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर विचार किया जाए। राष्ट्र का निर्माण तो सबकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए-शासन की भी, प्रशासन की भी और आम लोगों की भी।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]
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