विवेक काटजू : मंगलवार को अपनी गिरफ्तारी से पहले पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान अपने देश की सरकार पर लगातार हमलावर थे। इसी कड़ी में उन्होंने शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बैठक में भाग लेने के लिए भारत जाने की तैयारी कर रहे विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को आड़े हाथों लिया था। इमरान खान का कहना था कि जब देश भारी वित्तीय संकट में है, तब इस प्रकार के दौरे पर भारी सरकारी खर्चे का कोई तुक नहीं। फिर एससीओ बैठक के दौरान उन्होंने भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की तीखी आलोचना में कहा कि उन्होंने बिलावल के प्रति उचित शिष्टाचार नहीं दिखाया और अगर यही करना था तो बेहतर होता कि उन्हें आमंत्रित ही न करते।

यह वही इमरान थे, जिन्होंने गत वर्ष दिसंबर में तब बिलावल को शिष्टाचार पर कोई नसीहत नहीं दी थी, जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने न्यूयार्क में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध बयानबाजी में मर्यादा की रेखा लांघ दी थी। यह कहना बिल्कुल गलत है कि भारत ने बिलावल को अपमानित किया। बिलावल एससीओ की बैठक में भाग लेने के लिए गोवा आए थे और उन्हें वही प्रोटोकाल मिला, जो बहुपक्षीय बैठकों में शामिल होने वाले प्रतिभागियों को मिलता है। उन्होंने मेजबान विदेश मंत्री जयशंकर के साथ बैठक के लिए कहा ही नहीं था। बिलावल ने तो पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह द्विपक्षीय बैठक नहीं चाहते, जबकि सामान्य परंपरा में द्विपक्षीय बैठक का चलन है। चीन एवं रूस के विदेश मंत्रियों ने इसी परिपाटी के अनुसार जयशंकर से वार्ता भी की। इस प्रकार देखें तो प्रोटोकाल का पालन खुद बिलावल ने ही नहीं किया।

एससीओ विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद प्रेस कांफ्रेंस में जयशंकर ने उचित ही कहा कि बिलावल पाकिस्तानी आतंक उद्योग के प्रवर्तक और प्रवक्ता हैं। अच्छी बात है कि जयशंकर ने इतने कड़े शब्द प्रयोग किए और कांफ्रेंस में यह भी उल्लेख किया कि जब तक पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आतंक की नीति का परित्याग नहीं करता, तब तक उसके साथ संवाद का कोई प्रश्न ही नहीं।

भारत का यह रुख समय की कसौटी पर एकदम खरा था, क्योंकि उसी दिन राजौरी में एक आतंकी हमले के दौरान हमारे पांच जवान बलिदान हो गए थे। जयशंकर ने यह भी बखूबी उल्लेख किया कि अगर पाकिस्तान के साथ जम्मू-कश्मीर को लेकर कोई बात होनी है तो वह भारतीय क्षेत्र पर उसके अवैध कब्जे को छोड़ने को लेकर होगी। जहां पाकिस्तान को लेकर अपने बयानों के लिए जयशंकर प्रशंसा के पात्र हैं, वहीं बिलावल ने इस मंच का इस्तेमाल भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर अपने देश का रुख दोहराने के लिए किया, जिसमें दो वरिष्ठ भारतीय पत्रकार उनके मददगार बने।

बिलावल ने वर्तमान में भारत के सबसे बड़े नेता पर आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए माफी नहीं मांगी और उसके बावजूद उन्हें यह मंच दे दिया गया। मैंने पहले भी भारतीय मीडिया से गुजारिश की है कि बिलावल को तब तक कोई मंच न दें, जब तक कि वह मोदी पर की गई टिप्पणियों के लिए माफी नहीं मांग लेते। ऐसे में भारतीय विदेश मंत्रालय और खुद विदेश मंत्री के लिए बेहतर रहता कि वह इस इस मामले में भारतीय मीडिया संस्थानों से कुछ बात करते। यह विदेश नीति के मुद्दों पर सरकार और मीडिया के बीच पर्दे के पीछे की संवाद प्रक्रिया होती। आखिर, राष्ट्र हितों की परवाह केवल सरकार का नहीं, बल्कि यह प्रत्येक भारतीय का जिम्मा है।

उक्त दोनों पत्रकारों ने मोदी के विरुद्ध बिलावल की टिप्पणियों का संदर्भ दिया। इस पर बिलावल का जवाब था कि राजनीति और कूटनीति में कुछ भी निजी नहीं होता। यह सच है कि नेताओं की नीतियां और कदम ‘निजी मामलों’ की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन मोदी के मामले में बिलावल की बदजुबानी को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता। खासतौर से उनके इस बयान को देखते हुए कि जहां ओसामा बिन लादेन मारा गया, वहीं मोदी तो ‘जीवित’ हैं। दुख की बात यही है कि न तो दोनों वरिष्ठ भारतीय पत्रकारों और न ही जयशंकर ने इस ओर कोई संकेत किया। जबकि ये ऐसे शब्द थे, जिन्हें कोई दुश्मन देश के नेता के लिए भी उपयोग नहीं करता।

उल्लेखनीय है कि टीवी साक्षात्कार के दौरान भारतीय पत्रकार ने मुंबई बम धमाकों के मास्टरमाइंड दाऊद इब्राहिम का जिक्र करते हुए पूछा कि क्या वह कराची के उसी क्लिफ्टन इलाके में रहता है, जहां भुट्टो और जरदारी परिवार के पुश्तैनी मकान हैं? बिलावल ने इस आरोप को अनदेखा कर दिया। दुर्भाग्यवश, पत्रकार ने उनके सामने इस सवाल पर जोर नहीं दिया कि वह यह स्वीकार करते हैं या इससे इन्कार? इस प्रकार भारत के लिए अहम मुद्दे पर बिलावल को बच निकलने का मौका मिल गया। उलटे बिलावल ने दोनों ही साक्षात्कारों में कुलभूषण जाधव के मामले में भारत को घेरने का दांव चला। नि:संदेह, सवाल पूछना मीडिया का काम है और राजनयिकों की जिम्मेदारी है कि वे सीधी बात रखें। यह एक सामान्य परिपाटी है, लेकिन जब कोई मेहमान विदेश मंत्री भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए भारतीय मंचों का इस्तेमाल करे तो क्या वरिष्ठ पत्रकारों को उन्हें झूठ परोसकर बच निकलने का मौका देना चाहिए?

एक पूर्व राजनयिक होने के नाते मेरा यही मानना है कि देशों को संवाद करना चाहिए, लेकिन यह उस देश के साथ नहीं हो सकता, जो आतंक के इस्तेमाल में विश्वास करता हो। पूर्ववर्ती सरकारों और यहां तक कि मोदी सरकार भी 2016 तक पाकिस्तान से संवाद जारी रखने में भरोसा जताती रही। पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारत ने यह तय कर लिया कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को नहीं छोड़ता, तब तक उसके साथ प्रत्यक्ष रूप से कोई वार्ता नहीं होगी। यह कड़ा रुख कायम रखना होगा। साथ ही भारतीय मीडिया के कुछ हिस्सों को भी इस पर गहन मंथन करना होगा कि क्या भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए पाकिस्तान को कोई मंच उपलब्ध कराया जाए? मीडिया की स्वतंत्रता आवश्यक है, लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक है कि वह शत्रु देश के दुष्प्रचार का माध्यम न बने।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)