मानव ईश्वर की उपासना करे अथवा न करे, कभी-कभी उसके जीवन में कोई समय ऐसा आ ही जाता है कि वह स्वयं को आत्मतत्व के रूप में पहचान लेता है। यही भाव जब बढ़ जाता है और विचार भौतिकता से ऊपर उठकर जब ज्ञान का स्पर्श करने लगते हैं तो वह धीरे-धीरे समता की स्थिति की ओर बढ़ने लगता है। ईश्वर ने जीव को बनाया है। प्रत्येक जीव अपने प्रारब्ध के अनुसार मानव देह या अन्य देह पाता है। सर्वश्रेष्ठ देह मानव की प्राप्ति में आत्मतत्व के संज्ञान के साथ वह स्वमेव सोचने ही लगता है कि संसार में सब एक समान हैं- विचार के साथ यह भाव कर्म में आने लगता है तो वह आध्यात्मिक सीढि़यों की ओर कदम बढ़ा ही लेता है। साधक आत्मज्ञान के साथ स्वार्थ से सर्वथा रहित होकर जब आगे बढ़ता है तो आत्मा गुरु का रूप ले उठती है और वह समझ जाता है कि ईश्वर का अंश जो मुझमें है वह सब मानव में और सब मानव में ही नहीं सब प्राणियों में भी निहित है। सारे संसार में वह सर्वत्र, सबके हृदय में ईश्वर को देखता है। उस स्थिति में वह पंडित भी बन जाता है और ईश्वर का महान भक्त भी। साधक सब प्राणियों में समदर्शी बन जाता है और इस स्थिति में वह सभी सुख-दुख से भी स्वयं को निर्लिप्त कर लेता है। उसे न सुख-दुख विचलित कर पाते हैं और न ही लाभ-हानि। वह इन सब बातों से ऊपर उठ जाता है। वह मानव ईश्वर का प्रिय भक्त भी बन जाता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं स्पष्ट करते हैं- सम: शत्रौ सम: मित्रौ तथा मानापमानयो:। शीतोष्ण, सुख दुखेषु सम: संडगविवर्जते:।। अर्थात् जो पुरुष शत्रु-मित्र में मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गरमी और सुख-दुखादि द्वंद्वों में सम है और संसार में आसक्ति से रहित है, वही ईश्वर का सच्चा भक्त है। निंदा-प्रशंसा में सम, मान-अपमान में सम होना ही सच्चे साधक के लक्षण हैं और सच्चे भक्त के भी। समभाव के बिना सच्चा भक्त नहीं बना जा सकता।

[सरस्वती वर्मा]

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