अहिंसा का अर्थ प्रेम होता है। किसी को न सताना और न मारना और प्राणिमात्र को दुख न देना ही अहिंसा है। अहिंसा भी दो प्रकार की होती है-स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल हिंसा का आशय है कि किसी को मार डालना, अंग-भंग कर देना, शोषण और अपमानित करना, व्यंग्य व ताने मारना और शस्त्रों का प्रयोग करना आदि। सूक्ष्म हिंसा का आशय है-मन में किसी के प्रति दुर्भाव रखना, घृणा करना, राग-द्वेष रखना और किसी को मानसिक रूप से सताना। मन में सूक्ष्म हिंसा भरी रहना, जो जरा-सी चिंगारी देखते ही बारूद की भांति भभक उठती है। हिंसा में एक भाव सदैव मन में भरा रखना-‘मैं’ और ‘मेरी मर्जी’। इसी ‘मैं’ के कारण सर्वत्र संघर्ष हो रहा है। समाज, परिवार बर्बाद हो रहे हैं। सर्वत्र हिंसा का दावानल सुलग रहा है। इसी स्थिति से त्राण पाने का उपाय है-अहिंसा। योग की आठ सीढ़ियों में प्रथम सीढ़ी अहिंसा है। हम परिवार में रहते हैं। समाज में, व्यक्तिगत जीवन में, पारिवारिक जीवन में हमारा सैकड़ों लोगों से संपर्क होता है। व्यवहार में अहिंसा की साधना का श्रीगणेश यहीं से किया जा सकता है। घर-परिवार, समाज, पड़ोस में, जहां-कहीं भी किसी व्यक्ति के संपर्क में हम आएं तो लोगों से प्रेम से मिलें और प्रेम का व्यवहार करें।
यह सत्य है कि प्रेम का मार्ग जटिल होता है। उसमें त्याग करना होता है, बलिदान करना पड़ेगा, निजी स्वार्थ छोड़ना होगा। उसमें सहनशीलता, उदारता, क्षमा, करुणा, दया और नम्रता जैसे सद्गुणों का विकास करना होता है। यानी प्रेम को जीवन में उतारना ही अहिंसा का पाठ है। यदि हमारे हृदय में प्रेम भर जाए, फिर तो हिंसा अपने आप चली जाएगी। किसी को मारने की, सताने की, कष्ट पहुंचाने की भावना तभी बढ़ती-पनपती है, जब हम उसे ‘पराया’ समझने लगते हैं। क्या अपनों को कोई सताता या कष्ट पहुंचाता है। यदि हम सभी लोगों को ‘अपना’ स्वीकार कर लें तो अहिंसा की साधना सफल हो जाएगी। भारतीय विचारधारा में सभी को अपना मानने की, अपना बनाने की भावना शुरू से ही बलवती होती आई है-‘ईश आवास यह सारा जगत’। फिर तो समस्त विश्व एक कुटुंब बन जाएगा। ‘मेरा’-‘तेरा’ का कोई भाव नहीं। हम विश्व परिवार के सदस्य हैं। हमारा किसी से झगड़ा, घृणा और विरोध नहीं। आइए, सच्चे मन से, सच्चे हृदय से इस अहिंसा धर्म के पालन का व्रत ले लें।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]