विचार: गांवों में बढ़ते जा रहे खाली पड़े घर, इन्हें सूनेपन से बचाने की योजना पर सभी सरकारों को काम करना होगा
सीमावर्ती गांवों के घरों एवं पुरानी हवेलियों के पुनरुद्धार के लिए केंद्र सरकार एवं संबंधित राज्य सरकारों ने कई योजनाएं चलाई हैं लेकिन गांवों के उन सामान्य घरों के लिए कोई योजना नहीं है जो उनके स्वामियों के शहर में रहने के कारण बंद/खाली पड़े हैं। इसे लेकर राज्यों को भी चेतना चाहिए और केंद्र को भी।
सुधीर पंवार। कभी पहाड़ी राज्यों एवं सीमावर्ती गांवों में घरों के मुख्य द्वार पर ताले लटके दिखाई देते थे, लेकिन अब पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि के समृद्ध गांवों में भी सूनेपन का यह दायरा तेजी से बढ़ रहा है। मानव सभ्यता का इतिहास स्थानांतरण से जुड़ा है। गांव ही शहरों के रूप में विकसित हुए। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में ग्रामीण एवं नगरीय सभ्यता के साथ-साथ रहने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे कई प्रमाण वेदों एवं उपनिषदों में भी हैं। ग्रामीण आर्थिकी लंबे समय तक कृषि एवं उससे जुड़े कुटीर उद्योगों पर आधारित रही। यह सीमित आवश्यकताओं एवं वस्तु विनिमय आधारित बाजार के कारण आत्मनिर्भर भी रही। खेती के मशीनीकरण से पहले मानव श्रम पर आधारित होने के कारण संयुक्त परिवार तथा पशुपालन के लिए गांवों में बड़े आवास एक आवश्यकता थे। गांवों मे संयुक्त परिवार तथा सामाजिक संगठन उसी का परिणाम थे।
समय के साथ औद्योगिक क्रांति ने ग्रामीण एवं नगरीय संबंधों को बदल दिया। इसके चलते गांवों की भूमिका नगरों को कृषि उत्पाद तथा मानव श्रम उपलब्ध कराने की हो गई तथा नगर औद्योगिक एवं अन्य व्यावसायिक गतिविधियों के विशिष्ट केंद्रों के रूप में विकसित हुए। उद्योगीकरण के विस्तार के लिए सरकारों ने कृषि उत्पादों एवं मानव श्रम को सस्ता रखने की नीतियां बनाईं, जिससे उद्योगों के साथ-साथ नगरों का तेजी से विस्तार हुआ तथा आर्थिक समृद्धि आई, वहीं गांव नगरीय उपनिवेश में बदल गए। कृषि के मशीनीकरण और गांवों में बाजार के विस्तार के बाद व्यापारियों, दस्तकारों, गैर कृषि तथा कृषि श्रमिकों का नकारात्मक एवं सकारात्मक कारणों से शहरों की ओर प्रव्रजन हुआ।
औद्योगिक क्रांति ने ग्रामीण एवं नगरीय संबंधों को बदल दिया, गांवों की प्रमुख भूमिका नगरों को सस्ता खाद्यान्न एवं मानव श्रम उपलब्ध कराने की हो गई, नगर औद्योगिक एवं अन्य व्यावसायिक गतिविधियों के विशिष्ट केंद्रों के रूप में विकसित हुए। उद्योगीकरण के विस्तार के लिए सरकारों ने कृषि उत्पादों एवं मानव श्रम को सस्ता रखने की नीतियां बनाईं जिससे उद्योगों के साथ-साथ नगरों का तेजी से विस्तार हुआ। विस्तार की यह प्रक्रिया समय के साथ और व्यापक होती गई।
गांवों में प्राथमिक शिक्षा के विस्तार तथा शहरों में बढ़ते रोजगार के अवसरों के कारण किसान परिवारों का भी सरकारी एवं निजी सेवाओं में प्रतिनिधित्व बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1960 में ग्रामीण क्षेत्रों में 81.60 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती थी, जो संभवत: इन्हीं कारणों से 2022 में घटकर 64.17 प्रतिशत रह गई। आज ग्रामीण क्षेत्रों में काम के अवसरों में कमी, खेती में घटती आय, गांवों के प्रति सरकारी उदासीनता तथा शहरों में नियोजित विकास, सार्वजनिक सुविधाएं, सेवा क्षेत्रों का विस्तार तथा रोजगार के अवसरों के कारण बड़ी-बड़ी संख्या में ग्रामीण युवक, युवतियां गांव छोड़कर शहरों में बस रहे हैं। पंजाब के गांवों के आर्थिक एवं समाजशास्त्रीय अध्ययन से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। यहां 14.34 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों से एक या अधिक सदस्य विदेश में हैं। पुरुषों के बाहर जाने से गांवों में महिलाओं एवं अकेले बुजुर्गों की संख्या बढ़ी है, बड़े-बड़े घरों में ताले लटक रहे हैं। उप्र आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि उद्योग एवं सेवा क्षेत्र वाले जिले गौतमबुद्ध नगर की प्रति व्यक्ति आय कृषि आधारित प्रतापगढ़ से 22 गुना अधिक है।
बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में खेतिहर मजदूर पंजाब के गांवों में बस रहे हैं, जिससे वहां का धार्मिक-सामाजिक ढांचा बदल रहा है। बिहार, उत्तर प्रदेश आदि से मजदूर केरल जैसे दक्षिण के राज्यों में भी जा रहे हैं। कठिन भौगोलिक स्थितियों एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण हिमाचल एवं उत्तराखंड के युवाओं का भी तेजी से महानगरों की ओर विस्थापन हो रहा है। यहां बुजुर्ग अकेलेपन के विषाद के साथ जीवन बिता रहे हैं, जिसकी वास्तविकता हमें ‘पायर’ फिल्म के पदम सिंह एवं उसकी पत्नी तुलसी के चरित्र में दिखती है, जो पहाड़ों में अपने बेटे की प्रतीक्षा में जीवन बिता रहे हैं।
कोरोना के बाद घरेलू पर्यटन में वृद्धि हुई है। इसका लाभ लेने के लिए पहाड़ों राज्यों में मैदानी क्षेत्रों के व्यवसायी होटल एवं रिजार्ट में निवेश कर रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ी पर्यटन स्थलों से स्थानीय निवासी बाहर हो रहे हैं। इसके चलते वहां पर असंतोष पनप रहा है। हालांकि इसे दूर करने के लिए संबंधित सरकारों ने राज्य से बाहर के निवासियों के लिए जमीन खरीदने पर प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन यह ट्रेंड बढ़ता जा रहा है। अधिकांश मैदानी राज्यों के गांवों का भी यही हाल है।
यहां भी सरकारी सेवा एवं व्यवसाय के लिए शहर में बस गए परिवारों के घरों पर ताले लटके हैं। पुरखों के सम्मान से जुड़े होने के कारण वे उन्हें बेच भी नहीं पा रहे हैं। लिहाजा धीरे-धीरे वे निष्प्रयोज्य एवं वीरान हो रहे हैं। सीमावर्ती गांवों के घरों एवं पुरानी हवेलियों के पुनरुद्धार के लिए केंद्र सरकार एवं संबंधित राज्य सरकारों ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन गांवों के उन सामान्य घरों के लिए कोई योजना नहीं है, जो उनके स्वामियों के शहर में रहने के कारण बंद/खाली पड़े हैं। इसे लेकर राज्यों को भी चेतना चाहिए और केंद्र को भी।
(लेखक उत्तर प्रदेश योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।